सफ़ेद रंग, स्याह रंग
कुलबीर बड़ेसरों
मिसेज मैना चौधरी हमारे ग्रुप की मुखिया थी। उम्र में हम सबसे बड़ी और ओहदे में भी। गोरी-चिट्टी, मोटी, दरमियाना कद, बड़ा-सा चेहरा, तीखी और लंबी नाक पूरे चेहरे पर सबसे अधिक उभरती थी। छोटी-छोटी आंखें, पतले-बारीक से होंठ अंदर की ओर मुड़े हुए। और ज़रूरत से अधिक लंबी ठोड़ी। नाक की सीध में निकाली गई सीधी मांग और कस कर कंघी किए बालों का जूड़ा, माथे पर हमेशा लाल रंग की बिंदी और होंठों पर हल्के रंग की लिपस्टिक जो अंदर की तरफ धंसे होंठों के कारण मुश्किल से दिखाई देती। कभी-कभी मिसेज मैना सूट पहनती थी, पर आमतौर पर साड़ी ही पहना करती और हमेशा टखनों तक ऊंची साड़ी में वह टांगों को चौड़ा करके चलती हुई और भी अधिक बूढ़ी लगती थी। यूं उसकी आयु इतनी नहीं थी। यही कोई चवालीस-पैंतालीस के आसपास होगी। परंतु वह अपनी चाल, पहनावे और मुंह बिचका-बिचका कर बातें करने के अंदाज़ के कारण अपनी उम्र से दस साल बड़ी लगती थी।
कभी-कभी मेरा मन करता मैं मिसेज मैना को उसके सारे दोष बताकर उसकी पर्सनैलिटी को सुधारने में मदद करूं, पर मेरी हिम्मत न पड़ती क्योंकि उसका दबदबा ही कुछ ऐसा था हम पर। हमारा पांच-छह लड़कियों का ग्रुप था। हम एक ही विभाग में कार्य करते थे। हम एक ही दफ्तर में काम करती थीं। लंच ब्रेक में हम इकट्ठी ही बैठतीं। अपने अपने घरों की, कुलीग्ज़ की, बॉस की बातें करतीं। मगर सबसे अधिक बातें करती थी मिसेज मैना। वह बोलती तो सब चुप हो जातीं, क्योंकि पद में बड़ी होने के कारण उसकी सभी लड़कियां इज्ज़त करती थीं। कोई अपने पति के बारे में बात करने लगती तो मिसेज मैना झट टोक देती।
‘हमारे चौधरी साहब तो ऐसे नहीं है, बहुत इंटेलिजेंट हैं, मैं तो उनसे बहुत डरती हूं।’
मिसेज मैना का हमेशा एक ही राग होता जो वह हमेशा अलापती रहती कि उसके पति बड़े बुद्धिजीवी हैं, बहुत गंभीर हैं और वह उनसे डरती हैं, उनकी बहुत इज्ज़त करती हैं। फिर क्या हुआ, यदि वह खुद गजेटिड आफिसर है। आखि़र है तो वह एक औरत ही और औरत सबसे पहले पत्नी है, फिर मां है, फिर कहीं जाकर वह अफसर होगी। वह भी घर में नहीं, सिर्फ़ बाहर।
हम लड़कियां मिसेज मैना की बातों से बहुत प्रभावित हुईं।
‘मैंने तो अपने घर में बहुत एडजस्टमेंट किया हुआ है। 19 बरस सास और जेठ-जेठानी, देवर-देवरानी के बीच काटे हैं। कोई औरत मेरी जगह होती तो कभी इतने बरस न काट पाती। अलग हो जाती। मैंने तो सदा सास की बात मानी है। गलत हो या ठीक, मैंने विरोध नहीं किया।’
मिसेज मैना मुंह बिचका-बिचका कर, आंखों की पुतलियों को फैलाकर और कभी कभी साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए बोले जाती।
‘मेरा बेटा, मेरे पति कभी एक चम्मच खाना भी प्लेट में छोड़ दें तो मेरे गले में खाना नहीं उतरता। चौधरी साहब की सेहत का मुझे हर वक्त ख़याल रहता है।’ वह बताती। कितनी आदर्श पत्नी है, मैं सोचती। कितनी समर्पित है अपनी पति के लिए, बच्चों के लिए, घर के लिए। वैसे तो हर औरत समर्पित होती है, पर मिसेज मैना की तरह कौन करती होगी? कभी किसी दिन अगर नाश्ते में चौधरी साहब दही न खाते तो सारा दिन मिसेज मैना इसी बात को लेकर परेशान रहती। जो भी कोई उनकी टेबल पर फाइल या रजिस्टर साइन करवाने जाता, मिसेज मैना पहले साड़ी का पल्लू कंधे पर खींचती, थोड़ा-सा गद्दी वाली कुर्सी पर करवट बदलकर बैठती, फिर आह भरती, फिर होंठों को सिकोड़ कर पुतलियों को फैलाकर, भौंहें ऊपर उठाकर बात शुरू करती...
‘बड़ी गर्मी हो गई है।’
‘हां जी।’ साइन करवाने आया बंदा फाइल से नज़र हटाकर मैडम की ओर देखने लगता, थोड़ा-सा मुस्कराता और चेहरे पर शिष्टता लाकर मैडम की बात सुनने लगता। अब तक मैडम ने मौसम की बात शुरू कर के सवेरे उठने से लेकर नाश्ते में चौधरी साहब के दही न खाने वाला क़हर सुना दिया था। सुनने वाला इस प्रतीक्षा में मुस्करा कर बात सुने जाता कि कभी तो मैडम बात खत्म कर साइन करेगी ही और वह उठकर जा सकेगा।
बात दिल्ली की होती या लाहौर की, दक्खिन की होती या पश्चिम की, रूस की होती या अमेरिका की, वियतनाम, कोरिया, हिन्दुस्तान, पाकिस्तान, ईरान और इराक, इस्राइल या फलस्तीन, बॉस्निया या हरजेगोविना, चीन या देश के किसी कोने में हुए दंगों की, प्रधानमंत्री के विदेश दौरे की, पर हर बात आकर खत्म होती थी चौधरी साहब पर। दुनिया का हर मसला मिसेज मैना को छोटा और बेमानी लगता था। उसके लिए तो सबसे बड़ा मसला था कि आज चौधरी साहब को दो छींकें सवेरे-सवेरे आ गई थीं। परमात्मा सुख रखे, कहीं जुकाम न हो गया हो। आज मैं उनके लिए दम आलू नहीं, काले चनों की तरी बनाऊंगी, वह अच्छी होती है जुकाम के लिए।
कभी-कभी मिसेज मैना जब ज्यादा ही रौ में आ जाती तो हमें यह भी सुनाती कि कैसे वह चौधरी साहब के साथ रूठ गई थी और चौधरी साहब ने कैसे उसको मनाया था, बहुत प्यार के साथ। वह चटखारे लेकर सुनाती जाती और हम लड़कियां मुंह खोले यह दिलचस्प किस्सा सुनती रहती। हमें न दफ्तर की सुध होती, न दीन-दुनिया की। हमारे लिए सारी कायनात सिमट कर एक बुत बन जाती और वह बुत होता मिसेज मैना का।
लंच टाइम खत्म हो जाता, पर हम किसी जादू-टोने में कीलित बैठी रहतीं। मिसेज मैना की बातों की लड़ी टूटने में न आती। जब उस चुम्बकीय असर वाली महफ़िल से उठकर हम अपनी अपनी सीट पर जा बैठतीं तो भी मिसेज मैना का जादू हमारे सिरों पर ‘घूं-घूं’ कर मंडराता रहता। उसके दिए हुए उपदेश एक एक कर ज़हन में घूमते रहते।
‘औरत को घर में बहुत झुककर, बहुत सहनशीलता से चलना चाहिए, तभी तो सुख-शांति रहेगी घर में, और फिर दिखावा हो भी तो किसलिए? पति, बच्चे तो औरत की जान होते हैं, रूह होते हैं, फिर अपनी जान से, अपनी रूह से कैसा दिखावा? कैसी अकड़? कैसा अहंकार?’
कितना वजन था मिसेज मैना की बातों में। वाकई अपनी रूह के आगे कैसा दिखावा, कैसा आडंबर? मैं सोचती। पर चौधरी साहिब तो अच्छे होंगे इसलिए मिसेज मैना समर्पित है। पर यदि आदमी ढंग का न हो तो कैसा समर्पण? ...मैं शशोपंज में पड़ी रहती।
मिसेज मैना दिल की भी खुली औरत थी। हम लड़कियों को हमेशा अपने घर आने के लिए आमंत्रित करती रहती। हम कई बार उसके घर गईं भी। वह दौड़-दौड़कर काम करती चौधरी साहब के लिए, हमारे लिए। अपने जवान हो रहे बच्चों के लिए, सास के लिए चाय बनाती, पापड़ तलती। कभी-कभी हमें खाने पर भी बुलाती। हम जातीं तो वह कई प्रकार के पकवान बनाती। दूधवाला मीट, दम आलू, मेथी-चने की सब्ज़ी, घीया और दही की सब्ज़ी, पनीर और दूध की तरी वाली सब्ज़ी, चावल आदि और फिर खाने के बाद वह हमें काहवा पिलाती और साथ ही अपनी बनाई सब्जियों को बनाने की विधि बताने बैठ जाती।
‘अगली बार आओगी तो मैं कीमे के कबाब बनाकर खिलाऊंगी।’ वह कहती।
‘काम आना चाहिए। और घर का सब काम सीखना चाहिए, इससे पति खुश रहता है। पति को वश में करने के सब उपाय आने चाहिए।’
‘अरे, बड़ी बोर है तुम्हारी यह मिसेज मैना तो, हर वक्त उपदेश ही देती रहती है। अरे तू यहां क्या करती है, इस दफ्तर में? जाकर कहीं कोई ट्रेनिंग स्कूल खोल ले, जहां सिखाती रहना कि पति को कैसे वश में रखते हैं।’
हमारी एक नई आई कुलीग ने करीब दो दिन बाद ही मिसेज मैना की बातें सुनकर ये कमेंट दिए तो सब हैरान होकर उसकी ओर देखने लग गए, मानो उसने कोई विचित्र बात कह दी हो।
छुट्टी का दिन था, मैं कुछ आवश्यक चीज़ें लेने के लिए बाज़ार को निकली थी। वापस लौटने लगी तो एक-चौथाई दिन अभी शेष था। गर्मियों की शामें भी तो कितनी खुली-खुली होती हैं। एकदम मुझे मिसेज मैना का ख़याल आ गया। अगर मैं दो मोड़ दायें हाथ की ओर मुड़ती तो उसका घर आ जाता। एक ख़याल बिजली की तरह मेरे मन में कौंधा, क्यों न मैं अचानक जाकर मिसेज मैना को चौंका दूं। थोड़ी चमचागिरी भी हो जाएगी और टाइमपास भी। यह सोचकर मैं मिसेज मैना के घर की तरफ मुड़ गई।
‘क्या कर रही होगी?’ मैंने साेचा, ज़रूर किचन में तप रही होगी। बेचारी दिनभर दफ्तर में खपती है। फिर शाम को किचन में घुस जाती है। बच्चों की अलग फरमाइश, पति की अलग, सास की अलग, सास अधिकतर मिसेज मैना के पास ही रहती है। दूसरे शहरों में बस गए उसके जेठ-जेठानी और देवर-देवरानी की ओर वह कम ही जाती थी।
‘मेरे जितनी सेवा वो कहां कर लेंगी?’
मिसेज मैना इसका कारण यही बताती थी।
मैं डोर बेल दबाने ही वाली थी, पर देखा बाहरी दरवाज़ा तो भिड़ा हुआ था। शायद कोई बच्चा अभी बाहर निकल कर गया होगा। मैं अंदर गई तो दूसरे कमरे में से मिसेज मैना की तीखी और चिल्लाहट भरी आवाज़ कानों से टकराई। पंखे की हवा से बीच वाला परदा हिल रहा था, पर नज़र कुछ नहीं आ रहा था।
‘शर्म आनी चाहिए, मेरा नए गिलासों का सैट खराब कर दिया। ध्यान से नहीं धो सकते थे, तुम्हारा क्या बाप लाकर देगा मुझे ऐसे गिलास? ...उसने तो कभी देखा भी नहीं होगा ऐसा सैट...।’
शायद मिसेज मैना अपने नौकर को डांट रही थी। पर वह तो नौकर रखने के सख्त खिलाफ़ थी। अब शायद रख लिया हो, मैंने सोचा।
‘मेरी तो किस्मत फूटी थी जो तुम जैसे बेवकूफ से पाला पड़ा, जिसे न अक्ल है, न...’
जब परदा उठाकर मैंने अचानक अंदर झांका तो मिसेज मैना बुरी तरह बरस रही थी। छोटे कद का दुर्बल-सा मि. चौधरी अपराधियों की तरह खड़ा था और गुस्से से लाल-पीली हुई मिसेज मैना सोफे पर बैठी थी, हाथ में टूटा हुआ गिलास पकड़े।
अनुवाद : सुभाष नीरव