कब खुलेगा किसान की खुशहाली का रास्ता
केंद्र सरकार ने किसानों के हित में कुछ अनाजों पर एक बार फिर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) बढ़ा दिया है। सबसे ज्यादा 400 रुपये प्रति क्विंटल मसूर और सरसों पर बढ़ाया गया है। गेहूं पर 40, सूरजमुखी पर 114 और चने पर 130 रुपये बढ़ाये गए हैं। सरकार ने यह फैसला ऐसे समय पर लिया है, जब किसानों ने तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग बुलंद कर दी है। हरियाणा और पंजाब के किसानों को ये बढ़ी दरें रास नहीं आ रही हैं। हालांकि केंद्र सरकार ने अन्य राज्यों में एमएसपी के औजार से आंदोलन के विस्तार पर अंकुश जरूर लगा दिया है।
कोरोना संकट ने आर्थिक उदारीकरण अर्थात् पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की पोल खोल दी है और देश आर्थिक व भोजन के संकट से मुक्त है तो उसमें केवल खेती-किसानी का सबसे बड़ा योगदान है। भारत सरकार ने इस स्थिति को समझ लिया है कि बड़े उद्योगों से जुड़े व्यवसाय और व्यापार जबरदस्त मंदी के दौर से गुजर रहे हैं। वहीं किसान ने 2019-20 में रिकॉर्ड 29.19 करोड़ टन अनाज पैदा करके देश की ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था को तो तरल बनाए रखा है, साथ ही पूरी आबादी का पेट भरने का इंतजाम भी किया है। 2019-2020 में अनाज का उत्पादन आबादी की जरूरत से 7 करोड़ टन ज्यादा हुआ था। 2020-2021 में भी 350 मिलियन टन अनाज पैदा करके किसान ने देश की अर्थव्यवस्था में ठोस योगदान दिया है।
भारतीय अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में अमर्त्य सेन और अभिजीत बनर्जी सहित थॉमस पिकेटी दावा करते रहे हैं कि कोरोना से ठप हुए ग्रामीण भारत पर जबरदस्त अर्थ-संकट गहराएगा। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2017-18 के निष्कर्ष ने भी कहा था कि 2012 से 2018 के बीच एक ग्रामीण का खर्च 1430 रुपये से घटकर 1304 रुपये हो गया है। जबकि इसी समय में एक शहरी का खर्च 2630 रुपये से बढ़कर 3155 रुपये हुआ है। अर्थशास्त्र के सामान्य सिद्धांत में यही परिभाषित है कि किसी भी प्राकृतिक आपदा में गरीब आदमी को ही सबसे ज्यादा संकट झेलना होता है। लेकिन इस कोरोना संकट में पहली बार देखने में आया है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के पैरोकार रहे बड़े और मध्यम उद्योगों में काम करने वाले कर्मचारी भी न केवल आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं, बल्कि उनके समक्ष रोजगार का संकट भी पैदा हुआ है। लेकिन बीते दो कोरोना कालों में खेती-किसानी से जुड़ी उपलब्धियों का मूल्यांकन करें तो पता चलता है कि देश को कोरोना संकट से केवल किसान और पशुपालकों ने ही उबारे रखने का काम किया है।
यही नहीं, जो प्रवासी मजदूर ग्रामों की ओर लौटे, उनके लिए मुफ्त भोजन की व्यवस्था का काम भी गांव-गांव किसानों व ग्रामीणों ने ही किया। इस दौरान यदि सरकारी महकमों चिकित्सा, पुलिस, बैंक और राजस्व को छोड़ दिया जाए तो 70 फीसदी सरकारी कर्मचारी न केवल घरों में बंद रहे, बल्कि मजदूरों के प्रति उनका सेवाभाव भी देखने में नहीं आया। यदि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री राहत कोषों का आकलन करें तो पाएंगे कि इनका आर्थिक योगदान ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर रहा है।
कोरोना ने अब हालात को पलट दिया है। इसलिए खेती-किसानी से जुड़े लोगों की गांव में रहते हुए ही आजीविका कैसे चले, इसके पुख्ता इंतजाम करने की जरूरत है। नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में न्यूनतम समर्थन मूल्य में भारी वृद्धि की थी। इसी क्रम में ‘प्रधानमंत्री अन्नदाता आय सरंक्षण नीति’ लाई गई थी। तब इस योजना को अमल में लाने के लिए अंतरिम बजट में 75,000 करोड़ रुपये का प्रावधान किया गया था। इसके दायरे में 14.5 करोड़ किसानों को लाभ मिल रहा है। नि:संदेह गांव और कृषि क्षेत्र से जुड़ी जिन योजनाओं की शृंखला को जमीन पर उतारने के लिए 14.3 लाख करोड़ रुपये का बजट प्रावधान किया गया है, उसका उपयोग अब सार्थक रूप में होता है तो किसान की आय सही मायनो में 2022 तक दोगुनी हो पाएगी। इस हेतु अभी फसलों का उत्पादन बढ़ाने, कृषि की लागत कम करने, खाद्य प्रसंस्करण और कृषि आधारित वस्तुओं का निर्यात बढ़ाने की भी जरूरत है।
केंद्र सरकार फिलहाल एमएसपी तय करने के तरीके में ‘ए-2’ फॉर्मूला अपनाती है। यानी फसल उपजाने की लागत में केवल बीज, खाद, सिंचाई और परिवार के श्रम का मूल्य जोड़ा जाता है। इसके अनुसार जो लागत बैठती है, उसमें 50 फीसदी धनराशि जोड़कर समर्थन मूल्य तय कर दिया जाता है। जबकि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश है कि इस उत्पादन लागत में कृषि भूमि का किराया भी जोड़ा जाए। इसके बाद सरकार द्वारा दी जाने वाली 50 प्रतिशत धनराशि जोड़कर समर्थन मूल्य सुनिश्चित किया जाना चाहिए। फसल का अंतर्राष्ट्रीय भाव तय करने का मानक भी यही है। यदि भविष्य में ये मानक तय कर दिए जाते हैं तो किसान की खुशहाली बढ़ने का रास्ता खुल जाएगा। यह उपाय कृषि कानून विरोधी आन्दोलनों को समाप्त करने की दिशा में भी एक सार्थक पहल हो सकती है।