शांति-संतोष का धन
संत पुरंदर मोहमाया से दूर पत्नी के साथ शांतिपूर्वक कुटिया में निवास करते थे और भिक्षा प्राप्ति से जीवनयापन करते थे। संत की प्रसिद्धि राजा कृष्ण देव राय तक भी जा पहुंची। उन्होंने तेनाली राम को कहा, ‘संत पुरंदर जी को हमारा संदेश पहुंचा दो कि भविष्य में केवल राजमहल से ही भिक्षा ग्रहण करें।’ राजा ने उनकी दरिद्रता दूर करने का उपाय सोच लिया था। अब संत भिक्षा के लिए रोज महल के दरवाजे पर जाने लगे। कुछ दिनों बाद राजा तेनाली से बोले, ‘संत को तो भिक्षा मांगना छोड़कर अच्छे घर में होना चाहिए था। चलो, चलकर देखते हैं।’ दोनों भेष बदलकर संत के घर पहुंचे तो देखा, संत की पत्नी भिक्षा में मिले चावल बीनते हुए बुदबुदा रही थीं। तेनाली ने कारण पूछा तो बोली, ‘भैया, स्वामी आजकल न जाने कहां से भिक्षा लाते हैं, कंकड़-पत्थर की भरमार होती है।’ राजा चावल हाथ में लेकर बोले, ‘मगर माता, ये कंकड़-पत्थर नहीं, हीरे-मोती हैं।’ संत की पत्नी ने बोली, ‘मगर हमारे लिए तो यह कंकड़-पत्थर ही हैं। असली धन तो मन की शांति और हमारा संतोष ही है।’
प्रस्तुति : अक्षिता तिवारी