धर्म-न्याय हेतु शस्त्र
एक बार महर्षि भारद्वाज के पुत्र द्रोणाचार्य को पता चला कि परशुराम ब्राह्मणों को सर्वस्व दान कर रहे हैं। वह महेंद्राचल पर्वत पर जा पहुंचे। महर्षि परशुराम को साष्टांग प्रणाम करके कहा, ‘मैं महर्षि भारद्वाज का पुत्र हूं, मुझे ऐसी वस्तु दें, जिसका कभी अंत न हो।’ परशुरामजी ने कहा, ‘तपोनिधान द्रोण, मेरे पास सुवर्ण और जो भी अन्य धन था, वह सब में दान कर चुका है। मैंने पृथ्वी रूपी संपत्ति कश्यप ऋषि को दे दी है। मेरे पास कोई संपत्ति नहीं बची है। अब मेरे पास कुछ शस्त्रास्त्र तथा मेरा शरीर बचा है। इन दोनों में से जो आप चाहें, मैं सहर्ष देने को तत्पर हूं।’ द्रोण ने विनत भाव से कहा, ‘भार्गव श्रेष्ठ, आप मुझे शस्त्रास्त्र तथा उन्हें चलाने की विद्या देकर कृतार्थ करें।’ परशुराम ने द्रोण को शिष्य स्वीकार करते हुए धनुर्वेद का संपूर्ण ज्ञान प्रदान किया। साथ ही कहा, ‘यह ध्यान रखना कि शस्त्रास्त्रों का धर्म व न्याय की रक्षा के लिए उपयोग ही सार्थक होता है, अन्यथा शस्त्र विद्या निरर्थक हो जाती है।’
प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी