युवा डॉक्टरों को भी आत्मनिरीक्षण की जरूरत
अविजित पाठक
अब जब मैं कोलकाता से यह लेख लिख रहा हूं, तो युवा डॉक्टरों को सड़क पर उतरकर, अपनी आवाज़ उठाते, पश्चिम बंगाल के सरकारी अस्पतालों में भ्रष्टाचार के विशाल नेटवर्क का पर्दाफाश करते या उनमें व्याप्त ‘धमकाने वाली संस्कृति’ के अत्याचार को उजागर करते और अपने कार्यस्थल पर सुरक्षा और संरक्षण की मांग करते हुए देख रहा हूं।
हां, उनका दृढ़ निश्चय या सत्ताधारी राजनीतिक प्रतिष्ठान से लड़ने का उनका साहस वाकई में प्रशंसनीय है। फिर भी, मैं उनसे और उनके वरिष्ठ सहयोगियों से अपील करना चाहता हूं कि वे अपने क्षितिज को व्यापक बनाएं, पर्याप्त रूप से आत्म-चिंतनशील बनें और साथ ही आधिपत्यवादी बायोमेडिसिन की खामियों का आलोचनात्मक विवेचन करें - इसके प्रभुत्व का विमर्श, इसके वस्तुकरण और इससे जुड़े अनेकानेक आचरणों का।
हालांकि, डॉक्टरों का मैं भी प्रशंसक हूं, और मैं आधुनिक चिकित्सा की उल्लेखनीय उपलब्धियों से अवगत हूं। जैसे कि, व्यक्ति इंसुलिन लेकर अपने मधुमेह को नियंत्रित कर लेता है और यथासंभव सामान्य जीवन सुचारु रूप से जीता है, या फिर घुटने की सर्जरी करवाकर पुनः आत्मविश्वास से चलने लगता है - आधुनिक चिकित्सा की श्लाघापूर्ण गाथाएं हर घर में सुनी जा सकती हैं। लेकिन फिर भी, इन उपलब्धियों के बावजूद, मैं अपनी दुविधा से इनकार नहीं कर सकता, यहां तक कि आधुनिक बायोमेडिकल व्यवस्था की कुछ गंभीर आलोचना भी करता हूं। मैं चाहता हूं कि युवा डॉक्टर - विशेषकर - क्योंकि उन्होंने अभी तक अपनी आलोचनात्मक सोच खोई नहीं होती, व्याप्त प्रणाली की आलोचना पर विचार करें और अपने संघर्ष को एक नया अर्थ दें।
युवा डॉक्टरों को ज्ञान की प्रचलित राजनीति पर विचार करने की जरूरत है। क्या यह तथ्य नहीं है कि आयुर्वेद, यूनानी या होम्योपैथी जैसी ‘पारंपरिक’ चिकित्सा प्रणालियों को खारिज करना काफी आसान है? यदि बतौर एक मरीज आप आधुनिक बायोमेडिकल प्रणाली से असंतोष के बारे में बोलने की हिम्मत करते हैं, तो आपको याद दिलाया जाएगा कि आप केवल एक अनाड़ी हैं, इसलिए, आपके लिए डॉक्टर द्वारा सुझाए गए या निर्धारित की गई हर चीज या लिखे नुस्खेे को स्वीकार करना श्रेयस्कर है।
वास्तव में, जैसा कि इवान इलिच ने अपनी उत्कृष्ट रचना ‘लिमिट्स टू मेडिसिन’ में बड़ी बारीकी से व्यक्त किया है कि आधिपत्यवादी बायोमेडिसिन में निहित प्रभुत्व का विमर्श रोगी की प्रभावशीलता को सीमित कर देता है। लेकिन फिर, बतौर रोगी, आप केवल मापने योग्य मापदंडों (मसलन, आपका ब्लड कल्चर, या आपकी बायोप्सी रिपोर्ट के निष्कर्ष) के एक समुच्चय के साथ कोई ‘पहचानहीन’ शरीर न होकर, चेतना सहित एक जीवित आत्मा और जीता-जागता व्यक्तित्व भी हैं, और आप जिस ढंग से जीना या मरना चाहते हैं, उसको लेकर आपकी अपनी पसंद होनी चाहिए।
क्या आपके लिए जरूरी है कि किसी सुपर-स्पेशिएलिटी अस्पताल के आईसीयू में कीमोथेरैपी की दर्दनाक प्रक्रिया से गुजरें, इस उम्मीद के साथ कि इससे आपको ‘एक्यूट माइलॉयड ल्यूकेमिया’ के दर्द से अस्थायी राहत मिल सकेगी, और अगले दो महीने तक और जीवन चल सकता है? या, क्या आपको खुद को एक्सपेरिमेंट करने की एक वस्तु में बदलने से मना कर देना चाहिए और अपने घर वापस लौटना चाहिए ताकि अपने शयनकक्ष में, अपने प्रियजनों की मौजूदगी के बीच दुनिया छोड़ी जा सके? चाहे यह ‘वैज्ञानिकता’ की शक्ति और आभा से युक्त सर्वश्रेष्ठ डॉक्टर हों या फिर कृत्रिम जीवन-रक्षक प्रणालियों की तकनीक, किसी को भी आपको आपकी पसंद या आपकी इच्छा से वंचित करने की अनुमति नहीं होनी चाहिए।
हालांकि, विडंबना यह है कि आधिपत्य वाली बायोमेडिसिन के कारण और इलिच के शब्दों में कहें तो, ‘मौत के चिकित्साकरण’ के परिणामस्वरूप लगता है हममें से अधिकांश ने जीने और मरने के अनुभव पर अपना नियंत्रण खो दिया है। डॉक्टरों और उनसे संलग्न दवा उद्योग की हर बात पर ‘हां’ न कहने को अक्सर गैरजिम्मेवाराना काम या ‘विज्ञान विरोधी’ स्वभाव का प्रदर्शन माना जाता है!
इसी प्रकार, क्या युवा डॉक्टरों के लिए यह संभव होगा कि वे इस बात से कुछ असहज महसूस करें कि उनके पेशे को किस प्रकार व्यापार या मुनाफ़ा कमाने वाले धंधे में बदल दिया गया है? बेशक, डॉक्टरों को कमाने और एक बढ़िया जीवन जीने की ज़रूरत है। लेकिन फिर, हम देखते हैं कि कैसे हमारे भीड़भाड़ से अटे सरकारी अस्पतालों में अच्छी सुविधाओं की कमी के कारण (मत भूलें कि वित्तीय वर्ष 2024 के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य पर व्यय सकल घरेलू उत्पाद का केवल 2.2 प्रतिशत रखा गया है) कॉर्पोरेट सुपर-स्पेशियलिटी अस्पताल ‘बढ़िया स्वास्थ्य’ को ‘उचित’ मूल्य सूची के साथ एक वस्तु के रूप में बेचने में संकोच नहीं करते – मसलन, आईसीयू में रखने का खर्च प्रतिदिन 90,000 रुपये, या डीलक्स कमरा : 75,000 रुपये हर रोज,या बाईपास सर्जरी और किडनी प्रत्यारोपण के लिए आकर्षक ‘पैकेज’ या ‘छूट’। कोई आश्चर्य नहीं, स्वास्थ्य बीमा कंपनियां ‘खुश उपभोक्ताओं के चेहरे पर मुस्कान लाना’ चाहती हैं, और आपको सलाह देती हैं कि ‘खर्च सीमा के बारे में चिंता न करें, केवल अपने स्वास्थ्य लाभ पर ध्यान दें’!
हालांकि, यदि आप अपनी आंखें खुली रखने की हिम्मत करें तो आप आसानी से देख सकते हैं कि कैसे एक पवित्र पेशा तेजी से कॉर्पोरेट अस्पताल एवं नर्सिंग होम, सदा पॉलिसी करवाने पर जोर देती स्वास्थ्य बीमा कंपनियों और सबसे बढ़कर, 65 बिलियन डॉलर मूल्य के दवा उद्योग की शृंखला से जुड़े एक बदसूरत व्यापार में परिवर्तित हो रहा है। क्या यही कारण है कि मध्यम वर्ग के माता-पिता अपने बच्चों को संदिग्ध निजी मेडिकल कॉलेजों में भेजने के लिए अपनी संपत्ति तक बेचने के लिए तैयार हैं ताकि वे ‘डॉक्टर’ बन सकें?
और, अंत में, क्या आधुनिक बायोमेडिसिन के चिकित्सकों को बीमारी और रोगी के सामाजिक-आर्थिक पहलू की भी शिनाख्त होनी चाहिए? उदाहरणार्थ, यदि आप अपनी रिहायश के परिवेश में या बतौर एक निर्माण अथवा एक कोयला खदान मज़दूर लगातार प्रदूषित हवा के संपर्क में रहते हैं तो क्या कोई डॉक्टर आपकी पुरानी खांसी को केवल महंगी दवाइयों के ज़रिए ठीक कर पाएगा? या, इसी प्रकार, अगर प्रशासन आपकी झुग्गी-झोपड़ी कालोनी में स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल उपलब्ध कराने में विफल रहता है और आपके पास महंगे वाला वाटर फिल्टर अथवा पानी की बोतलें खरीदने लायक पैसे नहीं हैं तो क्या सबसे अच्छा डॉक्टर भी आपको पेट की बीमारियों और पीलिया की पुनरावृत्ति से मुक्त करने में मददगार हो सकता है?
शायद, ‘मूल्यों के प्रति तटस्थ’ चिकित्सा विज्ञान कठिन सामाजिक-राजनीतिक प्रश्न पूछना नहीं चाहता। इसकी बजाय रोगी को सिर्फ़ एक ‘पहचानहीन’ शरीर के रूप में लेना और उसे अनेकानेक ‘परीक्षणों’ के लिए क्लिनिकल लैब्स में जाने के लिए कहना आसान है, जिसका खर्च वह शायद ही कभी उठाने योग्य हो! हां, जैसा कि कोलकाता ने दिखाया है, युवा डॉक्टर अपने अधिकारों और सम्मान के लिए विरोध करने के लिए पर्याप्त साहसी हैं। लेकिन फिर, क्या यह पूरी तरह से गलत होगा यदि आप और मैं उनसे कुछ हद तक आत्मनिरीक्षण की अपेक्षा रखें कि वे आधुनिक बायोमेडिकल प्रणाली को अमानवीय बनाने वाली विकृति के खिलाफ़ भी अपनी आवाज़ उठाएं?
लेखक समाजशास्त्री हैं।