विपक्ष से पहले कांग्रेस में एकता जरूरी
संसद के मानसून सत्र के दौरान और उसके बाद भी कांग्रेस के शीर्ष नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी विपक्षी एकता की कवायद करते नजर आये। विवादास्पद कृषि कानून और पेगासस जासूसी जैसे मुद्दों पर संसद में कामरोको प्रस्ताव के जरिये चर्चा पर अड़े राहुल के साथ संसद के अंदर और बाहर अन्य विपक्षी दल भी एकजुट नजर आये। हंगामे के कारण तय समय से दो दिन पहले ही समाप्त मानसून सत्र के बाद सोनिया गांधी द्वारा बुलायी गयी विपक्षी दलों की डिजिटल बैठक में भी सपा-बसपा के अलावा कमोबेश सभी विपक्षी दलों के नेता शामिल हुए। राहुल के इस्तीफे के बाद से अंतरिम अध्यक्ष के रूप में कांग्रेस का नेतृत्व संभाल रही सोनिया गांधी ने आह्वान किया कि वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए मोदी सरकार के विरुद्ध विपक्ष का एकजुट होना जरूरी है। मामला साझा हितों, अस्तित्व और भविष्य का है, इसलिए संभव है कि अगले लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी एकता कोई स्पष्ट आकार ले भी ले, लेकिन उससे पहले होने वाले राज्यों के विधानसभा चुनावों का क्या? यह भी कि विपक्षी एकता की कवायद में जुटी कांग्रेस में राज्य-दर-राज्य मुखर होती अंतर्कलह का क्या?
लगातार दूसरी बार वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के शर्मनाक प्रदर्शन के बाद राहुल गांधी ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने नेहरू-गांधी परिवार से बाहर किसी नेता को अध्यक्ष चुनने का सुझाव भी दिया था, पर हुआ क्या? राहुल की मान-मनौव्वल नाकाम रहने के बाद अंतत: सोनिया गांधी को ही वापस (इस बार अंतरिम अध्यक्ष के रूप में) कांग्रेस का नेतृत्व संभालना पड़ा। उस घटनाक्रम को लगभग दो साल बीत गये, लेकिन देश की सबसे पुरानी पार्टी अभी तक अपना विधिवत पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं चुन सकी। तर्क है कि कोरोना के चलते ऐसा नहीं हो पाया। जबकि इसी कोरोना काल में बिहार, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुड्डुचेरी में विधानसभा चुनाव हुए, जिनमें कांग्रेस ने भी भाग लिया। बेशक सभाओं और रोड शो में भारी भीड़ जुटी। चुनाव प्रचार में राजनीतिक दलों-नेताओं ने कोरोना प्रोटाेकॉल का पालन नहीं किया, जिसकी देश-समाज को भारी कीमत चुकानी पड़ी। सवाल है कि क्या कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में आम चुनाव से भी ज्यादा भीड़ जुटेगी कि कोरोना प्रोटोकॉल का पालन संभव न हो पाये?
जाहिर है, कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव न हो पाने का असली सच कुछ और है? दरअसल इस बीच जी-23 के संबोधन से चर्चित कांग्रेस के ही 23 वरिष्ठ नेताओं ने आलाकमान की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। सभी जानते हैं कि पिछले कई दशक से कांग्रेस चुनाव के बजाय मनोनयन-नियुक्ति की व्यवस्था से चल रही है। बेशक कांग्रेस की वर्तमान कमजोरी में इस मनोनयन-नियुक्ति परंपरा से पनपी चाटुकार संस्कृति की बड़ी भूमिका है, पर अब अचानक पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र के लिए चिंतित जी-23 के ज्यादातर नेता भी तो इसी परंपरा-संस्कृति की देन हैं। अब जबकि कांग्रेस अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है और शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर पीढ़ी परिवर्तन का असर हर स्तर पर पड़ना स्वाभाविक होगा, स्थापित नेता अपने भविष्य को लेकर आशंकित हैं और दबाव की राजनीति आजमा रहे हैं। पर इन सुनियोजित-प्रेरित आशंकाओं का निदान उन्हें अनसुना या खारिज कर देना भी नहीं है। हर संगठन में पीढ़ीगत नेतृत्व परिवर्तन का समय आता है। देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल के रूप में कांग्रेस से अपेक्षा थी कि वह सौहार्दपूर्वक इस परिवर्तन को अंजाम देकर परिपक्वता की कसौटी पर खरा उतरती। आलाकमान की इस नाकामी का भी यह परिणाम है कि राज्य-दर-राज्य कांग्रेस में गुटबाजी टकराव की सीमा तक मुखर हो रही है और कई संभावनाशील नेता पार्टी को अलविदा कह रहे हैं।
विश्वास कर पाना मुश्किल है कि किसी दल का चुनाव प्रभारी, राज्य में विधानसभा चुनाव संपन्न होते ही दल को अलविदा कह दे। पर कांग्रेस के साथ ऐसा हुआ, जब पश्चिम बंगाल में चुनाव संपन्न होते ही जितिन प्रसाद ने कांग्रेस का हाथ छोड़ कर कमल थाम लिया। उत्तर प्रदेश में शाहजहांपुर के पूर्व राजपरिवार के इस युवा सदस्य की गिनती कभी राहुल गांधी की टीम के प्रमुख सदस्य के रूप में होती थी, जबकि उनके पिता जितेंद्र प्रसाद पी. वी. नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्रित्वकाल में उनके राजनीतिक सचिव रहे। जितिन को मनमोहन सिंह के दूसरे प्रधानमंत्रित्चकाल के उत्तरार्ध में ज्योतिरादित्य सिंधिया, आर. पी. एन. सिंह और सचिन पायलट के साथ केंद्र में राज्य मंत्री भी बनाया गया। सिंधिया के बाद जितिन, राहुल की टीम के दूसरे प्रमुख सदस्य रहे, जिन्होंने कांग्रेस छोड़ भाजपा को अपनाया। इससे कांग्रेस में, खासकर युवा नेताओं में व्याप्त हताशा का अंदाजा लगाया जा सकता है। महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुष्मिता देव का पार्टी छोड़ कर तृणमूल कांग्रेस में शामिल होना भी सामान्य घटना नहीं है। वह असम के बड़े राजनीतिक परिवार से आती हैं। पर ऐसे संभावनाशील युवा नेताओं के कांग्रेस से मोहभंग पर भी आलाकमान चिंतित और सक्रिय नजर नहीं आया, जिससे पार्टी कार्यकताओं के साथ ही जनता में भी अच्छा संकेत नहीं गया है।
दरअसल बदलते राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस से ज्यादा उसके आलाकमान की विश्वसनीयता और प्रासंगिकता कसौटी पर है। मध्य प्रदेश में सिंधिया के गिले-शिकवे खुले दिलो-दिमाग से न सुनने वाले और राजस्थान में सचिन पायलट की भूमिका स्पष्टत: रेखांकित न कर पाने वाले आलाकमान ने जिस तरह छह माह में विधानसभा चुनाव में जा रहे पंजाब में प्रदेश अध्यक्ष बदल कर अपनी ही राज्य सरकार को अंतर्कलह में धकेल दिया है, वह चौंकाने वाला है। शिरोमणि अकाली दल-भाजपा गठबंधन के 10 साल के शासन के बाद पंजाब में कांग्रेस की सत्ता में वापसी में अगर किसी एक नेता का सबसे ज्यादा योगदान था, तो वह मौजूदा मुख्यमंत्री कैप्टन अमरेंद्र सिंह हैं। प्रभारी महासचिव हरीश रावत के बयान से भी साफ है कि अगले साल के शुरू में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए भी कांग्रेस के पास कैप्टन से बेहतर दूसरा चेहरा नहीं है। फिर उन्हें विश्वास में लिये बिना क्रिकेटर से राजनेता बने और भाजपा से कांग्रेस में आये नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने का क्या मंतव्य है? सिद्धू शानदार बल्लेबाज रहे हैं। अच्छे क्रिकेट कमेंटेटर और चर्चित कॉमेडी शो के लोकप्रिय किरदार भी रहे हैं, लेकिन राजनीति गंभीर जिम्मेदारी-जवाबदेही वाला काम है। सिद्धू पंजाब में कांग्रेस के भविष्य का चेहरा हो सकते हैं, लेकिन चुनाव से छह महीने पहले उन्हें समानांतर सत्ता केंद्र बना कर अपने ही मुख्यमंत्री के खिलाफ बगावत का मौका देना तो आत्मघाती राजनीति ही साबित होगी। अपने सलाहकारों की आपत्तिजनक टिप्पणियों के बाद खुद सिद्धू ने डमी प्रदेश अध्यक्ष न होने संबंधी टिप्पणी से आलाकमान पर ही कटाक्ष करते हुए अपने आलोचकों की आशंकाओं को सही साबित कर दिया है। वैसे मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष, दोनों शीर्ष पद एक ही समुदाय को दे देना राजनीतिक रूप से भी समझदारी तो हरगिज नहीं नजर आती।
छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी कांग्रेस में सब कुछ ठीक कहां चल रहा है? गठबंधन सरकारों में मुख्यमंत्री पद की अदला-बदली अक्सर सुनी जाती रही है, लेकिन छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार के बारे में वरिष्ठ मंत्री टी. एस. सिंहदेव का यह खुलासा चौंकाने वाला है कि खुद राहुल गांधी द्वारा की गयी व्यवस्था के मुताबिक भूपेश बघेल ढाई साल के लिए ही मुख्यमंत्री बनाये गये थे, अब उनकी बारी है। अगर वाकई ऐसा कोई वायदा किया गया था तब तो जून में ही यह सत्ता परिवर्तन हो जाना चाहिए था। ध्यान रहे कि मध्य प्रदेश और राजस्थान अंतर्कलह के संदर्भ में भी कांग्रेस आलाकमान की वायदा खिलाफी की ओर इशारा किया जाता रहा है। जाहिर है, इससे आलाकमान की साख बढ़ती तो हरगिज नहीं। अगर किसी भी नेता से कोई वायदा किया गया था तो उसे पूरा किया जाना चाहिए अथवा आलाकमान को अंतर्कलह ग्रस्त कांग्रेस को खंड-खंड होने से बचाने के लिए सहयोग-समन्वय का सख्त संदेश नेताओं-कार्यकर्ताओं को देना चाहिए। कांग्रेस की बदहाली का आलम यह है कि बसपा सुप्रीमो मायावती भी उसे नसीहतें दे रही है कि कांग्रेस पहले अपना घर संभाले।
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