मुख्य समाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाबहरियाणाआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकी रायफीचर
Advertisement

अनावश्यक टकराव

07:28 AM Nov 08, 2023 IST

हाल के वर्षों में देश के कई राज्यों में राज्य सरकारों व राज्यपालों के बीच गहरे टकराव के मामले प्रकाश में आए हैं। विडंबना यह है कि ये मामले उन राज्यों में सामने आए जहां गैर-राजग सरकारें कार्यरत हैं। महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक व तमिलनाडु के बाद हालिया विवाद पंजाब की आम आदमी पार्टी सरकार व पंजाब के राज्यपाल के बीच है। यह विवाद इतना बढ़ा कि मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। जिस पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि राज्यपालों को आत्मावलोकन करना चाहिए। जाहिर है विसंगतियों के हालात के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने इस गरिमामय संवैधानिक पद के अनुरूप गरिमामय टिप्पणी ही की है। कोर्ट का कहना है कि ऐसे मामले अदालत में पहुंचें उससे पहले राज्यपाल को मामले में कार्रवाई करनी चाहिए। पंजाब में लंबे समय से भगवंत मान सरकार व राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित के बीच कई मुद्दों को लेकर टकराव चला आ रहा था। दरअसल, राज्यपाल ने तीन धन विधेयकों को मंजूरी देने से मना कर दिया था। हालांकि, बाद में एक नवंबर को दो विधेयकों को मंजूरी दे दी थी। इससे पहले भी राज्यपाल ने पिछले महीने बुलाए गये पंजाब विधानसभा के सत्र को अवैध तक बता दिया था। इस मामले में शीर्ष अदालत में मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि राज्यपालों को मामला कोर्ट आने से पहले ही कार्रवाई करनी चाहिए। यह परिपाटी खत्म होनी चाहिए कि मामला सुप्रीम कोर्ट आने पर राज्यपाल कार्रवाई करेंगे। यही वजह है कि शीर्ष अदालत ने राज्यपालों को आत्मावलोकन की जरूरत बताते हुए नसीहत दी कि उन्हें पता होना चाहिए कि वे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधि नहीं हैं। जाहिर है कि कोर्ट का सीधा अभिप्राय: है कि माननीय कहे जाने वाले राज्यपाल पद की मर्यादा के अनुरूप ही व्यवहार करें। विडंबना ही है कि हाल के वर्षों में विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों में राज्यपाल केंद्र में सत्तारूढ़ दल के प्रतिनिधि के तौर पर काम करते देखे गए हैं।
निस्संदेह, यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिये विडंबना ही कही जाएगी कि राज्यपाल किसी राज्य सरकार के कार्यों में बाधा डालें व कैबिनेट के फैसलों को अनुमति देने में आनाकानी करें। राज्यपाल का काम किसी भी राज्य को किसी भी तरह के संवैधानिक संकट से ही बचाना होता है। वे राष्ट्रपति के प्रतिनिधि के रूप में संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप कार्य करने के लिये नियुक्त किये जाते हैं ताकि राज्य के विकास के कार्य सुचारू रूप से चलाए जा सकें। मगर यदि वे सरकार बनाने व गिराने के खेल में शामिल होंगे तो निश्चित रूप से राज्यपाल के पद को आंच आएगी। महाराष्ट्र में राजनीतिक विद्रूपताओं के चलते उत्पन्न अस्थिरता के दौर में राज्यपाल की भूमिका को लेकर तीखे सवाल उठे और मामला शीर्ष अदालत तक भी पहुंचा था। ऐसा ही टकराव पश्चिम बंगाल में ममता सरकार के शासन के दौरान भी नजर आया था। विडंबना यही है कि राज्यपाल के पद पर समाज के विद्वानों व प्रतिष्ठित व्यक्तियों को नियुक्त करने के बजाय रिटायर राजनेताओं को बैठाने का खेल दशकों से जारी है। इस खेल में भाजपा से लेकर कांग्रेस तक कभी पीछे नहीं रहे। जिसके चलते वे पद पर बैठते ही अपने पर ‘कृपा करने वाले दल’ की निष्ठाओं को निभाने के लिये संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण करने लगते हैं। फिर चुनी हुई सरकार से टकराव की खबरें सूचना माध्यमों में तैरने लगती हैं। निश्चित रूप से इस तरह की घटनाएं किसी भी लोकतंत्र के लिये शुभ संकेत नहीं कही जा सकतीं। वहीं दूसरी ओर पंजाब के राज्यपाल की ओर से शीर्ष अदालत में उपस्थित सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की दलील थी कि राज्यपाल ने उनके पास भेजे गए विधेयकों पर कार्रवाई की थी। साथ ही यह भी कि पंजाब सरकार द्वारा दायर याचिका एक अनावश्यक मुकदमा है। बहरहाल, राज्यों व केंद्र सरकारों के मध्य एक पुल का काम करने वाले राज्यपाल को राज्य के विकास को प्राथमिकता देनी चाहिए। साथ ही जनता द्वारा चुनी गई सरकार द्वारा उठाये गये कदमों को संबल देना चाहिए। भारतीय लोकतंत्र राज्यपालों से नीर-क्षीर विवेक के साथ दायित्व निभाने की अपेक्षा करता है।

Advertisement

Advertisement