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कलियुग में सतयुग के आभासी दर्शन

06:44 AM Sep 26, 2024 IST

सूर्यदीप कुशवाहा

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जब ईमानदारी का राग जपकर जेल से लौटकर नहाया। खूब मीडिया ने तड़का लगाया। आज खबरें अहम नहीं बनती क्योंकि तड़का का छोंक का चलन है। ईमानदारी उतनी अच्छी जितना निभा सकते हैं। ज्यादा ईमानदारी कब्ज को बढ़ा देती है। ईमानदार इतना कि कुर्सी छोड़नी पड़ी। द्वापर युग में राम चौदह बरस को बनवास गए तो भरत ने राजगद्दी पर खड़ाऊं रखकर राज्य चलाया। आज इतिहास फिर खुद को दोहरा रहा है। राजगद्दी पर नहीं बैठ सरकार चलाएंगी। कितनी समानता है दोनों के आदर्श में? ऐसे मानक गढ़कर चिरकाल तक अमर हो जाएंगे। अहा! अद्भुत राजनीति की अंधभक्ति की शक्ति से कुर्सी की स्वामिभक्ति की जर्सी पहनाई गई। तीनों लोक हर्षित हुआ। सुर-असुर, देव-दानव सब धन्य हो गए। राजनीति का उत्कर्षकाल है। राजनीति में एक ही थाली के चट्टे-बट्टे।
चढ़ा वही जो गिरा है। राजनीति के शीर्ष पर यदि सूर्य-सा चमकना है तो चापलूस बनना होगा। स्वामी रिमोट से सरकार चलाएंगे और कृपापात्र कठपुतली-सा नाचेंगे। नचा-नचा के स्वामी परीक्षा लेंगे और साथ में राजनीति में दीर्घायु का आशीर्वाद भी देंगे। सबसे ईमानदार पार्टी का सत्ता प्रेम देखते ही बनता है। स्वर्ग भी ऐसा दिव्य दर्शन को धरती पर उतर आया। सत्ता पर काबिज होते ही बत्तीसी दिखाई और भरत-सा राज्य चलाने का बीड़ा उठाया नहीं बल्कि मीडिया में बजाया। आतिशबाजी शुरू है। मफलर साफा सब कलर में नजर आ रहे हैं। जनता को और क्या चाहिए?
जैसे भरत ने खड़ाऊं रखकर सिंहासन संभाला, नये प्रतीक-प्रतिमानों में दोहराव है। यह सुनकर चापलूस विपक्ष बोला- चापलूसी नहीं, काम करें। एक खाली कुर्सी छोड़ दी और खुद दूसरी कुर्सी पर बैठीं। जिन्होंने एक वचन को निभाने के लिए वनवास स्वीकार किया, उनकी जिंदगी हम सबके लिए मर्यादा और नैतिकता की एक मिसाल है। बिल्कुल उसी तरह अब इस देश की राजनीति में मर्यादा और नैतिकता की एक मिसाल कायम करने का प्रपंच है। जो लंबे समय तक त्याग का स्मरण फौरी तौर पर कराएगी। इस्तीफे में फूफा बनना सही नहीं होता है। भक्त बनाना सही निर्णय है। भविष्य का दांव है। राजनीति ऊपर पांव है। कलियुग में रामयुग का दिव्य दर्शन देख जनता मस्त है और विपक्ष त्रस्त है। इस ब्रह्मास्त्र का कोई नहीं काट अस्त्र है। आतिशबाजी के नजारे का लुत्फ लीजिए और कुर्सी की मुफ्त रेवड़ियां खाइये।

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