... हम जहां में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं
दिनेश भारद्वाज/ट्रिन्यू
सिरसा, 20 मार्च
बड़े बड़ाई ना करे, बड़े न बोले बोल।
रहिमन हीरा कब कहे, लाख टका मेरा मोल।
रहीम जी का यह दोहा इस खबर में एक हीरा और एक जौहरी के संदर्भ में सटीक बैठता है। हीरा है अखबार ‘द ट्रिब्यून’ और जौहरी हैं इस अखबार के 65 वर्षों से पाठक सिरसा निवासी 80 वर्षीय एडवोकेट छबील दास अरोड़ा। जिस तरह संदर्भ दिया जाता है कि कोयले के आसपास हीरा मिलता है, लेकिन परख करने वाला होना चाहिए, उसी तरह इस खबर के मुख्य किरदार ने ‘मैल से पुनर्संचार’, ‘जीवन में पुनरुद्धार’ का संदेश दिया है। तभी तो अखबारों से बने लिफाफे में ‘द ट्रिब्यून’ का पन्ना देखा और फिर इस अखबार के ऐसे मुरीद हुए कि आज तक उसके पाठक बने हुए हैं। यह जीवन में नये संचार का ही तो आलम है कि अरोड़ा द ट्रिब्यून से अपना नाता बताते हुए भावुक हो जाते हैं और उनकी आंखों से खुशी के आंसू छलक आते हैं। वह कहते हैं, ‘यह अखबार अब परिवार का हिस्सा बन चुका है।’ आइये उत्तर भारत के इस प्रमुख अखबार और इसके प्रतिबद्ध एक पाठक की पूरी बात को समझते हैं।
सिरसा के सेक्टर-20 (पार्ट-।) निवासी 80 वर्षीय एडवोकेट छबील दास अरोड़ा ने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे। लेकिन ‘द ट्रिब्यून’ से उनका नाता बदस्तूर जुड़ा है। इस अखबार से जुड़ाव की उनकी कहानी बेहद रोचक है। एडवोकेट अरोड़ा बताते हैं, ‘मेरे पिता स्व. प्रेम चंद अरोड़ा की गांव में दुकान थी। उन दिनों प्राइमरी के बाद पढ़ाई के लिए दूर जाना पड़ता था।’ ओल्ड हिसार और अब फतेहाबाद जिला के लादूवास गांव में जन्मे छबीस दास आगे की पढ़ाई के लिए बठिंडा के बोहा गांव में साइकिल से जाने लगे। उन्होंने कहा, ‘छठी कक्षा से ए, बी, सी, डी पढ़ने की शुरुआत हुई। पिता की दुकान पर भी उन दिनों बैठना पड़ता था। अखबारों के पन्नों से बने लिफाफे दुकान पर आते थे। उन्हीं में ग्राहक को सामान दिया जाता था। एक दिन मेरे हाथ में ‘द ट्रिब्यून’ से बना लिफाफा आ गया। मैं पढ़ने लगा। स्कूल में अंग्रेजी की नयी-नयी पढ़ाई शुरू हुई थी, सो द ट्रिब्यून के प्रति रुचि बढ़ गयी।’ छबीलदास कहते हैं, यह सिलसिला तीन वर्षों तक चला। फिर पिता को ‘द ट्रिब्यून’ नियमित लगवाने के लिए मना लिया। उस वक्त 15 पैसे में अखबार मिलता था। फिर तो गांव में यह बात प्रचलित हो गयी कि ‘प्रेम का लड़का अंग्रेजी जानता है।’ एक दिन तो एक व्यक्ति के पास डाक से कोर्ट के फैसले की प्रति आई। सरपंच और नंबरदार पढ़े-लिखे नहीं थे। अंतत: छबीलदास के पास लोग आए और पता चला कि उनके हक में कोर्ट का फैसला आया है। उस व्यक्ति ने दिल से दुआ दी। उसके बाद मन में ठान लिया कि अब द ट्रिब्यून को कभी बंद नहीं करना है। एडवोकेट अरोड़ा सरीखे पाठक की द ट्रिब्यून के प्रति आस्था और विश्वास का अंदाजा इस बात से भी लगा सकते हैं कि जब उन्होंने कहा कि 143वीं वर्षगांठ पर ‘हरियाणा एडिशन’ शुरू हुआ तो बहुत अच्छा लगा। ‘द ट्रिब्यून’ से ही एडवोकेट अरोड़ा का ऐसा नाता जुड़ा कि मानो किसी शायर की लिखी इन पंक्तियों की मानिंद कह रहे हों, ‘तेरी सूरत से नहीं मिलती किसी की सूरत, हम जहां में तेरी तस्वीर लिए फिरते हैं।’ एडवोकेट छबील दास अरोड़ा ने इमरजेंसी के समय दि ट्रिब्यून के लिए लेटर-टू-एडिटर लिखा था।
वह पत्र छप नहीं पाया। इस पर वह बोले, ‘मुझे अहसास हो गया था कि इमरजेंसी ही न छप पाने की वजह होगी।’ ट्रिब्यून ट्रस्ट के संस्थापक सरदार दयाल सिंह मजीठिया के बारे में काफी कुछ पढ़ चुके छबील दास अरोड़ा की दिनचर्या अब अखबार से ही शुरू होती है। एक बार उन्होंने द ट्रिब्यून के साथ ही अंग्रेजी के दो और अखबार खरीदने शुरू किए, लेकिन एक में अत्यधिक विज्ञापन और दूसरे की भाषा बेहद क्लिष्ट होने के कारण दस दिन बाद ही दोनों अन्य अखबारों को लेना बंद कर दिया। उनके बेटे दीपक अरोड़ा चौ. देवीलाल यूनिवर्सिटी, सिरसा में सुपरिंटेंडेंट हैं। उनके घर में पिछले 65-70 सालों से ‘द ट्रिब्यून’ ही आ रहा है।
ट्रिब्यून ने बनाकर रखा है ‘ट्रस्ट’
‘ब्रेंकिंग न्यूज’ की गला काट लड़ाई और डिजिटल क्रांति जैसे मुद्दों के संदर्भ में अरोड़ा कहते हैं, द ट्रिब्यून ट्रस्ट ने सच में इसे ‘ट्रस्ट’ (विश्वास) बनाकर रखा है। द ट्रिब्यून के साथ दैनिक और पंजाबी ट्रिब्यून के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए उन्होंने कहा, ‘मैं सभी ट्रस्टियों का आभारी हूं, जिनकी बदौलत आज भी लोगों में अखबार के प्रति ट्रस्ट कायम है।’ दि ट्रिब्यून ट्रस्ट के चेयरमैन एनएन वोहरा के उन दिनों को भी अरोड़ा याद करते हैं जब वह जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल थे। उन्होंने कहा, ‘वह स्टेट ऐसी (डिस्टर्ब) रही है, उसे संभाल पाना हर किसी के बस की बात नहीं थी।’ ट्रस्टी गुरबचन जगत के संपादकीय आलेख को भी वह रोचकता से पढ़ते हैं।
सभी संपादकों के याद हैं नाम, एडिट पेज से होती है शुरुआत
चाय की चुस्कियों के साथ छबील दास सबसे पहले इस अखबार के संपादकीय पृष्ठ यानी एडिट पेज को देखते हैं। द ट्रिब्यून के मौजूदा एडिटर-इन-चीफ राजेश रामचंद्रन से लेकर उन्हें माधवन नैयर, प्रेम भाटिया, वीएन नारायणन, हरि जय सिंह, एचके दुआ, राज चेंगप्पा व हरीश खरे तक के नाम याद हैं। इतना ही नहीं, अतीत के पन्नों को पलटने पर वह वजीरुद्दीन के कॉलम का भी जिक्र करते हैं। कालीनाथ-रे का नाम तो उन्हें याद है, लेकिन यह बताने में असमर्थ थे कि उनको कभी पढ़ा या नहीं। कोर्ट के फैसलों पर लिखने वाले रिबेरियो को नियमित रूप से पढ़ते हैं। वे उन्हें आउट स्पॉकन आदमी बताते हैं।
बेहद भाता है कैम्पस कॉलम द ट्रिब्यून में छपने वाले कैम्पस (यूनिवर्सिटी) कॉलम को बड़ी दिलचस्पी से पढ़ते हैं। इसके पीछे भी वजह है। दरअसल, वह महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक में बतौर सुपरिटेंडेंट नियुक्त हुए। एमए-एलएलबी पास अरोड़ा मदवि में डिप्टी रजिस्ट्रार भी रहे। इसके बाद वह हिसार स्थित गुरु जम्भेश्वर यूनिवर्सिटी में डिप्टी रजिस्ट्रार रहे। यहां ऑफिशिएटिंग कंट्रोलर ऑफ एग्जाम भी रहे। वर्ष 2003 के बाद उन्हें तीन बार एक्सटेंशन मिली। वर्ष 2006 में सरकारी सेवाओं से खुद को अलग कर लिया। बकौल अरोड़ा, ‘मेरे करिअर और जीवन में द ट्रिब्यून का सबसे बड़ा रोल है।’