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मतदाता का वक्त

07:05 AM Mar 18, 2024 IST
मतदाता का वक्त
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दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के महापर्व की घड़ी करीब आ गई है। देश में चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के साथ नयी सरकार बनने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। निस्संदेह, चुनाव कार्यक्रम बेहद लंबा है और 19 अप्रैल से शुरू होकर एक जून तक चलेगा। बेशक, 18वीं लोकसभा के लिये चुनाव की प्रक्रिया बहुत लंबी है। एक अरब के करीब पहुंचते मतदाताओं के लिये सुचारू-शांतिपूर्ण मतदान की व्यवस्था करना आसान भी नहीं है। भौगोलिक जटिलताओं, बड़ी आबादी और कानून व्यवस्था के प्रश्न चुनावी प्रक्रिया को लंबा बनाते हैं। निस्संदेह, यह नेताओं व सरकार का पांच साल का रिपोर्ट कार्ड पेश करने का वक्त है। यह आसमान से तारे तोड़ लाने के वायदे करने का वक्त है। खामियों को दबाने और उपलब्धियों के बखान का वक्त है। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण वक्त मतदाता के लिये है कि वह अच्छे-बुरे का फर्क करके तार्किक आधार पर अपने बेशकीमती मत का उपयोग करे। विडंबना ही है कि अमृतकाल से गुजरते देश में मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग विष और अमृत के भेद को पूरी तरह महसूस नहीं कर पाया है। भारतीय राजनीति में दागियों का दखल और धनबल का बढ़ता वर्चस्व यही बताता है कि हमारा मतदाता इन संवेदनशील मुद्दों के प्रति जागरूक नहीं हो पाया है। निश्चित रूप से मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग ऐसा भी है जो वोट डालने घर से नहीं निकलता। जो बड़ा तबका निकलता भी है वह भी धर्म, जाति,क्षेत्र और धनबल से रचे सम्मोहन से मुक्त नहीं हो पाता।
विचारणीय प्रश्न यह भी कि क्यों आज भी मतदाता मुफ्त की रेवड़ियों के मोहपाश में जकड़ा हुआ है। मतदाता अपने बेशकीमती वोट को छोटे प्रलोभनों के लिये क्यों जाया कर देता है। देश में पिछले दशकों में साक्षरता का स्तर ऊंचा हुआ है। निस्संदेह, गरीबी के आंकड़ों में काट-छांट के दावे सरकारों की तरफ से किये जाते रहे हैं। देश में गरीबी की उपस्थिति भी एक सत्य है। लेकिन साधनविहीनता का यह मतलब कदापि नहीं है कि हम छोटे-छोटे प्रलोभनों में फंसकर विवेकशील ढंग से मतदान न कर सकें। देश में उत्तर, दक्षिण में मतदाताओं के रुझान में भिन्नता भी एक मुद्दा रहा है, लेकिन लोकतंत्र में पारदर्शिता, शुचिता और योग्य प्रतिनिधियों का चयन एक सर्वकालिक सत्य है। सही मायनों में यह लोकतंत्र का महोत्सव राजनेताओं का नहीं, जनता का है। मतदाता को अपने वोट की कीमत समझकर इसे बदलाव के अस्त्र के रूप में प्रयोग करना चाहिए। उसे जातीय,धार्मिकता, क्षेत्रवाद और आर्थिक प्रलोभनों को सिरे से खारिज करके लोकतंत्र को समृद्ध बनाना चाहिए। उसे विचार करना चाहिए कि देश की जनप्रतिनिधि संस्थाओं में क्यों धनबलियों का वर्चस्व हो रहा है। क्यों आम आदमी अब चुनाव लड़ने की स्थिति में नहीं है? क्यों जनप्रतिनिधि चुनाव जीतते ही अरबों में खेलने लगते हैं? यह विडंबना है कि चुनाव प्रक्रिया के दौरान उपहारों, शराब और नकदी के अंबार की बरामदगी इस संकट की ओर इशारा करती है कि अल्पकालिक लाभ के लिये कमजोर वर्ग के मतदाताओं को लुभाने के लिये सारे दांव चले जाते हैं। निस्संदेह, इक्कीसवीं सदी के भारतीय लोकतंत्र में इन प्रवृत्तियों पर अंकुश लगना चाहिए।

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