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पूरे देश का मुद्दा है वांग्चुक का अनशन

06:52 AM Apr 01, 2024 IST
पूरे देश का मुद्दा है वांग्चुक का अनशन
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राजेश रामचंद्रन

पैशन ऑफ जीसस क्राइस्ट सप्ताह बीते कल तक मनाया गया है– उत्पत्ति के इतिहास में देखें तो पैशन शब्द का मूल लैटिन के पैशियो में है, जिसका अर्थ है कष्ट सहना। कष्ट और मौत को प्रार्थना सहित कबूलना, जिससे पुनर्जीवन और अमरत्व बनता हो, तमाम सभ्यताओं में इसका जिक्र है और बतौर आध्यात्मिक शुद्धीकरण इन कृत्यों की पुनर्स्थापना करने की रिवायत रही है। राजनीति में, इसको शहीदी पाने के रूप में दोहराया जाता है, विरोध जताने का परम तरीका। महात्मा गांधी का सत्याग्रह, कइयों के लिए, इस तपस्या का सफलतापूर्ण पुन:-प्रदर्शन था, जिसमें सबसे अधिक कष्ट खुद उन सत्याग्रहियों ने सहा, जो गुलामी की जंजीरों को तोड़कर आजादी की नई सुबह में चलने को तत्पर थे।
पहले इस सप्ताह, लद्दाख के जाने-माने इनोवेटर, शिक्षाविद और पर्यावरण कार्यकर्ता सोनम वांग्चुक ने नाजुक हिमालय को बचाने के लिए रखे गए 21 दिन के अपने अनशन को पूरा किया। विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक एवं रीतिगत स्तरों पर इस उपवास का प्रतीकात्मक महत्व बहुत अधिक है। गांधीजी का भी सबसे लंबा अनशन 21 दिन चला था, और वांग्चुक केंद्रीय सरकार और इसकी नौकरशाही को झकझोरने के लिए आत्म-शक्ति के जरिये प्रतिरोध के तरीके से इस मानक को पाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर धरने पर बैठे थे। उनकी मांगों को गहराई से पढ़ने की जरूरत है, खासकर संसद में ‘प्रकृति नुमाइंदे’ होने वाली। सुनने में यह भले अटपटी लगे लेकिन ‘प्रकृति नुमाइंदे’ का अर्थ बहुत गहरा है। 60000 वर्ग कि. मी. वाले लद्दाख इलाके के लिए महज एक सांसद है, जाहिर है उसकी आवाज़ कोई मायने नहीं रखती। पांच अगस्त, 2019 को जम्मू और कश्मीर संभाग से अलग किए जाने के बाद से लद्दाख का शासन नौकरशाह चला रहे हैं। भाजपा ने अपने 2019 के चुनावी घोषणापत्र में वादा किया था कि इस केंद्र शासित क्षेत्र को संविधान की छठी अनुसूची में शामिल किया जाएगा, लेकिन यह वादा खोखला निकला। भारतीय राष्ट्र की मुकुट धरा में लोकतांत्रिक शून्यता कायम है, यह स्थिति अफसोसनाक और खतरनाक, दोनों है।
माइनेस 12 डिग्री सेंटीग्रेड में खुले आसमान के तले, 300 अन्य सत्याग्रहियों के साथ उपवास और रहना-सोना करके वांग्चुक ने अपने ऊपर बहुत कष्ट झेला है ताकि बाकी की दुनिया देख सके कि लद्दाख में सरकार ने विकास का जो रास्ता अख्तियार किया है, उनमें स्थानीय लोगों की भागीदारी नदारद है। यह स्थान वैश्विक चर्चा का बिंदु भी है। दुनिया में आणविक हथियारों से लैस दो सबसे बड़ी सेनाओं के जवान आज इस सीमा पर आंखों में आंखें डाले आमने-सामने की स्थिति में हैं। तिस पर यह बेहद शीतलतम स्थान नाजुक बने पर्यावरण और ग्लेशियरों की स्थिति से मौसमीय पारिस्थितिकी बिंदु पर है, जिसे हर हाल में आने वाले समय में बचाकर रखना होगा।
लद्दाख में राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए लड़ाई सत्ता में हिस्सेदारी के लालच में न होकर इस शीत मरुस्थल को बचाने और चीनी मंसूबों के विरुद्ध सुरक्षा की पहली पंक्ति बने रहने वाले लद्दाखियों के मन में घर कर गए भय का निदान करने के वास्ते है। इसलिए वांग्चुक का सत्याग्रह एक राष्ट्रीय मुद्दा है। उनकी मांगों में, लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा देने और संविधान की छठी अनुसूची के अंतर्गत केंद्रशासित प्रदेश का सुरक्षा आवरण पाना शामिल है। अनुसूची के अंतर्गत आने पर जाहिर है राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में लिए फैसलों पर तेजी से क्रियान्वयन की राह में जिला और क्षेत्रीय परिषदें बाधाएं बन सकती हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि लद्दाख औद्योगिक भूमि आवंटन नीति 2023 में स्थानीय लोगों को पूरी तरह नज़रअंदाज किया जाए, जिसको बनाते वक्त महत्वपूर्ण कमेटियों में स्थानीय लोगों का अर्थपूर्ण प्रतिनिधत्व न रखकर, भूमि आवंटन करने में एकल खिड़की प्रावधान बना डाला है। कहने को तो जिला, विभाग और राज्य स्तर पर तीन एकल खिड़की अनुमति कमेटियां बनाई गई हैं लेकिन यह व्यवस्था न तो स्थानीय लोगों के मन में विश्वास जगाती है और न ही उनकी चिंताओं का निवारण करती है। जाहिर है वांग्चुक की मुम्बई, दिल्ली के लोगों से सरल जीवन जीने और प्रकृति का अत्यधिक दोहन न करने वाली अपील उन्हें रूमानी लगेगी।
हॉलीवुड फिल्म ‘वॉल स्ट्रीट’ में अभिनेता माइकेल डगलस द्वारा निभाया गॉर्डन गीको का पात्र कहता है ‘लालच अच्छा है’, आज जिसे हम विकास मान रहे हैं, यह उसका मूलमंत्र बना हुआ है। लेकिन वांग्चुक चाहते हैं कि हम ग्लेशियरों, वादियों, पहाड़ों, चरागाहों और उस जीवनशैली को निहारते हुए इस मंत्र पर पुनर्विचार करें, जो निवेश, आप्रवासी कर्मियों और नए मालिकों की आमद से आजिज आ गयी है। संक्षेप में, क्या सीमा पर नए गांव बसाकर भारत चीन के बुनियादी ढांचा विकास मॉडल का अनुसरण करना चाहता है।
भारत की क्षेत्रीय संप्रभुता और चीन के साथ अपनी सीमाओं की सुरक्षा से नि:संदेह कोई समझौता नहीं हो सकता, लेकिन स्थानीय जनता की संवेदनाओं की कद्र करने की लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भी यही बात लागू है। यह ठीक है कि भारत लद्दाखियों के साथ वह नहीं करेगा जो चीन ने तिब्बतियों के साथ किया है। लेकिन यह आश्वासन केंद्र सरकार के उच्चतम स्तर पर दिए जाने की जरूरत है न कि वांग्चुक को विरोध करने का एक और दौर चलाने का मौका देकर, वर्ना इससे स्थानीय लोगों में आशंका और अशांति घर करेगी।
वहां के स्थानीय लोग बाहरी लोगों के प्रति अति-संवेदनशील है, यहां तक कि बेलगाम पर्यटन पर भी। तथ्य यह है कि इस बाबत उनकी और देश के सबसे दक्षिणी बिंदु की कहानी का संदर्भ एक समान है। जयामोहन, कन्याकुमारी से संबंधित एक तमिल-मलयालम लेखक हैं, उन्होंने हाल ही में एक ब्लॉग में केरलवासियों को खराब पर्यटक बताया है कि कैसे वे स्थानीय पर्यावरण और संवेदनाओं के प्रति बेपरवाह रहते हैं। यदि एक द्विभाषी लेखक ने अपनी खुद की पहचान के आधे हिस्से के खिलाफ जाकर बेबाकी से गलतियां गिनाई हैं तो यह इसलिए क्योंकि बतौर पर्यटक हम हिंदुस्तानियों की आदतें अच्छी नहीं हैं।
देश में एक भी जगह ऐसी नहीं है जहां से किसी एक समुदाय या अन्य के खिलाफ इस किस्म की शिकायतें सुनने को न मिलें। कानफोड़ू आवाज में स्पीकर बजाना, चीखना-चिल्लाना, शोरपूर्ण संगीत वह अनुभव है जो यह लेखक रोहतांग दर्रे के अपने दौरे में इन खूबसूरत पहाड़ों से लेकर आया। यदि लद्दाखी बाहरी लोगों की हरकतों से घिरता महसूस करने लगे हैं तो इसलिए क्योंकि घरेलू पर्यटक विनम्र होकर नहीं विचरते। वांग्चुक द्वारा चांगथांग के घास के मैदानों तक पहंुचकर, पश्मीना बकरियों की चरागाहों की रक्षार्थ प्रस्तावित मार्च को स्थानीय लोगों की इन आशंकाओं के संदर्भ में समझने की जरूरत है कि उन्हें डर है कि भारी बाहरी निवेश से उनकी रिवायती रोजी-रोटी जाती रहेगी और यह उन्हें कतई समृद्ध नहीं बना सकता। वांग्चुक एक प्रतीक-पुरुष हैं, हिंदी फिल्म थ्री-इडियट्स की वजह से नहीं, क्योंकि उन्होंने हमेशा समझदारी वाली बात कही हैं– जैसा कि आज भी कर रहे हैं। केंद्र सरकार को उनकी सुननी चाहिए। उनके डर की अहमियत है क्योंकि उत्तराखंड में तथाकथित विशाल विकास परियोजनाएं पर्यावरणीय लिहाज से आपदा सिद्ध हुई हैं। यह वांग्चुक और उनके भाई-बंद हैं, जो स्थाई रूप से भारतीय भूभाग की निगरानी बतौर एक कर्तव्यनिष्ठ नागरिक करते आए हैं– बाकी सब तो नौकरी से बंधे हुए यह करते हैं। उन्हें किसी भी रूप में बेइज्जत न महसूस करवाया जाए। उन्हें इतना सशक्त महसूस रखा जाए कि वे चीनी आक्रामकता का सामना करने और भारत को सुरक्षित बनाने में मददगार रहें।

लेखक प्रधान संपादक हैं।

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