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घाटी की सुरक्षा

07:04 AM Mar 29, 2024 IST
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इसमें दो राय नहीं कि देश की अखंडता को चुनौती और कानून व्यवस्था के गंभीर संकट के बीच सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम यानी अफस्पा अस्तित्व में आया होगा। हालांकि, नागरिक स्वतंत्रता के अतिक्रमण और कई बार सुरक्षा बलों के अभियानों में चूक के चलते हुई जनक्षति के चलते इसकी सार्थकता को लेकर विमर्श देश में चलता रहा है। इसके खिलाफ लंबे आंदोलन भी हुए और नागरिक स्वतंत्रता से जुड़े संगठन इसका मुखर विरोध भी करते रहे हैं। यद्यपि देश की सरकारें इसे अराजकता व अतिवाद के उपचार के साधन के रूप में देखती रही हैं। बहरहाल, अनुच्छेद 370 हटाये जाने के बाद केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में सामान्य होती स्थिति के बीच केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह द्वारा अफस्पा हटाने के संकेत का स्वागत ही किया जाना चाहिए। जिसके बाद नागरिक स्थलों की सुरक्षा का जिम्मा पुलिस को सौंपा जा सकता है। निश्चित रूप से इसे घाटी में लोकतांत्रिक व्यवस्था बहाल करने की दिशा में एक कदम के रूप में देखा जा सकता है। गृह मंत्री ने यथाशीघ्र इस केंद्रशासित प्रदेश में विधानसभा चुनाव कराने व कानून व्यवस्था पुलिस को सौंपे जाने के संकेत दिये हैं। निश्चित रूप से घाटी में पिछले कुछ समय में कानून व्यवस्था में सुधार देखा गया है। सीमा पर कड़ी चौकसी और आतंकवादी संगठनों का वित्त पोषण करने वाले व्यक्तियों व संगठनों पर नकेल कसी गई है। कइयों की संपत्ति की कुर्की, गिरफ्तारी तथा बैंक खातों को सील करने की कार्रवाइयां हुई हैं। जिसके चलते अलगावादियों की गतिविधियों पर किसी हद तक अंकुश लगाने में कामयाबी मिली है। ऐसे में राज्य में लोकतांत्रिक प्रक्रिया प्रारंभ करने के लिये अनुकूल वातावरण बनता दिख रहा है। ऐसे में अफस्पा हटाने का कदम राज्य में विधानसभा चुनाव के अनुरूप राजनीतिक गतिविधियां आरंभ करने में सहायक साबित हो सकता है। वैसे भी नागरिक प्रशासन से जुड़े स्थानों पर सैन्य बलों की तैनाती लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना की दृष्टि से अच्छी नहीं कही जा सकती है।
उम्मीद के अनुरूप गृहमंत्री अमित शाह की जम्मू-कश्मीर से अफस्पा हटाने की टिप्पणी का विभिन्न राजनीतिक दलों व वरिष्ठ नौकरशाहों ने स्वागत ही किया है। जो राज्य में लोकतांत्रिक प्रक्रिया आरंभ करने की दिशा में पहला व निर्णायक कदम माना जा रहा है। जम्मू-कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश बनाये जाने से पहले वर्ष 2008 से 2018 तक जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे सीनियर ब्यूरोक्रेट एन.एन. वोहरा का मानना है- ‘जम्मू कश्मीर में विशेष अधिकार अधिनियम यानी अफस्पा हटाकर कानून-व्यवस्था राज्य पुलिस को सौंपने का संकेत एक सार्थक पहल होगी। उन्होंने देश के उन अन्य क्षेत्रों में ऐसी पहल की जरूरत बतायी, जहां आंतरिक सुरक्षा के लिये लंबे समय से सैन्य बलों को तैनात किया गया है। उनका मानना है कि सार्वजनिक व्यवस्था बनाये रखना राज्य पुलिस का प्राथमिक कर्तव्य है। जिससे सेना को उसके वास्तविक काम पर लौटने में मदद मिल सकेगी।’ निश्चित रूप से किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिक अधिकारों की बहाली सत्ता की प्राथमिकता होनी चाहिए। सैन्य बलों की कार्यशैली में नागरिकों के प्रति संवेदनशीलता को लेकर भी प्रश्न उठते रहे हैं। निश्चित रूप से नागरिकों से जुड़े कानूनी पहलुओं का क्रियान्वयन व कार्यशैली लोकतांत्रिक दृष्टिकोण की मांग करते हैं। यही वजह है कि जाने-अनजाने में कई निर्दोष लोगों के सैन्य बलों की कार्रवाई की चपेट में आने की आशंका बनी रहती है। पुलिस की भूमिका जहां कानून व्यवस्था बनाये रखने की होती है, वहीं उसे स्थानीय विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने का अनुभव भी होता है। निश्चित रूप से जोड़ने का जो काम सुई कर सकती है, उसकी जगह तलवार का उपयोग अतार्किक ही कहा जाएगा। वहीं दूसरी ओर नागरिक अधिकारों की बहाली से सरकारी तंत्र व नागरिकों के बीच भरोसा बढ़ेगा। सरकारी योजनाओं में जनता की भागीदारी में वृद्धि होगी। साथ ही राज्य में विधानसभा चुनावों के अनुकूल वातावरण बनाने में भी मदद मिलेगी। केंद्र सरकार की तरफ से पहल होनी चाहिए कि राज्य में रोजगार के अवसरों को विशेष जरूरत मानकर बढ़ाया जाए। ताकि बेरोजगारी का फायदा उठाकर अलगाववादी ताकतें उन्हें पथभ्रष्ट करने की कुत्सित कोशिश न कर सकें।

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