For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.

कुदरती संसाधनों के दुरुपयोग से उपजा शहरी जल संकट

07:54 AM Apr 10, 2024 IST
कुदरती संसाधनों के दुरुपयोग से उपजा शहरी जल संकट
Advertisement

देविंदर शर्मा
कई साल पहले, मैंने टाइम्स पत्रिका में एक बहुत दिलचस्प लेख पढ़ा था ‘केप टाउन के भारी जल संकट के बीच जीना कैसा होता है।’ इस डर से कि आने वाले महीनों में शहर सूख जाएगा, दक्षिण अफ्रीका पहला शहर बन गया जिसने न केवल चेतावनी दी, बल्कि यह भी बताया कि जब नल सूख जाएंगे और दैनिक जरूरतों को पूरा करने के लिए भूजल ढूंढ़े से भी नहीं मिलेगा तो यह कितना भयानक होगा।
पिछले कुछ हफ्तों में, बेंगलुरु जिस गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है, उस पर कई लेख आए हैं, जिनमें शहर के कुछ हिस्सों में ऊंची इमारतों के निवासियों को पड़ोसी मॉल में शौचालय का उपयोग करने के लिए मजबूर होने की खबरें शामिल हैं, जो केप टाउन के दुखद कल्पनाओं वाले परिदृश्य के समान हैं। विशेष रूप से देश के एक अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित एक लेख ‘जब नल सूख जाते हैं’ में दिखाया गया कि कैसे कभी झीलों का शहर, जैसा कि इसे कभी जाना जाता था, एक शहरी कंक्रीट का जंगल बन गया, ‘आर्थिक विकास’ का शिकार हो गया। अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय की सीमा मुंदोली ने अपने विचारोत्तेजक लेख में वास्तव में पाठकों को तीन ‘आर’ यानी- हमारे रिश्ते, हमारे अधिकार और हमारी ज़िम्मेदारियां - पर विचार करने के लिए प्रेरित किया कि कैसे शिक्षित लोगों ने सपनों को इतनी तेज़ी से धूमिल होने दिया है।
यहीं पर मुझे लगता है कि बेंगलुरु के जल संकट की तुलना पंजाब के भूजल में चिंताजनक गिरावट से करना महत्वपूर्ण हो गया है। पानी की अधिक खपत करने वाली धान की खेती को तेजी से भूजल की कमी के पीछे प्रमुख कारण बताया जा रहा है, जबकि 138 विकास खंडों में से 109 से अधिक ब्लॉक पहले से ही डार्क जोन, जहां निकासी की दर पुनः आपूर्ति की दर से अधिक है, में आते हैं। पानी की तलाश ने किसानों को अधिक गहराई तक जाने के लिए सबमर्सिबल पंप स्थापित करने के लिए उकसाया है, और कई मामलों में इसे सीधे जलीय चट्टानी परत से प्राप्त किया है। कई अध्ययनों से पता चला है कि पंजाब का भूजल जल्द ही खत्म हो जाएगा, कुछ का तो यह भी अनुमान है कि भूजल 17 साल से अधिक नहीं टिकेगा।
पंजाब में, कई दशकों से फसल विविधीकरण का सुझाव दिए जाने के बावजूद, धान का क्षेत्रफल असल में बढ़ा है। इस वर्ष, पंजाब में धान का सबसे अधिक रकबा और सर्वाधिक उपज भी दर्ज की गई। हालांकि ऐसा माना जाता है कि धान की फसल में 1 किलो चावल पैदा करने के लिए 5,000 लीटर से अधिक पानी की आवश्यकता होती है। हालांकि यह अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग होता है। पंजाब केंद्रीय भंडार में चावल का सबसे बड़ा योगदानकर्ता भी है। इसलिए यह खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। फिर भी, ऐसा इसलिए है क्योंकि केंद्र व राज्य सरकारें धान के लिए आर्थिक रूप से कोई ठोस विकल्प लेकर नहीं आई हैं, फसल विविधीकरण अभी तक जड़ें नहीं जमा सका है।
आश्चर्य होता है कि अगर फसल विविधीकरण पंजाब के लिए एक समाधान है, तो बेंगलुरु के मामले में यह ‘शहर विविधीकरण’ क्यों नहीं हो सकता? महानगर की वहन क्षमता को देखते हुए, शहर अब चरमरा रहा है। 2011 में 8.7 मिलियन से, अगले 10 वर्षों में जनसंख्या बढ़कर 2021 तक अनुमानित 12.5 मिलियन हो गई। अब तक यह 15 मिलियन के करीब होगी। इसलिए जनसंख्या में इतनी अनियंत्रित वृद्धि की अनुमति देने के लिए नीति निर्माताओं को जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए। सभी दिशाओं में फैलने के बजाय, बेंगलुरु शहर का विविधीकरण किया जा सकता था - पड़ोसी शहरों को आबादी के प्रवाह को संभालने के लिए प्रोत्साहित करके।
किसी भी स्थिति में, ‘शहरों और समुदायों’ का सतत विकास एसडीजी 11 के अंतर्गत आता है, और यह एसडीजी 8 से भी जुड़ा है जो ‘सभ्य कार्य और आर्थिक विकास’ की बात करता है। ‘शहरों और मानव बस्तियों को समावेशी, सुरक्षित, लोचशील और टिकाऊ’ बनाना एसडीजी 11 द्वारा निर्धारित कार्यों में से एक है। स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए शहरी फैलाव को प्रतिबंधित करना शहर की नगर परिषदों का कार्य होना चाहिए था। पानी की बर्बादी को कम करने के लिए व्यावहारिक कदम उठाएं। ऐसे तदर्थ निर्णय ऐसे किसी संकट का समाधान नहीं कर सकते जो कि भयावह भविष्य की ओर इशारा कर रहा है। साथ ही, जिस तरह से झीलों और जल निकायों का नेटवर्क शहरीकरण की भेंट चढ़ गया है, उसे कुछ अपरिहार्य रूप में देखा जाता है। इसके विपरीत, यह प्रशासनिक ताकत के दुरुपयोग के अलावा और कुछ नहीं है जिसने झीलों को बिल्डरों द्वारा हड़पने की अनुमति दी। कई झीलें शहर द्वारा प्रतिदिन फेंके जाने वाले भारी कूड़े-कचरे का डंपिंग ग्राउंड बन गई हैं। झीलों को पुनर्जीवित करने के जन आंदोलन के बावजूद प्रशासन नींद में है। अब भी, उदाहरण के लिए, सभी की निगाहें शहर के पूर्वी हिस्से में जुन्नसांद्रा झील के 24 एकड़ में आवास परिसर स्थापित करने पर हैं, जो सूख गई है। आईटी हब के आसपास, हलनायकनहल्ली झील सभी प्रकार के मलबे और कचरे का डंपिंग ग्राउंड है। जैसा कि किसी ने कहा, ‘कई झीलें बारहमासी बन गई हैं- कचरे और मलबे के साथ!’
धान की बढ़ती खेती के साथ-साथ पंजाब के किसानों को पराली जलाने के लिए भी दोषी ठहराया जाता है। ऐसी गलती करने वाले किसानों के खिलाफ एफआईआर, जुर्माना, राजस्व रिकॉर्ड में रेड एंट्री और सब्सिडी वाले इनपुट की आपूर्ति को प्रतिबंधित करने जैसे कुछ अन्य कदम उठाए जाते हैं। मगर प्रशासनिक अधिकारियों और रियल एस्टेट कंपनियों पर एफआईआर क्यों नहीं दर्ज की जाती जिन्होंने उस जमीनों पर कब्जा कर लिया जहां पर कभी झीलें और जलाशय होते थे। पर्यावरणीय चूक के लिए जब शहरी बाशिंदों और किसानों को दंडित करने की बात आती है तो दोहरे मानदंड किसलिए होने चाहिये? शहरियों से नरमी का बर्ताव किया जाता है जबकि सभी तरह की दंडात्मक कार्रवाई किसानों पर की जाती है? हरेक तरह की आर्थिक गतिविधि के लिए हमेशा पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की बात की जाती है। परंतु जब जल संकट जैसी बड़ी समस्याओं को संबोधित करने की बात आती है तो निजी क्षेत्र किसी साझे प्रयास में हाथ मिलाने के लिए इच्छुक नजर नहीं आता है।
रोचक तौर पर, एक फेसबुक पोस्ट में सुझाव दिया गया था कि नारायणमूर्ति ने अपने 4 माह के पोते को 240 करोड़ रुपये की कीमत का जो शेयर गिफ्ट किया था उसका बेहतर इस्तेमाल हो सकता था यदि ऐसी राशि उस भीषण जल संकट के लिए दानस्वरूप प्रदान की जाती जिसका असर शहर के भविष्य पर हो रहा है। बहरहाल, जिस शहर में आप रहते हैं उसके किसी असाधारण संकट की चपेट में आने के समय उसके लिए खड़े होने की सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की निश्चित तौर पर सामूहिक जिम्मेदारी होती है।
पुलित्जर पुरस्कार विजेता लेखक जेरेड डायमंड ने अपनी पुस्तक ‘कोलैप्स’ में ऐसे कई समाजों पर दृष्टि डाली है जो अपने कुदरती संसाधनों का दुरुपयोग करने के चलते बर्बाद हो गए। जेरेड कंबोडिया स्थित अंगकोर वाट और मोहनजोदड़ो , अब पाकिस्तान में, के पतन की बात करते हैं, जो फलती-फूलती बसाहटों के दो उदाहरण हैं जो बाद में नष्ट हो गयी थीं। उम्मीद करें कि आधुनिक समाज विफलताओं को नहीं दोहराएगा और प्राकृतिक संसाधनों के घोर कुप्रबंधन के चलते वृद्धिमान शहर नष्ट नहीं होंगे, और वह भी 21वीं सदी में तो नहीं।

लेखक कृषि एवं खाद्य विशेषज्ञ हैं।

Advertisement

Advertisement
Advertisement
Advertisement
×