शहर की हर मूर्ति परेशान सी क्यों है
विनय कुमार पाठक
इधर महान विभूतियों की मूर्तियों के व्यवहार में कुछ परिवर्तन-सा आ गया है। समझ में नहीं आता है कि इनके सीने में जलन आंखों में तूफान-सा क्यों है। हर शहर का हर बुत परेशान-सा क्यों है। आंधी आते ही हर प्रतिमा के चेहरे पर शिकन के भाव आ जाते हैं। यह भाव सिर्फ प्रतिमा के चेहरे पर ही नहीं, प्रतिमा बनाने के लिए अनुशंसा करने वाले, प्रतिमा के लिए बजट पास करने वाले, प्रतिमा बनाने वाली कंपनी के अधिकारियों के चेहरे पर भी आ जाता है। और तो और प्रतिमा का उद्घाटन करने वाला नेता भी आंधी आते ही पवनदेव से प्रार्थना करने लगता है कि हे पवनदेव लाज बचाना। यह हाल तो आंधी से है, अंजामे मुहब्बत क्या होगा यदि भूकंप आ जाए?
इन्हें चिंता इस बात की है कि अब तक तो हवा के झोंके से बिहार के पुल ही भरभरा कर गिरते थे, अब यह बीमारी संक्रामक तो नहीं हो गई कि मूर्तियां भी गिरने लगी हैं। पुल के धड़ाम पर तो किसी को किसी से माफी मांगनी नहीं पड़ती क्योंकि पुल का क्या है? इस पर तो वह सिद्धान्त लागू होता है कि जो बनता है वही बिगड़ता है। पर प्रतिमा के धड़ाम होने पर मामला संवेदनशील हो जाता है। और परिणाम इस बात पर भी निर्भर करता है कि प्रतिमा किसकी है और किस क्षेत्र में है। एक ही व्यक्ति की प्रतिमा यदि किसी अन्य क्षेत्र में गिर जाए या गिरा दी जाए तो किसी की सेहत पर फर्क नहीं पड़ता है। यदि उस क्षेत्र के मतदाताओं की भावना आहत न हो। परंतु यदि किसी व्यक्ति की प्रतिमा उस क्षेत्र में गिरे जिस क्षेत्र के मतदाताओं की भावना आहत हुई हो तो फिर मामला गड़बड़ है। फिर तो माफी मांगनी पड़ती है।
मगर माफी मांग लेने मात्र से काम बनता नहीं। माफी को स्थानीय जनता ने स्वीकार किया है या नहीं, यह महत्वपूर्ण हो जाता है। जनता से अधिक विपक्षी नेताओं पर उस माफी का क्या प्रभाव पड़ा है, यह महत्वपूर्ण हो जाता है। क्या उसे माफी मांगते समय माफी मांगने वाले के बॉडी लैंग्वेज़ से आपत्ति है। क्या वह इस बात से संतुष्ट है कि माफी जिस बात के लिए मांगी जा रही है, वह सही है। जनता को यह बताना आवश्यक हो जाता है कि माफी सिर्फ मूर्ति गिरने के लिए मांगी गई है या फिर इसमें मूर्ति के बनाने और उसे स्थापित करने में भ्रष्टाचार भी शामिल है या नहीं आदि-आदि।