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साफ पानी क्यों नहीं बनता चुनावी मुद्दा

08:01 AM Mar 06, 2024 IST

विश्वनाथ सचदेव
कई साल पुरानी बात है। विदेश यात्रा के दौरान न्यूयार्क के एक बड़े होटल में जब मैं अपने कमरे में गया तो देखा पीने का पानी नहीं था। मैंने संबंधित कर्मचारी से फोन पर बात की। उसने बताया कि पानी की बोतल तो वह भेज देंगे पर वहां बाथरूम का पानी ही पीने के लिए काम आता है। सब वही पानी पीते हैं। पूरी तरह सुरक्षित है वह पानी पीने के लिए। जब उसने यह बात कही तो उसकी आवाज में एक गर्व की अनुभूति खनक रही थी।
आज यह घटना मुझे तब अचानक याद आ गई जब मैं सुबह का अखबार पढ़ रहा था। अखबार के भीतरी पन्नों में एक खबर थी देश में पीने के पानी के बारे में। इस खबर के अनुसार देश के 485 नगरों में से सिर्फ 46 में ही पीने का शुद्ध पानी है। इस आंकड़े के लिए किसी एजेंसी की हवाला दिया गया था। पता, यह कितना सही है पर यह बात तो हम सब जानते हैं कि हमारे देश में धनी तबका घरों में पीने के पानी के लिए मशीनों का उपयोग करता है। आए दिन टीवी पर इस आशय का विज्ञापन देखा जा सकता है कि पीने के शुद्ध पानी के लिए फलां ‘वॉटर प्यूरीफायर’ का इस्तेमाल करें। बहुत से लोग यह बात बताने वाले सिनेमा के बड़े कलाकार से प्रभावित होकर ‘पानी को पीने योग्य’ बनाने वाली मशीन खरीद लाते हैं।
सच कहें तो शहरी इलाकों में, घरों में ऐसी मशीन का होना एक अनिवार्य आवश्यकता बन गई है। जो इसे नहीं खरीद पाते वे दूषित पानी का शिकार हो जाते हैं। एक अनुमान के अनुसार हमारे देश में प्रतिवर्ष 5 वर्ष से कम आयु के तीन लाख से अधिक बच्चे डायरिया से मरते हैं और यह डायरिया दूषित पानी पीने से ही होता है।
अखबार में दूषित पानी वाला यह समाचार पढ़कर मैं चौंका नहीं था। आए दिन इस आशय के समाचार देखने को मिल जाते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि पीने के पानी को लेकर जागरूकता बढ़ी है। हर घर में ‘नल से जल’ जैसी योजनाओं का असर भी कुछ देखने को मिल रहा है पर नल के इस पानी की शुद्धता को लेकर आए दिन सवाल उठते रहते हैं। मेरी जिज्ञासा और चिंता तो यह है कि हमारे देश में हम कब गर्व से कह सकेंगे कि गुसलखाने के नल का पानी ही पीने के काम में भी आता है।
आज यह सवाल इसलिए भी अधिक मुखर होकर सामने आ रहा है कि शुद्ध पानी जैसा मुद्दा हमारे राजनेताओं को चुनावी मुद्दा क्यों नहीं लगता। हर घर में नल जैसी बात होती है पर उस शिद्दत के साथ नहीं जिसके साथ होनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि शुद्ध पानी का मुद्दा कभी उठा नहीं। उठता रहता है अक्सर, पर फिर उतनी ही तेजी से भुला दिया जाता है। अब जो चुनाव सामने आ रहे हैं उनमें हमारे नेताओं के मुंह से कितनी बार शुद्ध पानी का उच्चारण हुआ है?
10 साल पहले गंगा नदी के पानी को शुद्ध बनाने वाला ‘नमामि गंगे प्रोजेक्ट’ चुनावी चर्चा का मुद्दा बना था, पर इस आधी-अधूरी रह गई परियोजना की बात आज कोई नहीं कर रहा। कोई नहीं पूछ रहा कि करोड़ों की आस्था का प्रतीक बनी ‘मां गंगा’ का पानी अब तक शुद्ध क्यों नहीं हो पाया अथवा हमारे राजनेताओं ने इस महत्वपूर्ण परियोजना को चुनावी मुद्दा क्यों नहीं बनाया?
देश में आम चुनाव का माहौल लगातार गर्मा रहा है। छोटे से छोटे कार्यकर्ता से लेकर प्रधानमंत्री तक नए-नए चुनावी नारे गढ़ने में लगे हैं। दुर्भाग्य से न तो सत्तारूढ़ दल शुद्ध पानी जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे की बात कर रहा है और न ही विपक्ष को पीने का पानी चुनावी फसल काटने का माध्यम नजर आ रहा है। विभिन्न क्षेत्रों में विकास के बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं, मतदाता को लंबे-चौड़े आंकड़ों से भरमाने की कोशिश हो रही है। यह दावे कितने सही हैं, इसकी चिंता कोई नहीं करता।
मजे की बात तो यह है कि अक्सर हमारे नेता यह भूल जाते हैं कि पिछली चुनावी सभा में उन्होंने विकास के क्या आंकड़े जनता को बताए थे। मान लिया गया है कि जनता की याददाश्त बहुत कमजोर होती है। जनता भी इस बात की अधिक चिंता करती नजर नहीं आती कि हमारे नेता किस तरह उसे ठगने की कोशिश में लगे रहते हैं। यह हमारी चिंता का विषय बनाना चाहिए। चुनावी सभा में हमारे नेता बड़े-बड़े दावे करते हैं, तीसरी या पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने व बनाने के दावे किए जाएं। ‘पांच ट्रिलियन’ की बात तो की जाती है पर यह कोई नहीं बताता कि इसका मतलब क्या है? इस अर्थव्यवस्था से क्या और कैसे परिवर्तन जनता के जीवन में आएगा, न कोई जानता है न कोई बताता है। विपक्ष गरीबी, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई की बात अवश्य कर रहा है पर सत्तापक्ष के चुनावी गणित में इन समस्याओं के लिए कोई जगह नहीं है।
राजनेता बड़ी आसानी से ऐसे मुद्दों की अनदेखी करके आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन आज जरूरत है हमारे नेताओं से यह पूछने की कि जीवन के जरूरी मुद्दे चुनाव के लिए जरूरी क्यों नहीं माने जाते? पीने के शुद्ध पानी का मुद्दा क्यों नहीं चुनावी मुद्दा बनता? दशकों तक सत्ता में रहने वाले नेताओं से हम क्यों नहीं पूछते कि नल से जनता को शुद्ध पानी क्यों नहीं मिलता या मिल सकता?
ऐसा ही एक मुद्दा शिक्षा का भी है। स्वतंत्र भारत में साक्षरता की प्रगति से कोई इनकार नहीं कर सकता, पर यह तो पूछा जा सकता है कि हम देश की भावी पीढ़ी को कैसी शिक्षा दे रहे हैं। शिक्षा के क्षेत्र में लगातार सक्रिय स्वयंसेवी संस्था ‘असर’ साल-दर-साल हमारी शिक्षा के घटिया स्तर को उजागर कर रही है। आश्चर्य की बात है कि सातवीं-आठवीं तक की पढ़ाई करने के बाद भी हमारे विद्यार्थी जोड़-बाकी-गुणा-भाग के सरल सवाल हल नहीं कर पाते। पांचवीं में पढ़ने वाला बच्चा तीसरी की किताब सहजता से नहीं पढ़ पाता। शिक्षा की यह स्थिति चुनाव का मुद्दा क्यों नहीं बनती, या क्यों नहीं बननी चाहिए?
आईआईएम और आईआईटी जैसे बड़े शिक्षा संस्थानों के बारे में झूठे-सच्चे आंकड़े तो हमारे नेता सहजता से अपने भाषणों में परोस देते हैं पर प्राथमिक शिक्षा की दुर्दशा की बात कोई नहीं करता। चुनावी बुखार शुरू हो चुका है। नये-नये नारे गढ़े जा रहे हैं। उल्टा-सीधा कुछ भी बोला जा रहा है। ऐसी गारंटी दी जा रही हैं जिनका कोई मतलब नहीं होता।
अनर्गल आरोप की राजनीति का यह जो दौर चल रहा है उसमें मतदाता के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह नेतृत्व का दावा करने वालों से यह पूछे कि उसके नल में शुद्ध पानी कब आएगा? उसकी प्राथमिकशाला में योग्य अध्यापक कब नियुक्त होगा? उसके बच्चे का रोजगार कैसे सुरक्षित होगा? महंगाई से कब निजात मिलेगी उसे? यह और ऐसे सवाल हमारी चिंता का विषय कब बनेंगे?
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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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