खोलें मन की गांठें
ऋतुचक्र में बदलाव और किसानी संस्कृति के उल्लास के बीच आता है दीपोत्सव। वर्षा ऋतु से उपजी जीवन की एकरसता को तोड़ने का कार्य दीपपर्व शृंखला ही करती है। दीपावली हमारे तन-मन के अंधेरे दूर करने का पर्व भी है। यह त्योहार न केवल हमारी आर्थिकी की प्राणवायु है बल्कि जीवन की उदासीनता को दूर कर उसमें नयी ऊर्जा का संचार भी करता है। त्योहारों के देश भारत में ऐसे उत्सवों के गहरे निहितार्थ हैं। सामाजिकता के लिहाज से भी और आर्थिकी के लक्ष्य के हिसाब से भी। विभिन्न संस्कृति व भाषा वाले देश में किसी राज्य में त्योहार का स्वरूप व उसकी कथा अलग हो सकती है, लेकिन पर्व का मर्म जीवन में उल्लास भरना ही है। दरअसल, कृत्रिमता से लबरेज महानगरीय समाज में एकाकी होते जीवन में रंग भरने आते हैं त्योहार। इस मौके पर अपने मित्रों और रिश्तेदारों को हम दीपोत्सव की शुभकामनाएं व उपहार देते हैं। बहुत संभव है हम उनसे सालभर में एकाध बार ही मिले हों। भले ही त्योहार की औपचारिकताओं में ही सही, तमाम घरों में हम सब का आना-जाना होता है। इस बहाने हम एक-दूसरे के हालचाल पूछ लेते हैं। अन्य शब्दों में कहें तो दीवाली जैसे त्योहार हमारे समाज के सेफ्टीवॉल का ही काम करते हैं। दरअसल, पश्चिमी देशों व महानगरीय जीवन में तमाम मनोकायिक रोगों की जड़ हमारा समाज से विलग होना ही तो है। सरस व सहज संवाद का अभाव हमारे जीवन को एकाकी बनाता है। भले ही हम कितने ही मुगालते पाल लें, सरस-सहज सामाजिकता का विकल्प सोशल मीडिया कदापि नहीं हो सकता। निस्संदेह, जीवंत जीवन मधुर संबंधों से ही चलता है। आर्थिक संपन्नता हमारी सामाजिकता का विकल्प नहीं हो सकती। आम दिनों में समाज में मिलना-जुलना हमें सहज-सरल बनाता है। फिर हम खुद को हल्का महसूस करते हैं। जिससे कई तरह के मनोविकारों से भी हम बचते हैं। निस्संदेह, शरीर हो या समाज, गतिशीलता ही उसे जीवंत बनाये रखती है। जैसे नदी की गतिशील धारा खुद को निर्मल करती हुई आगे बढ़ती है।
विडंबना देखिए कि बदलते वक्त के साथ अमीरी के फूहड़ प्रदर्शन से हमने उजाले के पर्व में कृत्रिमताओं के अंधेरे लाद दिए हैं। इस त्योहार को हमने ऑफिस, बाजार-कारोबार व आर्थिक लक्ष्यों के चलते लेन-देन के संजाल में उलझा दिया है। त्योहार मनाने का यह तरीका कष्टकारी ही है और पर्व के मर्म से छल ही है। जिससे सहज-सरल लोग खुद को अलग-थलग महसूस करते हैं। त्योहार कोई भी हो समाज के हर अगड़े-पिछड़े वर्ग को साथ मिलकर मनाना उसका मकसद होता है। हम एक दीया ऐसा भी जलाएं जो किसी दूसरे के घर के अंधेरे को दूर करे। वे लोग जो विशुद्ध बाजारी स्पर्धा में पिछड़ गए हैं, जो प्राकृतिक आपदाओं से उजड़े हैं,जो किसी कमाऊ व्यक्ति के जाने से विपन्न हैं, जिनके अपने बिछुड़े हैं, ऐसे लोगों के जीवन में मदद का दीप जलाने में ही इस दीपोत्सव की सार्थकता होगी। त्योहार तभी व्यापक अर्थों में सार्थक होता है जब समता-ममता का दीया हर घर में जले। समाज में कोई गरीब नहीं होना चाहता, देश-काल व परिस्थितियां उसे विपन्न बनाती हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में मौलिक अधिकारों के साथ हमारे कुछ मौलिक दायित्व भी हैं। जो किसी दुखी व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कान ला सकें। बूंद-बूंद से सागर भरता है तो दीये की शृंखला ऐसे ही हमारे समाज के कई तरह के अंधेरे दूर कर सकती है। वहीं दूसरी ओर घरों व अस्पतालों में तमाम ऐसे बीमार लोग हैं, जिन्हें धमाकों के शोर और पटाखों के प्रदूषण से कष्ट होता है। उन लोगों की भी सोचें जो सांस व लंग्स आदि की बीमारियों से जूझ रहे हैं। हमें अपने पर्यावरण व जीव-जंतुओं की भी फिक्र होनी चाहिए। तेज पटाखों से हमारे अंग-संग रहने वाले जानवर-पक्षी बदहवास नजर आते हैं। इस दुनिया में जितना अधिकार हमारा है उतना ही अन्य जीवों का भी है। वैसे भी खुशी का पटाखे से कोई सीधा रिश्ता भी तो नहीं है, खुशी तो हमारी मनोदशा पर निर्भर करती है।