क्या से क्या हो गया अफगानिस्तान
पुष्परंजन
ये जस्ता ख़ान क्या चीज़ है? जनाब ये जस्ता ख़ान एक मंदिर है, हरेक गांव में इस तरह के दो-दो टेंपल आपको मिलेंगे। कैलाश में कुल देवता को सिजदा करने का रिवाज़ है। यानी हर बिरादरी का अलग-अलग मंदिर होता है। त्योहार-समारोह इन्हीं मंदिरों में होते हैं। आप काफिरस्तान जाएंगे, वहां का गाइड यह बताते हुए आपको हैरान अवश्य करेगा। काफिरस्तान! नाम सुनकर अजीब लगेगा। मग़र है इसी धरती पर। हिंदूकुश पर्वत की अलौकिक कुनार वादियों में अवस्थित। लोग भी उतने ही ख़ूबसूरत। इनके पास बारहों महीने उत्सव का कैलेंडर है। शोक में भी जश्न मनाने वाले उत्सवजीवी। जन्म पर भी उत्सव, और मरण पर भी उत्सव। मंदिर में बलि चढ़ाते हैं, शराब के पैग लगाते हैं, नाचते-गाते उत्सव मनाते हैं। प्राचीन नाम काफिरस्तान है, और नया नाम नूरिस्तान। अफग़ानिस्तान के 34 प्रांतों में से एक। कुनार घाटी की सीमाएं पाकिस्तान के चितरल ज़िले से मिलती हैं। पर्यटकों की वजह से ‘काफिरस्तान’, अफगान व पाक सरकारों को भरपूर पैसा देता रहा है।
पूर्वी अफग़ानिस्तान में कोई पांच लाख की आबादी वाला एक दूसरा पेशायी समूह है। क़ाबुल के उत्तर-पूर्व लगमन, कपीसा, नंगरहार, बामियान में बसे। इंडो-आर्यन प्रजाति वाले पेशायी की आस्था काफिरस्तानियों की तरह पूजा-पाठ में रही थी। 13वीं सदी में इस इलाके में आये मार्को पोलो ने जानकारी दी थी कि पेशायी कबीले के लोग हिंदू और बौद्ध धर्म को मानते थे। इनके पूर्वज ऋगवैदिक काल में गांधार से आये थे और इनमें से कुछ वर्तमान पाकिस्तान के चितरल ज़िले में बस गये थे। गांधार प्राचीन भारत के 16 महाजनपदों में से एक था, जिसका अधिकेंद्र पेशावर, तक्षशिला और उसके आसपास के इलाके थे।
अफग़ानिस्तान का पौराणिक नाम था ‘उप गण-स्थान’, वैदिक काल में कब किसने इसका नाम रखा, इसका प्रमाण मिलना बाक़ी है। मगर, संस्कृत में अर्थ यही निकाला गया कि वैसी जगह जहां विभिन्न मित्र कबीले के जन गण मिल-जुलकर रहते हों। 500 ईसा पूर्व तक अफगानिस्तान का हरी रूद नदी घाटी का इलाका पर्शिया के एकाकिमेनियन शासन के अधीन रहा था। पर्शियन सम्राट दारिस द ग्रेट ने ईसा पूर्व 516 में अफग़ानिस्तान से तक्षशिला तक के इलाके को फतह कर लिया था। सदियों बाद, ईसा पूर्व 320 में सिकंदर महान अफगानिस्तान में एकाकिमेनियन शासन वाले तमाम इलाके को अपने अधिकार में लेकर ईसा पूर्व 327 में भारत कूच कर गया। ख़ानोम और आमू दरिया वाले इलाक़े में ग्रीक नगरों जैसे भग्नावशेष इसकी पुष्टि करते हैं।
ईसा पूर्व 323 में सिकंदर की मौत के बाद बेबिलोनिया के सेल्युसिड साम्राज्य ने अफग़ानिस्तान के एक हिस्से को हथिया लिया था। उसके 20 साल बाद हिंदूकुश का दक्षिणी इलाका चन्द्र गुप्त मौर्य साम्र्राज्य के अधीन आ चुका था। कालांतर में बैक्टिरियन सम्राट डायोडोटस ने (ईसा पूर्व 255 से 235) ने आमू दरिया के इलाके से लेकर ताज़िकिस्तान और इधर पंजाब तक अधिकार जमा लिया था। ईसा पूर्व 135 में सेंट्रल एशिया के पांच कबीलाई लड़ाकों के समूह ने अफग़ानिस्तान पर धावा बोला। इन्होंने कुषाण साम्राज्य की बुनियाद रखी, जिसका विस्तार यूपी के मथुरा-सारनाथ तक हो चुका था। गांधार आर्ट और बौद्ध धर्म के विस्तार में कुषाण वंश के राजाओं का बड़ा योगदान रहा है। उस दौर में अफग़ानिस्तान का बाख़ प्रांत साहित्य, कला-संस्कृति का अधिकेंद्र बन चुका था, तथा व्यापारिक रेशम मार्ग चीन और सेंट्रल एशिया तक विस्तार ले चुका था।
तीसरी सदी तक बौद्ध धर्म को उंचाई तक पहुंचाने वाले कुषाण साम्राज्य के पतन के बाद हूण आये। ‘हफथाली’ से पहचान बनाने वाले हूण सेंट्रल एशिया के खानाबदोश थे, जिन्हें भारत में श्वेत हूण या ‘तुरुष्क‘ के नाम से जाना गया। चौथी-पांचवी सदी में अफग़ानिस्तान पर एकाधिकार जमाने वाले हफथाली (हूण) के बारे में बताते हैं कि ये लोग बौद्ध, बेबीलोनिया का मानी धर्म, पारसी और प्राच्य कलीसिया के अनुयायी थे। हफथाली नामों को ध्यान देने पर लगता है, गोया ईरान से आये हों। कुछ इतिहासकारों ने इन्हें तुर्की और बैक्ट्रिया तक का मान लिया। बहुधर्मी थे, तो अनुमान भी इनके बारे में अलग-अलग लगे। बहुधर्मी हूणों के रहते हुए हिंदू शाही राजाओं का काबुल से ग़ज़नी तक विस्तार हुआ।
नौवीं सदी में हिंदू शाही राजा कश्मीर से गांधार और काबुल तक आधिपत्य जमा बैठे। अवन्तिवर्मन उत्पल जाट राजा थे, 855 ईस्वी में समस्त डोगरा प्रदेश पर उनका शासन था। उन्हीं के पुत्र शंकर वर्मन ने काबुल पर कब्ज़ा किया। इनकी अगली पीढ़ी के राजा लगतुरमन को उन्हीं के वज़ीर कल्लर (843 से 850) जो जाति से ब्राह्मण थे, ने पटखनी दी और हिंदू शाही राजवंश की स्थापना की। इसे शाहिया राजवंश भी कहा गया। कल्हन रचित ‘रजत तरंगिनी’ में शाहिया डायनेस्टी के चार राजाओं का उल्लेख है, जिन्होंने 1026 तक अफग़ानिस्तान पर राज किया था। अंतिम हिंदू राजा भीमपाल थे। इन्हीं के वंशज जयपाल ने जलालाबाद को कंट्रोल किया था। इनमें सर्वाधिक शक्तिशाली भीमदेव (921 से 961 ईस्वी) माने जाते थे, जिन्होंने काबुल से उज़बेकिस्तान के बुखारा तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। इतिहासकार अल बरूनी ने लिखा कि भीमदेव के भीरू स्वभाव के कारण उन्हें ‘निडर भीमदेव’ लोग बुलाते थे। अल बरूनी ने अफग़ानिस्तान के सात हिंदू राजाओं का ज़िक्र किया था। अफग़ानिस्तान के आखि़री हिंदू राजा भीमपाल (1022 से 1026 ईस्वी) थे, उनके बाद शाही डायनेस्टी का अंत हो गया।
इस्लाम का आगमन
अफ़ग़ानिस्तान में इतिहास का दूसरा हिस्सा इस्लाम के प्रवेश से जुड़ा है। 632 में हज़रत मुहम्मद के देहावसान के दस साल पूर्व 622 में ईरान के हमदान के पास ‘नहाबंद युद्ध‘ हुआ, उसके बाद अरब मुसलमानों का एक समूह बाख़ और हेरात के इर्द गिर्द बसने और धर्मांतरण के प्रयास में लग गया। तीन सौ साल गुज़र गये। कूफा (आज का इराक) स्थित आबासीद ख़लीफत के लोग अफ़ग़ानिस्तान में ज़मीन तैयार करने लगे। उसके बरक्स ईरान में सुन्नी मुसलमानों का समानीद सल्तनत (819 से 999) ने 872 में समरकंद, बुखारा और बाख़ पर कब्ज़ा जमा लिया।
आप अफग़ानिस्तान के ग़ज़नी जाएंगे, वहां 1099 से 1115 में निर्मित एक विजय स्तंभ मिलेगा। यह मुहम्मद ग़जनी की फतह को याद दिलाता है। 10वीं सदी के तुर्की ग़ुलाम अल्प तिगिन रंक से राजा हुआ था, और गु़लाम वंश की स्थापना की। उसके वंशजों ने आमू दरिया से सिंधु घाटी व अरब सागर तक का विशाल इलाक़ा अपने अधीन कर लिया था। महमूद ग़ज़नी (वास्तविक नाम ग़ज़ना) उन्हीं में से एक था, जिसके नाम से ग़ज़नी बसाया गया था।
ग़ुलाम वंश के बाद 1186 में ग़ोर वंश का शासन अफग़ानिस्तान में हुआ, ये ताज़िक और पर्शियन नस्ल के थे। मुहम्मद ग़ोरी इन्हीं का वंशज था। ग़ोर के बाद 13वीं सदी में मंगोल आये और हिंदूकुश पर चंगेज़ ख़ान का आधिपत्य हुआ। उज़बेकिस्तान के शहर-ए-सब्ज़ में 1336 में जन्मे तैमूर लंग ने 1380 से 1387 के बीच खु़रासान, सिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, फारस, अज़रबैजान, कुर्दिस्तान को अपने अधीन कर लिया था। तैमूर लंग के पांचवे वंशज बाबर ने 1522 में कंधहार पर कब्ज़ा किया। सोलह से 19वीं सदी तक अफग़ानिस्तान कई टुकड़ों वाले शासन में बंट चुका था, वह सोवियत संघ के ज़ार शासकों की ज़द से बाहर नहीं था, जिसे अपने कब्ज़े में लाने के लिये 1838-42, 1878-80 और 1919-21 जैसे तीन बड़े युद्ध करने पड़े। इस तीसरे एंग्लो-अफग़ान वार के बाद 1921 में अफ़ग़ानिस्तान स्वतंत्र देश घोषित हुआ।
मोहम्मद जाहिर शाह अफ़ग़ानिस्तान के अंतिम राजा थे, जिन्होंने 8 नवंबर 1933 से 17 जुलाई 1973 तक शासन किया। उसके बाद से अफग़ानिस्तान गणतांत्रिक देश घोषित हो गया। यूं ज़ाहिर शाह के रहते द्विसदनात्मक व्यवस्था वाली संसद ‘लोया जिरगा’ की स्थापना 1964 में हो चुकी थी।
करीब 15 साल कम्युनिस्टों की सत्ता
मार्क्सवादी, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी आॅफ अफग़ानिस्तान (पीडीपीए) की स्थापना 1965 में हुई। उसके दो खेमे ‘पीपुल्स खल्क‘ और ‘पीपुल्स परचम‘ नमुदार हुए। एक और पार्टी जमीयते इस्लामी उन दिनों अस्तित्व में आई, जिसकी जड़ें काबुल विश्वविद्यालय के फैकल्टी आॅफ रिलीजन से पनप रही थीं। यूं, अफग़ानिस्तान में कम्युनिस्ट लंबे समय तक सत्ता में रहे। मगर नेशनल रेवोल्यूशनरी पार्टी के संस्थापक मोहम्मद दाउद खा़न ने 17 जुलाई, 1973 को सेना के वामपंथी विचारधारा के कमांडरों की मदद से तख्तापलट किया और देश के पहले राष्ट्रपति बन बैठे। उन दिनों इटली इलाज के वास्ते गये किंग ज़ाहिर शाह को वहीं शरण लेनी पड़ी।
18 अप्रैल 1978 तक मोहम्मद दाउद खा़न सत्ता में रहे, फ़िर मार्क्सवादी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी आॅफ अफग़ानिस्तान (पीडीपीए) के नेता कर्नल अब्दुल क़ादिर दो दिनों के वास्ते देश के राष्ट्रपति बने। 30 अप्रैल 1978 को ‘पीडीपीए‘ के नेता नूर मोहम्मद ताराकी अफग़ानिस्तान के राष्ट्रपति बने। 1 साल 137 दिन शासन में रहने के बाद नूर मोहम्मद ताराकी ने गद्दी त्याग दी। ‘पीडीपीए’ के दूसरे नेता हफीजुल्ला अमीन ने 14 सितंबर, 1979 को राष्ट्रपति पद संभाला। ये भी 104 दिन पूरे करते-करते सत्ताच्युत हो गये। कम्युनिस्ट नेता बरबक करमाल सबसे लंबी अवधि छह साल 332 दिन (27 दिसंबर 1979 से 24 नवंबर 1986) तक सत्ता में रहे। उनके बाद 310 दिनों तक निर्दलीय हाजी मोहम्मद चमकानी को राष्ट्रपति बने रहने का अवसर मिला। ‘पीडीपीए’ को एक बार फिर सियासत का मौका मिला। 4 मई, 1986 को उसके नेता मोहम्मद नजीबुल्ला राष्ट्रपति बने और चार वर्ष 199 दिन यानी 16 अप्रैल, 1992 तक उन्होंने राजकाज संभाला। इनके बाद केवल 12 दिनों के वास्ते अब्दुल रहीम हतीफ को राष्ट्रपति बनाया गया था। कम्युनिस्ट कुल मिलाकर 14 साल 274 दिनों तक सत्ता में रहे। लोकतांत्रिक अफग़ानिस्तान में कम्युनिस्ट पार्टी ने बाकियों की तुलना में सबसे अधिक समय तक राज किया।
दो पूर्व राष्ट्रपतियों की नृशंस हत्या
अब्दुल रहीम हतीफ के बाद 61 दिनों के लिये नेशनल लिबरेशन फ्रंट आॅफ अफग़ानिस्तान के नेता सिब्ग़तुल्ला मोज़ाद्देदी शासन प्रमुख बने। 28 जून, 1992 को जमीयते इस्लामी के नेता बुरहानुद्दीन रब्बानी ने राष्ट्रपति पद संभाला और 1996 में तालिबान के आने के बाद उन्होंने देश छोड़ दिया। तालिबान 2001 तक सत्ता में रहे, उस कालखंड में निर्वासित रब्बानी को 22 दिसंबर, 2001 तक राष्ट्रपति माना गया। 20 सितंबर, 2011 को दो मानव बम पाकिस्तान से तालिबान का शांति संदेश देने के बहाने रब्बानी के घर में घुसे और विस्फोट से उड़ा डाला। 26 सितंबर, 1996 को तालिबान ने एक और पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नजीबुल्ला को यूएन आॅफिस से अगवा किया और टार्चर कर मारने के बाद काबुल के चैराहे पर एक पोल से लटका दिया। इस जघन्य हत्या की मुस्लिम देशों तक ने निंदा की थी।
इस कांड के दूसरे दिन 27 सितंबर, 1996 को तालिबान नेता मुल्ला उमर अफग़ानिस्तान के सर्वोच्च नेता (अमीर) घोषित कर दिये गये। 13 नवंबर, 2001 तक 5 साल 47 दिनों के तालिबान राज पर पूरी दुनिया में काफी कुछ लिखा जा चुका है। एक निर्दलीय नेता के रूप में हामिद करज़ई 12 साल 22 दिन राष्ट्रपति पद पर रहे। इंडिपेंडेंट अशरफ ग़नी को भी छह साल 320 दिन शासन में रहने का अवसर मिला। आने वाले दिनों में क्या होता है, उसकी पिक्चर अभी बाक़ी है!
किसने की मंदिरों, मूर्तियों की चिंता?
175 और 120 फीट विश्व प्रसिद्ध बामियान की बुद्ध प्रतिमाएं, जो पहाड़ काटकर बनाई गई थी, उसका हाल पूरी दुनिया ने देखा था। चौथी-पांचवी सदी में बनी इन प्रतिमाओं में से सबसे बड़ी वाली का विध्वंस मार्च 2001 में तालिबान नेता मुल्ला उमर के आदेश पर हुआ था। 20 साल की अवधि में अमेरिका व उसके मित्र देश बामियान बुद्ध का पुनर्निर्माण नहीं करवा पाये। वहां थ्री-डी लाइट प्रोजेक्शन से अधिक कुछ नहीं हुआ। इसे ‘राष्ट्रीय क्षति‘ बताने वाले हामिद करज़ई ‘तालिबान-पार्ट टू’ सरकार में सहयोगी बन चुके हैं, इसे भी एक विडंबना मानकर चलिए। इनके अलावा काबुल में 608-630 सदी में निर्मित सूर्य प्रतिमा, बगराम में यक्षी की दुर्लभ प्रतिमा, पुराने काबुल का दरगा स्थित कोह-ए-आसा माई मंदिर में कई सदियों तक अखंड ज्योति जलती रही। कंधहार के शिकारपुरी बाज़ार, काबुली बाज़ार, जामपीर साहिब स्थित सरपूजा और दंड स्थित देवी द्वार मंदिर, गरदेज में आठवी सदी में निर्मित दुर्गा मंदिर। कुनार घाटी में छगन सराय का हिंदू मंदिर। जलालाबाद स्थित दरगा हिंदू टेंपल, हेलमंड और ग़ज़नी में चौथी से पांचवीं सदी के हिंदू मंदिर अस्तित्व में थे। काबुल से 31 किलोमीटर उत्तर तपा स्कंदर में पहली सदी में बनी शिव-पार्वती की मूर्ति, गरदेज़ में ही पांचवीं सदी में बनी महाविनायक की मूर्ति, जिसे हिंदू शाही शासक खिंगाला ने बनवाया था, ये कुछ चुनिंदा उदाहरण हैं, जिनके संरक्षण को लेकर पता नहीं भारत सरकार और यूनेस्को ने कभी चिंता की हो।