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बनफूल
बड़ा ही अटपटा नाम था उसका, रिपुनाश। उसके बड़े भाई का नाम तमोनाश था लेकिन उनका कालचक्र कुछ इस कदर घूमता रहा कि उनसे किसी प्रकार के दुर्भाग्य का नाश न हो सका। नाश हुआ तो स्वयं उनका। तमोनाश के जीवन में रत्ती भर भी प्रकाश प्रवेश न हो पाया। यहां तक कि वह अ, आ तथा क, ख की दहलीज भी नहीं लांघ सका। बिल्कुल निरक्षर। ब्राह्मण-पुत्र होने के कारण दोनों भाइयों के संस्कृत नामकरण हुए थे। उनके पिता मोहल्ले के पंडित थे, मोहनाश तर्कतीर्थ। संक्षेप में उन्हें मोहन पंडित के नाम से जाना जाता। वर्तमान समाज में संस्कृत-पंडितों का वैसे भी कोई महत्व नहीं है। अत्यन्त दरिद्र थे वे। कभी-कभार पुरोहितचारी भी कर लिया करते थे। जब वे स्वर्ग सिधारे, उस समय तमोनाश की उम्र छह वर्ष की थी और रिपुनाश मात्र तीन वर्ष का। उनकी मां लोगों के घर भोजन बनाने का कार्य कर अपना संसार चलाया करती थी।
तमोनाश जब सोलह वर्ष का हुआ, पक्का ‘दादा’ (गुंडा) बन गया। सारा दिन आवारागर्दी में गुजारता। उसका अपना एक गिरोह भी था। गुंडों के उस गिरोह में तमोनाश ‘तमना’ के नाम से जाना जाता। गुंडागर्दी से तमोनाश की कुछ आमदनी हो जाती। कुछ पैसे मां के हाथों पर भी रख देता। कुछ मौज-मस्ती में उड़ा देता, परंतु यह मस्ती भरी जिंदगी उसे अधिक दिनों तक रास नहीं आई। गुंडागर्दी में ही किसी के छुरे से उसने अपनी जान गंवा दी। उसका शव कुछ देर तक फुटपाथ पर पड़ा रहा। बाद में पुलिस की गाड़ी आई और उसे पोस्ट-मार्टम के लिए ले गई। डॉक्टरों ने उसके मृत शरीर को चीरा-फाड़ा और फिर लावारिस घोषित कर अंतिम संस्कार करवा दिया। तमोनाश की मां अपने पुत्र के शव पर अधिकार भी नहीं जमा पायी क्योंकि लोगों को इकट्ठा कर दाह-संस्कार के लिए जितने पैसों की आवश्यकता पड़ती, वह उसके पास नहीं थे।
पहले ही चारों ओर उधार था और उधार में वृद्धि करने की उसकी तनिक भी इच्छा नहीं हुई। अंतिम संस्कार करने वालों ने तमोनाश के शव में से अस्थियों को निकाल कर उसकी सफाई की और चिकित्सा-विज्ञान के छात्रों को बेचकर कुछ पैसा कमा लिए। इस तरह तमोनाश की जीवन-कथा यहीं सम्पन्न हुई। तमोनाश की मां सावित्री अधिक रोयी भी नहीं। उसके चेहरे पर एक बुझी हुई सी लौ झलक उठती जिसकी न कोई भाषा थी और न ही वह नज़र आती, पर थी वह अत्यंत पीड़ादायक। जिस घर में सावित्री भोजन बनाने का कार्य करती थी उसके मालिक तमोनाश की मृत्यु के बाद उसका वेतन दो रुपये बढ़ाने पर राजी हो गए थे पर सावित्री ने स्वयं मना कर दिया। बस इतना भर कहा कि इसकी आवश्यकता नहीं है।
उधर रिपुनाश सारा दिन सड़कों पर भटकता फिरता। घर में जिनके लिए स्थान नहीं है, जो सड़कों पर मारे-मारे फिरते हैं, किसी भी खेल-तमाशे, सड़क-दुर्घटना या सड़कों की भीड़ की ओर जिनकी आंखें बरबस खिंच जाती हैं, वे ही रिपुनाश के साथी थे। अपने साथियों में वह ‘रिपुन’ के नाम से जाना जाता। रिपुन तमना की तरह शक्तिशाली नहीं था। जीर्ण-शीर्ण शरीर। बाजार में उद्देश्यहीन मंडराता रहता। हां, कभी-कभार बोझा उठाकर वह कुछ कमा लेता। बीड़ी पीना वह सीख चुका था। अतः प्रतिदिन एक बंडल बीड़ी पीने के बाद जो पैसे बचते, उसे मां के हाथ में थमा देता। इसी तरह उनके दिन कट रहे थे।
रिपुन की उम्र जब सोलह-सत्रह वर्ष की हुई तो एक दिन एक घटना घटी। वह पुस्तकों-कापियों का एक भारी गट्ठर लेकर किसी कार में संभाल कर रख रहा था कि उसे अपने गले के अंदर खराश-सा अनुभव हुअ। उसके बाद वह खांसने लगा। कारवाला बाबू उसकी मजूरी के बारह आने पैसे उसे देकर आगे बढ़ गया था। रिपुन वहीं फुटपाथ पर बैठकर बुरी तरह खांसने लगा। अचानक खांसी के साथ जमा हुआ रक्त का एक थक्का-सा गिरा। रिपुन कुछ देर तक उस रक्त को देखता रहा और फिर उठकर घर की ओर चल पड़ा।
सावित्री रिपुन को लेकर मोहल्ले के डॉक्टर के पास पहुंची। डॉक्टर ने उसकी पीठ-छाती की जांच कर बताया कि उसे तपेदिक हुई है। डॉक्टर ने यह भी कहा, ‘मुझे कोई फीस नहीं चाहिए पर दवा और टीका तो खरीदने ही पड़ेंगे। साथ ही भोजन भी पौष्टिक खाना पड़ेगा जैसे अंडा, मक्खन, मांस-मछली, फल इत्यादि।’
सावित्री अपलक डॉक्टर की ओर देखती रही। उसके चेहरे की दबी आग की लौ ने संभवतः डॉक्टर के मन को छू लिया। उन्होंने पुनः कहा, ‘अगर यह सब तुम्हारे लिए संभव न हो तो इसका अस्पताल में दाखिल हो जाना बेहतर होगा। तुम्हें एक पत्र दिए देता हूं। इसे लेकर अस्पताल चली जाना।’
पत्र हाथ में थामे सावित्री सात दिनों तक अस्पताल की भीड़ में धक्के खाती रही, पर कुछ प्रबन्ध न हो सका। एक रोगी ने उसे बताया था :-
‘यहां भी बिना पैसे के कुछ नहीं बनता। रिश्वत देनी पड़ती है।’
यह सुनकर रिपुन दुबारा अस्पताल नहीं गया। वह इतने पैसे कहां से लाता? बगैर चिकित्सा के वह दिन काटता रहा। अंततः उसने फिर से सड़क पर सामान ढोने का काम शुरू कर दिया। एक दिन उसके एक साथी ने उससे कहा, ‘देख मेरी जेहन में एक ख्याल आया है। अगर तू किसी तरह छह माह अलीपुर जेल में बिता ले तो तेरी तपेदिक ठीक हो जाएगी।’
‘जेल जाने पर तपेदिक ठीक हो जाएगी? क्या कह रहा तू?’ रिपुन कुछ भी समझ नहीं पाया।
मित्र ने बताया, ‘हरू जेल से ही स्वस्थ होकर लौटा है। उसे भी तपेदिक हो गई थी। वहां एक बढ़िया अस्पताल है। बिना पैसे ही चिकित्सा हो जाती है। तू जेल ही चला जा मेरे यार।’
कुछ दिनों बाद रिपुन ट्राम में जेब काटते हुए रंगे हाथों पकड़ा गया। लोगों ने पहले उसकी बहुत पिटाई की और बाद में पुलिस के हवाले कर दिया।
अदालत में जज ने उससे पूछा, ‘अपने बचाव के लिए वकील कर सकते हो? अगर वकील करने की क्षमता न हो तो मैं अपनी ओर से वकील दे सकता हूं।’
रिपुन ने हाथ जोड़कर कहा, ‘नहीं महाशय, वकील की कोई आवश्यकता नहीं। पुलिस जो कह रही है, सत्य कह रही है। चोरी के इरादे से ही मैंने उस व्यक्ति की जेब में हाथ डाला था।’
जज ने सजा सुनायी, ‘पचास रुपया जुर्माना। न देने पर एक माह की जेल।’
रिपुन ने प्रार्थना की, ‘धर्मावतार, मैं रुपये नहीं दे सकता। कृपया मुझे एक माह के बदले छह माह की सजा दीजिए।’
यह सुनकर जज को भी आश्चर्य हुआ। पूछा, ‘तुम छह माह की जेल की सजा क्यों मांग रहे हो?’
‘महाशय, मैं तपेदिक से पीड़ित हूं। अलीपुर जेल में इसकी उचित चिकित्सा होती है। छह माह में रोग ठीक हो जाएगा।’ रिपुन ने सच-सच बता दिया।
सुनकर जज ने अपनी राय में कोई परिवर्तन नहीं किया। जेल के अस्पताल में रोग ठीक नहीं हो पाया। रिपुन खांसते-खांसते एक माह बाद जेल से बाहर आ गया। इसके बाद वह सिर्फ एक महीने ही जीवित रह पाया। उस आधी रात को रिपुन खांसते-खांसते उठा, मां के कदमों पर रक्त वमन किया और चिरनिद्रा में सो गया।
सावित्री गुमसुम बैठी रही। उसकी आंखें अग्नि के ताप से जल रही थीं। एक बूंद भी आंसू नहीं ढुलकाया उसने।
दो महीनों के बाद चुनाव का समय आया। सावित्री का भी एक वोट था। उसके घर एक मशहूर प्रत्याशी आ पहुंचे।
सावित्री उसकी ओर आग्नेय निगाहों से देखते हुए बोली, ‘आपको वोट दूं? क्यों दूं? क्या भला किया है आपने हमारा? जब आप कुर्सी पर थे, मेरे विद्वान पति एक साधारण भिखारी की मौत मरे। अपने बड़े लड़के को हम पढ़ा-लिखा नहीं पाए। अंततः वह गुंडागर्दी में मारा गया। छोटा लड़का तपेदिक से मर गया। उसकी चिकित्सा न हो सकी। हर जगह सबको रिश्वत चाहिए। मैं भला आपको वोट क्यों दूं? जाइए, मैं किसी को वोट नहीं दूंगी।’
प्रत्याशी ने कहना चाहा, ‘पर देखिए, लोकतंत्र में...।’
उनकी बातों को बीच में ही काटते हुए सावित्री चिल्ला उठी, ‘इसी समय निकल जाइए मेरे घर से।’
वे सज्जन झटपट बाहर निकल गए। सावित्री ने धड़ाम से दरवाजा बन्द कर दिया।
मूल बांग्ला से अनुवाद रतन चंद ‘रत्नेश’