फैसले से पूर्व ही पुरुष की खलनायक की छवि क्यों
हाल ही में रोहिणी स्थित अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश जगमोहन सिंह की अदालत ने सामूहिक दुष्कर्म की झूठी कहानी गढ़ने वाली महिला के विरुद्ध सीआरपीसी की धारा 344 के तहत आपराधिक मुकदमा चलाने के आदेश देते हुए टिप्पणी की, ‘यह बेहद चिंताजनक स्थिति है कि महिलाएं दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध में लोगों को फंसाने के लिए कानून का दुरुपयोग करती हैं। ऐसे मामलों में झूठा मुकदमा दर्ज करने वाली महिलाओं के साथ सख्ती से निपटा जाना जरूरी है। समाज में फैलते इस तरह के दीमक को समाप्त करने के लिए दुष्कर्म का झूठा आरोप लगाने वाली महिलाओं के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई अनिवार्य है।’
ऐसा नहीं है कि झूठे दुष्कर्म के आरोप पर पहली बार न्यायालय ने ऐसी तल्ख टिप्पणी की हो। इससे पूर्व भी देशभर की अनेक अदालतों ने दुष्कर्म जैसे गंभीर मामले को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की बढ़ती प्रवृत्ति पर अपनी चिंता जाहिर की है। दुष्कर्म एक सामान्य शारीरिक हमला नहीं है। यह अक्सर पीड़िता के पूरे व्यक्तित्व को छलनी कर देता है और उसकी आत्मा को अपमानित करता है। सामाजिक तथा न्यायिक व्यवस्था यह मानकर चलती है कि दुष्कर्म शारीरिक आघात से कहीं ज्यादा मानसिक पीड़ा देकर जाता है। इसलिए कोई भी महिला इसके मिथ्या आरोप नहीं लगा सकती। परंतु बीते दशकों में देशभर की अदालतों में दुष्कर्म के झूठे आरोप के संबंध में जो कुछ भी निर्णय दिए गए हैं वह स्पष्ट रूप से बताते हैं कि संवेदनशीलता समाज से लुप्त हो रही है। अब यक्ष प्रश्न यह है कि आखिर महिलाएं ऐसा कर क्यों रही हैं? इस प्रश्न के उत्तर के लिए अगस्त, 2021 के ‘विमलेश अग्निहोत्री तथा अन्य बनाम राज्य’ के मामले में न्यायालय की टिप्पणी को देखा जा सकता है। ‘इस तरह की मुकदमे बेईमानवादियों द्वारा किए जाते हैं। इस उम्मीद से कि दूसरा पक्ष डर या लज्जा के कारण उसकी मांगों को मान लेगा।’ यह स्पष्ट है कि दुष्कर्म के झूठे मामलों की मूल जड़ ईर्ष्या, लालसा और बदला लेने का भाव है।
अमूमन यह माना जाता है कि महिलाएं द्वेष-भाव से कोई कार्य नहीं करतीं विशेषकर वह कार्य जिससे उनके परिवार की छवि धूमिल हो अथवा उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा का हनन हो। इस सोच के पीछे सदियों से स्थापित वह विचारधारा है जो यह मानती है कि महिलाएं दयालु, सहृदय तथा सहनशील होती हैं और पुरुष निष्ठुर तथा असंवेदनशील। लेकिन आज तक कोई भी वैज्ञानिक शोध इस सिद्धांत को प्रस्थापित नहीं कर पाया है कि स्त्री और पुरुष के मध्य जैविक विभेद स्वभावगत विभेद का आधार है। यह पूर्वाग्रह, कि ‘महिलाएं झूठ नहीं बोलती’ विशेषकर यौन उत्पीड़न के संबंध, पुरुषों के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती बनकर उभरा है। इसमें किंचित भी संदेह नहीं कि यौन उत्पीड़न की घटना के लिए किसी साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है और इसीलिए इसमें पीड़िता की बात को पुलिस, प्रशासन तथा न्यायालय द्वारा स्वीकार किया जाता है परंतु क्या महिलाएं सदैव सत्य ही बोलती हैं? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसकी जटिलता को सुलझाने का देश की विभिन्न अदालतों ने समय-समय पर प्रयास किया है।
जनवरी, 2006 में ‘सदाशिव रामराव हदबे बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य’ में उच्च न्यायालय ने कहा था- ‘यह सत्य है कि दुष्कर्म के मामले में अभियुक्त को अभियोजक की एकमात्र गवाही पर दोषी ठहराया जा सकता है, अगर वह न्यायालय के मन में यह विश्वास उत्पन्न करने में सक्षम हो। यदि अभियोक्त्री द्वारा दिया गया बयान किसी भी चिकित्सा साक्ष्य से मेल नहीं खाता या आसपास की परिस्थितियां असम्भाव्य हैं... अदालत अभियोजक के अकेले साक्ष्य पर कार्यवाही नहीं करेगी।’
इसमें संदेह नहीं कि न्याय विधान लिंग भेद पर आधारित नहीं है परंतु यौन अपराधों जैसे गंभीर विषय पर सामाजिक व्यवस्था बेहद ही कठोर रुख अपनाते हुए अभियोक्त्री के कहने मात्र से पुरुष को अपराधी स्वीकार कर लेती है और उसे सामाजिक तथा मानसिक पीड़ा झेलने के लिए विवश करती है। महिलाओं को ‘पीड़िता’ तथा पुरुषों को ‘शोषक’ मानने के पूर्वाग्रह ने न्याय-पथ को कंटीला कर दिया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मिथ्या आरोप की पीड़ा भी पुरुषों को उतनी की अपमानित करती है जितना कि स्त्री को।
अक्तूबर, 2023 को देश की शीर्ष अदालत की बीआर गवई एवं जेबी पारदीवाला की पीठ ने कहा था- ‘इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि दुष्कर्म से पीड़िता को सबसे अधिक परेशानी और अपमान होता है लेकिन साथ ही दुष्कर्म का झूठा आरोप, आरोपी को उतनी ही परेशानी, अपमान और क्षति पहुंचाने का कारण बन सकता है।’ न्याय के दरवाजे तक पहुंचने से पूर्व ही पुरुष को अपराधी मान लेने की मानसिकता और तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति ने एक ऐसे समाज का निर्माण कर दिया है जहां भय और शंका का पलड़ा पुरुषों की ओर है। निर्दोष होने के बावजूद जेल जाना और असहनीय पीड़ा को बर्दाश्त करना कमोबेश पुरुषों के हिस्से आ रहा है। इसके नतीजे घातक सिद्ध हो रहे हैं। स्कॉट, लेस्ली का शोध ‘इट नेवर, एवर एंड्स; द साइकोलॉजिकल इम्पैक्ट ऑफ़ रोंगफुली कन्विक्शन’ बताता है कि गलत आरोप का प्रभाव अक्सर जटिल और लंबे समय तक चलने वाला होता है।
शोध यह भी स्पष्ट करता है कि गलत तरीके से आरोपी बनाए गए लोगों पर मनोवैज्ञानिक और शारीरिक आघात तो होता ही है लेकिन साथ ही न्याय प्रणाली के प्रति उनका नकारात्मक दृष्टिकोण विकसित होता है। दोषमुक्ति के बाद जीवन में समायोजन करना उनके लिए दुष्कर कार्य हो जाता है। वहीं ‘द इंपैक्ट ऑफ़ बीइंग रोंगली एक्यूज्ड ऑफ एब्यूज इन ऑक्यूपेशन ऑफ़ ट्रस्ट विक्टिम वॉइस’ कैरोलिन हॉयल और रोस बर्नेट का शोध जो कि झूठे आरोपों के पीड़ितों के साक्षात्कारों के निष्कर्ष का दस्तावेजीकरण है, इस तथ्य को उजागर करता है कि झूठे आरोप सामाजिक और मानसिक आघात के साथ-साथ जीवन की तमाम उपलब्धियों और भविष्य की संभावनाओं को खत्म कर देते हैं। क्या पुरुष होने की नियति यही है कि कट्टर नारीवाद की लहर में उन्हें खलनायक सिद्ध करने की पुरजोर कोशिश की जाए? सामाजिक उथल-पुथल का प्रभाव सत्य और असत्य से कहीं ऊपर लाभ-हानि की बात करता है। ‘अहम्’ की संतुष्टि समस्त सामाजिक मानकों एवं मानवीय मूल्यों को ध्वस्त करती प्रतीत हो रही है और यह समाज के लिए किसी भी स्थिति में हितकारी नहीं है।
न्याय विधान के समक्ष भी यह सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है कि निर्दोष व्यक्ति सलाखों के पीछे नहीं जाए। अक्तूबर, 2023 को ‘मानक चंद मनि बनाम हरियाणा राज्य के मामले में देश की शीर्ष अदालत ने कहा था कि ‘प्रत्येक साक्ष्य की निष्पक्षता की खुले दिमाग से जांच की जानी चाहिए क्योंकि किसी आरोपी को दोषी सिद्ध होने तक निर्दोष माना जाता है। आपराधिक न्यायशास्त्र की हमारी प्रतिकूल प्रणाली में मार्गदर्शक सिद्धांत हमेशा माइल स्टोन होगा, जो मानता है कि एक निर्दोष को दंडित करने की तुलना में दस दोषी व्यक्तियों का बच जाना बेहतर है।’ इस वक्तव्य और सोच के विपरीत हमारी सामाजिक व्यवस्था पुरुषों की खलनायक छवि को गढ़ने में इस सत्य को भूल चुकी है। यह प्रवृत्ति समाज को विध्वंस के मुहाने पर लाकर खड़ा कर देगी।
लेखिका समाजशास्त्री एवं स्तंभकार हैं।