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घटती-बढ़ती महंगाई पर क्या दिमाग खपाना!

06:29 AM Nov 10, 2023 IST
घटती बढ़ती महंगाई पर क्या दिमाग खपाना
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मनीष कुमार चौधरी

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बहुत दिनों से सोच रहा था कि महंगाई पर विचार करूं। जो शब्द रोजमर्रा के जीवन में बीसियों बार बोला जाता है, उस पर विचार न करना एक बुद्धिजीवी को शोभा नहीं देता। पर बुद्धिजीवी बड़ा सयाना होता है। सरकार जो कर रही होती है, बुद्धिजीवी उस पर विचार करना अपना अपमान समझता है। कोई राजनीतिज्ञ ही इस पर बेहतर प्रकाश डाल सकता है, जिसकी नीतियों की वजह से यह महंगाई का टंटा खड़ा हुआ है। हालांकि कोई राजनीतिज्ञ महंगाई के बारे में उतना ही जानता है, जितना एक आम आदमी।
‘यह बार-बार महंगाई क्यों बढ़ जाती है?’ महंगाई शब्द सुनने की देर थी कि नेता के भीतर की राजनीति जाग गई। वह आंखें तरेर कर बोला, ‘गरीब के पास पैसा अधिक आ गया है। इसलिए महंगाई बढ़ गई है।’ जवाब माकूल था, क्योंकि वह राजनीतिज्ञ ही क्या जो पैसे की बात न करे। ‘लेकिन यह तो अमीरों की बात हुई, ऐसी हालत में गरीब क्या करेगा?’ गरीब शब्द से राजनीतिज्ञ को बेहद चिढ़ थी। उसकी भवें तन गईं और वह लगा गरीबी पर भाषण झाड़ने।
‘गरीब का तो किया ही क्या जा सकता है। और गरीब आदमी का महंगाई से क्या काम! हां, महंगाई को अमीरों से जोड़ कर ही इस विषय पर कुछ कहा जा सकता है। यूं भी मुद्रास्फीति, बाजार, जीडीपी, उपभोक्ता सूचकांक, तेजी-मंदी, खरीदारी-बिकवाली, औद्योगिक विकास, डाटा, महंगाई का ग्राफ... जैसे शब्दों से भला गरीब का क्या लेना-देना। एक गरीब की क्या परचेजिंग पावर! वह तो मार्केट में कंज्यूमर ही नहीं होता। खरीदारी तो अमीरी से जुड़ी होती है। पेट काट कर जीने वाला गरीब तो जब महंगाई बढ़ी हुई होती है तब भी उपभोक्ता नहीं होता और जब महंगाई कम होती है, तब भी नहीं होता।
थोड़ी ही देर में राजनीतिज्ञ गंभीरता छोड़कर मसखरी पर उतर आया और हंस कर बोला, ‘कहां है महंगाई? आजादी से पहले हम चबैना चबाते थे, आज महंगे स्मार्टफोन पर दिन में दस बार यूपीआई का इस्तेमाल करते हैं। मेरे खुद के बच्चे ऑक्सफोर्ड में पढ़ रहे हैं। पिछले चुनाव में पचास करोड़ की संपत्ति डिक्लेयर की थी। महंगाई होती तो क्या इतना जुटा पाता। और गरीब का जहां तक प्रश्न है, वह तो प्रेमचंद के जमाने से गरीब चला आ रहा है। उसे हाथ रोक कर खर्च करना चाहिए। रोटी कम और चावल ज्यादा खाएगा तो महंगाई बढ़ी हुई ही लगेगी। रही महंगी दाल की बात? उसे इतनी गाढ़ी दाल खाने की क्या जरूरत है। सरकारी मैस में जैसी पानी वाली दाल बनती है, वह खाएगा तो महंगाई आप ही कम लगने लगेगी, हाजमा दुरुस्त रहेगा सो अलग। महंगाई पर इतनी किच-किच और हाय-तौबा ठीक नहीं है। यह तो घटती-बढ़ती रहती है, रोज-रोज इस पर क्या दिमाग लगाना।’

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