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पेंशन की भांति किसान को सुनिश्चित कीमत क्यों नहीं

08:14 AM Aug 30, 2024 IST
पेंशन की भांति किसान को सुनिश्चित कीमत क्यों नहीं
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देविंदर शर्मा

इसे ‘पेंशन सुधार’ बताया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि एकीकृत पेंशन योजना (यूपीएस) सरकारी कर्मचारियों के लिए सम्मान और वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करती है। उन्होंने कहा ‘हमें उन सभी सरकारी कर्मचारियों की कड़ी मेहनत पर गर्व है जो राष्ट्रीय प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।’ वास्तव में, यूपीएस, जो प्राप्त अंतिम वेतन के 50 प्रतिशत के बराबर पेंशन का आश्वासन देता है - स्वीकारोक्ति है कि पहले वाली और बाजार नीत महंगाई से जुड़ी न्यू पेंशन स्कीम (एनपीएस) सरकारी कर्मचारियों के लिए कारगर नहीं रही। सरकारी कर्मचारियों के लिए ‘परिभाषित लाभ’ सुनिश्चित करने के लिए, केंद्रीय मंत्रिमंडल ने पेंशन योजना में बदलाव किया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सेवानिवृत्त कर्मचारियों को बाजार नीत अत्याचार (महंगाई) का सामना न करना पड़े।
हालांकि, प्रधानमंत्री ने कई मौकों पर देश के किसानों की सराहना की है और अकसर कृषक समुदाय द्वारा प्रदर्शित लचीलेपन की प्रशंसा की है, लेकिन लंबे वक्त से चली आ रही गारंटीशुदा कीमत की मांग पर विचार करने में कोई भी इच्छुक नहीं है। अगर सेवानिवृत्त कर्मचारियों के लिए बाजार नीत महंगाई से निपटना मुश्किल हो रहा है, तो स्पष्ट कर दें कि बाजार नीत महंगाई किसान के लिए भी उतनी ही बड़ी समस्या है। अगर कर्मचारियों को एक सुनिश्चित पेंशन की जरूरत पड़ती है, तो किसान को भी सुनिश्चित कीमत की जरूरत है। दुनिया में कहीं भी बाजार ने किसानों के लिए उच्च आय सुनिश्चित नहीं की है। प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में, या तो सब्सिडी देकर आय में घाटे की भरपाई की जाती है (चीन कृषि सब्सिडी प्रदान करने में शीर्ष पर उभरा है) या फिर कृषि को अपनी सुविधानुसार बाजार की ताकतों के रहमो-करम पर छोड़ दिया जाता है, मसलन, भारत में।
जैसा कि कुछ अध्ययनों से पता चला है, निष्कर्ष केवल यह है कि भारतीय किसान आय पिरामिड के निचले स्तर पर है, बल्कि पिछले लगभग 25 वर्षों से वे हर साल घाटा उठा रहे हैं। किसानों को कभी खत्म न होने वाली गरीबी से बाहर निकालने का एकमात्र कारगर ढंग है कृषि कीमतों की गारंटी कानूनी रूप से बाध्यकारी तंत्र बनाकर सुनिश्चित करना। परंतु इसकी परवाह न करते हुए, एनडीए सरकार ने कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट में पेश एक शपथपत्र में कहा कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) गारंटी देने वाला कानून बाजार में ‘बिगाड़ ला देगा’। अजीब बात यह है कि जब किसानों की बात आती है, तो नीति निर्माता ‘बाजार में बिगाड़’ का वास्ता देकर और सुनिश्चित कृषि कीमतों से महंगाई पर आगे असर का हौवा खड़ा कर देते हैं। कर्मचारियों के मामले में सुनिश्चित पेंशन से किसी को कोई दिक्कत नहीं है, उनके मामले में, ‘बाजार में बिगाड़’ का डर अचानक गायब हो जाता है।
जब मुख्यधारा के अर्थशास्त्री मानते हैं कि कानूनन एमएसपी से उपभोक्ता कीमतें बढ़ेंगी और इस तरह ‘बाजार में बिगाड़’ होगा, तो वास्तव में, यह कॉर्पोरेट मुनाफे को कम करता है और इसीलिए हो-हल्ला मचता है। अजीब बात यह है कि मुक्त बाजार के हामी इन अर्थशास्त्रियों की यही नस्ल तब चुप रहती है जब अमेरिका में कॉर्पोरेट अपने उत्पाद की ‘मूल्य वृद्धि’ करते हैं - उपभोक्ताओं को नोच खाने के लिए कीमतों में बेजा बढ़ोतरी करते हैं। वास्तव में यह मूल्य विकृति है। अमेरिका में पहले से ही, कैलिफोर्निया, फ्लोरिडा और न्यूयॉर्क सहित 38 राज्यों ने ऐसे कानून बनाए हैं जो इस चलन को प्रतिबंधित करते हैं। उदाहरणार्थ, न्यूयॉर्क राज्य ने उन कंपनियों के खिलाफ़ कदम उठाया जिन्होंने महामारी के दौरान हैंड सैनिटाइज़र की कीमतों में 400 प्रतिशत की वृद्धि की थी। और फिर भी, कई बाजार अर्थशास्त्री साफ नज़र आने वाली ऐसी बाजार विकृतियों पर अंकुश लगाने के उपायों को सोवियत शैली के मूल्य नियंत्रण की ओर वापसी करार देते हैं। बाजार के पक्ष में यह पूर्वाग्रह तब पैदा होता है जब किसानों को आर्थिक सुरक्षा प्रदान की बारी आए, लेकिन तब नहीं जब कॉर्पोरेट ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए कीमतें बढ़ाते हैं। ‘बाजार विकृति’ पर यह दोगलापन किसानों को जीवनयापन की आय प्रदान करने की राह में अड़चन है। नि:संदेह, किसानों को देय सुनिश्चित कीमत के अनुसार बाज़ार अपने आप समायोजित हो जाएंगे। यह केवल खास किस्म की विचारधारा ही है, जो अड़ंगा लगा रही है।
अमेरिकी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने कॉर्पोरेट द्वारा अनाप-शनाप मूल्यवृद्धि पर प्रतिबंध लगाने का आह्वान किया है, जो कोविड महामारी के बाद खाद्य और किराना वस्तुओं की कीमतों में आई 53 प्रतिशत वृद्धि के लिए अकेले जिम्मेदार है। रिपब्लिकनों ने उनके इस रुख को ‘कम्युनिस्ट’ ठहराया है। दक्षिणपंथी चाहे जो भी कहें, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है, जैसा कि कुछ अर्थशास्त्री भी स्वीकारते हैं कि बेजा मूल्यवृद्धि पर अंकुश अच्छी अर्थव्यवस्था के साथ-साथ अच्छी राजनीति भी है। हैरिस ने उन कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई का वादा किया है जो खाद्य कीमतों को कृत्रिम रूप से ऊंचा रख रही हैं।
वापस कर्मचारियों की पेंशन पर लौटते हुए, यह देखना दिलचस्प है कि व्यय विभाग इस निर्णय को सही ठहराने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहा है, इसे ‘राजकोषीय रूप से विवेकपूर्ण’ करार देते हुए दावा किया जा रहा है कि ‘यह नागरिकों की भावी पीढ़ियों को वित्तीय कठिनाई से बचाएगा’। निश्चित रूप से, कर्मचारियों के लिए सुनिश्चित पेंशन के खिलाफ कोई नहीं है। लेकिन यदि कर्मचारियों को सामाजिक सुरक्षा का आश्वासन दिया जा सकता है, तो कोई वजह नहीं है कि किसानों के लिए आर्थिक सुरक्षा का भरोसा न दिया जा सके। वे राष्ट्रीय प्रगति में भी महत्वपूर्ण योगदान देते हैं और उनकी अथक मेहनत की बदौलत ही देश में खाद्य सुरक्षा बनी हुई है।
मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले के किसान कमलेश पाटीदार ने जब 10 एकड़ में खड़ी अपनी सोयाबीन की फसल को खुद ही रौंद दिया, तो उन्हें यह अहसास नहीं था कि इससे एक ‘चेन रिएक्शन’ शुरू हो जाएगा। घटना का वीडियो वायरल होने के कुछ ही दिनों बाद, कई अन्य दुखी किसानों द्वारा फसल उखाड़ने की खबरें आने लगीं। सोयाबीन की कीमतों में गिरावट- और वह भी कटाई के मौसम से डेढ़ महीने पहले- अर्थशास्त्रियों की एक और धारणा को नकारती है जो यह कहती है कि किसानों को कटाई तब तक रोक कर रखनी चाहिए जब तक कि उन्हें मंडी में फसल का भाव चढ़ा हुआ नज़र न आने लगे। लेकिन यह जुगत भी कारगर न रही।
सोयाबीन की मौजूदा कीमतें 12 साल पहले के स्तर पर आ गई हैं, लेकिन कृषि पर निर्भर आजीविका के विनाश ने लाखों सोयाबीन किसानों को गुस्से से भर दिया है। कीमतें, जो एमएसपी से बहुत कम हैं, उत्पादन लागत तक निकालने के लिए भी पर्याप्त नहीं हैं। हैरानी की बात है कि हमारे पास किसानों के लिए एक सुनिश्चित मूल्य नीति कब होगी जो न केवल किसानों की भावी बल्कि वर्तमान पीढ़ी के लिए भी वित्तीय कठिनाइयों को रोकेगी। इसके तुरंत बाद, टमाटर की कीमतों में 60 प्रतिशत की गिरावट के साथ 25 किलोग्राम वाले क्रेट का भाव 300 रुपये के निचले स्तर पर आने की खबरें आईं। और फिर बासमती की कीमतों में 28 प्रतिशत की गिरावट के साथ 2,500 रुपये प्रति क्विंटल आने की खबरें भी आईं। यह केवल इसी साल होने वाली कोई अनोखी बात नहीं है, बल्कि यह चलन एक दर्दनाक सालाना प्रवृत्ति बन चुका है, जिसको लेकर देश में चिंता नहीं है। किसान चाहे वह हो जिसके पास विपणन योग्य अतिरिक्त उत्पाद है या फिर हाशिए पर आता कृषक, जिसको प्रत्यक्ष आर्थिक मदद दी जाती है, उन्हें कानूनन गारंटीकृत एमएसपी प्रदान करना, वह बड़ा सुधार है जिसका इंतजार कृषि को शिद्दत से है।

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लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।

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