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बिना विस्थापन के जल संकट होगा दूर

07:57 AM Feb 24, 2024 IST

पंकज चतुर्वेदी

प्यास-पलायन-पानी के कारण कुख्यात बुंदेलखंड में हजार साल पहले बने चन्देलकालीन तालाबों को छोटी सदानीर नदियों से जोड़ कर मामूली खर्च में कलंक मिटाने की योजना आखिर हताश होकर ठप्प हो गई। ध्यान दें बीते ढाई दशकों से यहां केन और बेतवा नदियों को जोड़कर इलाके को पानीदार बनाने के सपने बेचे जा रहे हैं। हालांकि पर्यावरण के जानकार बताते रहे हैं कि इन नदियों के जोड़ से बुंदेलखंड तो घाटे में रहेगा लेकिन कभी चार हजार करोड़ की बनी योजना अब 44 हजार 650 करोड़ की हो गई है। सन‍् 2010 में पहली बार जामनी नदी को महज सत्तर करोड़ के खर्च से टीकमगढ़ जिले के पुश्तैनी विशाल तालाबों तक पहुंचाने और इससे 1980 हेक्टेयर खेतों की सिंचाई की योजना तैयार की गई। इस योजना में न तो कोई विस्थापन होना था और न ही कोई पेड़ काटना था। सन‍् 2012 में काम भी शुरू हुआ लेकिन आज करोड़ों खर्च के बाद न नहर है न ही सिंचाई।
विडंबना, देश की सभी बड़ी परियोजनाएं कभी भी समय पर पूरी होती नहीं हैं। उनकी लागत बढ़ती जाती है और जब तक वे पूरी होती हैं, उनका लाभ, व्यय की तुलना में गौण हो जाता है। यह भी तथ्य है कि तालाबों को बचाना, उनको पुनर्जीवित करना अब अनिवार्य हो गया है और यह कार्य बेहद कम लागत का है और इसके लाभ अपार हैं। केन-बेतवा नदी को जोड़ने की परियोजना को फौरी तौर पर देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि इसकी लागत, समय और नुकसान की तुलना में इसके फायदे नगण्य ही हैं।
केन और बेतवा दोनों का ही उद‍्गम स्थल मध्यप्रदेश है। दोनों नदियां लगभग समानांतर एक ही इलाके से गुजरती हुईं उत्तर प्रदेश में जाकर यमुना में मिल जाती हैं। जाहिर है कि जब केन के जल ग्रहण क्षेत्र में अल्प-वर्षा या सूखे का प्रकोप होगा तो बेतवा की हालत भी ऐसी ही होगी। वैसे भी केन का इलाका पानी के भयंकर संकट से जूझ रहा है।
सन‍् 1990 में केंद्र की एनडीए सरकार ने नदियों के जोड़ के लिए एक अध्ययन शुरू करवाया था और इसके लिए केन बेतवा को चुना गया था। सन‍् 2007 में केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इस परियोजना में पन्ना नेशनल पार्क के हिस्से को शामिल करने पर आपत्ति जताई। हालांकि, इसमें कई और पर्यावरणीय संकट हैं लेकिन सन‍् 2010 जाते-जाते सरकार में बैठे लोगों ने प्यासे बुंदेलखंड को एक चुनौतीपूर्ण प्रयोग के लिए चुन ही लिया। केन-बेतवा के जोड़ की योजना को सिद्धांततया मंजूर होने में ही 24 साल लग गए। उल्लेखनीय है कि राजघाट परियोजना का काम जापान सरकार से प्राप्त कर्जे से अभी भी चल रहा है। इसके बांध की लागत 330 करोड़ से अधिक तथा बिजलीघर की लागत लगभग 140 करोड़ है। राजघाट से इस समय 953 लाख यूनिट बिजली भी मिल रही है। यह बात भारत सरकार स्वीकार कर रही है कि नदियों के जोड़ने पर यह पांच सौ करोड़ बेकार हो जाएगा।
टीकमगढ़ जिले में अभी चार दशक पहले तक हजार तालाब हुआ करते थे। यहां का कोई गांव ऐसा नहीं था जहां कम से कम एक बड़ा-सा सरोवर नहीं था, जो वहां की प्यास, सिंचाई सभी जरूरतें पूरी करता था। आधुनिकता की आंधी में एक-चौथाई तालाब चौरस हो गए और जो बचे तो वे रखरखाव के अभाव में बेकार हो गए।
जामनी नदी बेतवा की सहायक नदी है और यह सागर जिले से निकल कर कोई 201 किलोमीटर का सफर तय कर टीकमगढ़ जिले में ओरछा में बेतवा से मिलती है। आमतौर पर इसमें सालभर पानी रहता है, लेकिन बारिश में यह ज्यादा उफनती है। योजना तो यह थी कि यदि बम्होरी बराना के चंदेलकालीन तालाब को नदी के हरपुरा बांध के पास से एक नहर द्वारा जोड़ने से तालाब में सालभर लबालब पानी रहे। इससे 18 गांवों के 1800 हेक्टेयर खेत सींचे जाएंगे। यही नहीं, नहर के किनारे कोई 100 कुएं बनाने की भी बात थी जिससे इलाके का भूगर्भ स्तर बना रहता। अब इस येाजना पर व्यय है महज कुछ करोड़, इससे जंगल, जमीन को नुकसान कुछ नहीं है, विस्थापन एक व्यक्ति का भी नहीं है। इसको पूरा करने में समय कम लगता। इसके विपरीत नदी जोड़ने में हजारों लोगों का विस्थापन, घने जंगलों व सिंचित खेतों का व्यापक नुकसान, साथ ही कम से कम से 10 साल का काल लग रहा है।
समूचे बंुदेलखंड में पारंपरिक तालाबों का जाल है। आमतौर पर ये तालाब एक-दूसरे से जुड़े हुए भी थे, यानी एक के भरने पर उससे निकले पानी से दूसरा भरेगा, फिर तीसरा। इस तरह बारिश की हर बूंद सहेजी जाती थी।
यह समझना होगा कि देश में जल संकट का निदान स्थानीय और लघु योजनाओं से ही संभव है। ऐसी योजनाएं जिसे स्थानीय समाज का जुड़ाव हो और यदि जामनी नदी से तालाबों को जोड़ने का काम सफल हो जाता तो सारे देश में एक बड़ी परियोजना से आधे खर्च में नदियों से तालाबों को जोड़कर खूब पानी उपलब्ध कराया जाता। शायद तालाबों पर कब्जा करने वाले, बड़ी योजनाओं में ठेके और अधिग्रहण से मुआवजा पाने वालों को यह रास नहीं आया।

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