नये संकल्पों का साल
सामान्य अर्थों में देखें तो समय साल-दर-साल अपनी चाल चलता रहता है। नया साल समय का एक मानक है। साल कोई अच्छा-बुरा नहीं होता, परिस्थितियां उसकी दशा-दिशा तय करती हैं। यह हम पर निर्भर करता है कि समय के इस मानक को हम किस तरह बेहतर बनाते हैं। यह विचित्र संयोग ही कि नया साल रक्त जमाती सर्दी के बीच दस्तक देता है। खासकर, पश्चिमी देशों में तो बर्फ सामान्य जन-जीवन को जमा देती है। वातावरण में एक उदासी सी होती है। संभवत: जीवन की इसी एकरसता को तोड़ने के लिये ही नया साल मनाने की परंपरा शुरू हुई होगी। ताकि सर्दी को अंगूठा दिखाकर सार्वजनिक जीवन में उत्सव व उल्लास का मौसम बने। जहां तक भारतीय नववर्ष का आगमन है, वह उस समय आता है जब कुदरत मुस्करा रही होती है। सर्दी की विदाई की वेला, और ग्रीष्म ऋतु दस्तक दे रही होती है। वृक्षों पर फल-फूल व खेतों में नई फसल पकने की तैयारी होती है। बहरहाल, उत्सव कैसे भी हों हमें उल्लासित करते हैं, हमारे जीवन की एकरसता को तोड़ते हैं। नये उत्साह का संचार करते हैं। लेकिन नये साल का उत्सव हमें अराजक व्यवहार का लाइसेंस नहीं देता। सड़कों पर नशे में झूमने और तेज गति से वाहन चलाने का लाइसेंस नहीं देता। एक व्यक्ति की आजादी किसी की आजादी का अतिक्रमण करने का अधिकार नहीं देती। विडंबना है कि नई पीढ़ी तरह-तरह के नशों में डूबकर नये साल का उच्छृंखल जश्न मनाने को बेताब नजर आती है। उनसे सवाल किया जाना चाहिए कि देर रात तक हुड़दंग के बाद जब वे देर से एक अलसायी सुबह के साथ उठते हैं तो क्या ऐसे नये साल का स्वागत करते हैं?
बहरहाल, हमने वर्ष 2024 में कदम रख लिया है। यह साल देश में आम चुनावों का साल है। यह लोकतंत्र के महाकुंभ का वर्ष है। बतौर जिम्मेदार नागरिक हमें तटस्थ भाव से संकीर्णताओं की राजनीति करने वालों को खुली छूट नहीं देनी है कि वे भारतीय लोकतंत्र में सामाजिक समरता व धर्मनिरपेक्षता का अतिक्रमण करें। भारत विभिन्न संस्कृतियों व धर्मों का गुलदस्ता है। इसमें बहुसंख्यक वर्ग के भी अपने विशिष्ट दायित्व हैं। सत्ताधीशों को भी धार्मिक मामलों से तटस्थता व सुरक्षित दूरी रखनी चाहिए। राजनेताओं को विशुद्ध राजनीति करनी चाहिए व धर्मगुरुओं को धार्मिक क्रियाकलाप। दरअसल, कोई भी लोकतंत्र सहिष्णुता, सद्भाव व विश्वबंधुत्व के आधारभूत तत्वों से ही समृद्ध होता है। विडंबना यह कि देश का बड़ा वर्ग अपने लोकतांत्रिक अधिकारों व अपनी मतदान की शक्ति से अनभिज्ञ नजर आता है। वह तमाम संकीर्णताओं व प्रलोभनों की राजनीति का शिकार हो जाता है। दरअसल, लोकतंत्र की शुचिता व भविष्य उसके जिम्मेदार नागरिकों के व्यवहार पर निर्भर करता है। देश के युवाओं के कंधों पर इस लोकतंत्र की अस्मिता की रक्षा का दायित्व है। उन्हें लोकतंत्र के महाकुंभ को गंभीरता से लेते हुए न केवल अपने मताधिकार का प्रयोग करना है बल्कि स्वस्थ जनमत बनाने में भी अपना योगदान देना है। विश्वास करें कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र से एक स्वस्थ संदेश दुनिया को जाएगा।