समान संहिता से धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को मजबूती
डॉ. भारत
संपूर्ण संप्रभुता-संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक, गणराज्य भारत के संविधान के अंतर्गत भाग-IV में ‘समान नागरिक संहिता’ अनुच्छेद-44 के माध्यम से राज्य के नीति-निर्देशक तत्वों में वर्णित है। इसमें कहा गया है कि ‘राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।’ यहां यह ध्यान देना दिलचस्प है कि इसी संविधान के अनुच्छेद-37 में यह परिभाषित है कि राज्य के नीति निर्देशक तत्व सम्बन्धी प्रावधानों को किसी भी न्यायालय द्वारा प्रवर्तित नहीं किया जा सकता है, लेकिन इसमें निहित सिद्धांत शासन व्यवस्था में मौलिक प्रकृति के होंगे। ‘समान नागरिक संहिता’ से देश के प्रत्येक नागरिक के लिए एक समान कानून होता है, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या समुदाय से क्यों न हो। वर्तमान में मुसलमानों, ईसाइयों और पारसियों के लिए अपने अलग-अलग व्यक्तिगत नियम हैं जबकि हिंदू दीवानी कानून के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध आते हैं।
भारत में सामयिक प्रचलित व्यवस्था के विपरीत, ‘समान नागरिक संहिता’ इस विचार पर आधारित है कि सभ्य समाज में धर्म और व्यक्तिगत कानून के बीच कोई संबंध नहीं होता है तथा इसमें विवाह, तलाक, रखरखाव/भरण-पोषण, बच्चों को गोद लेने, संरक्षकता-विरासत, और संपत्ति के बंटवारे/उत्तराधिकार जैसे सभी विषयों को धर्मों-जातियों-समुदायों के लिए समान रूप से लागू किया जाता है। भारत में समान नागरिक संहिता वाले ‘गोवा’ राज्य के अलावा वर्तमान में अधिकांश भारतीय कानून जैसे भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872; साक्ष्य अधिनियम, 1872; संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882; नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1908; माल-विक्रय अधिनियम, 1930; भागीदारी अधिनियम, 1932; दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 आदि पुरे भारतवर्ष में सम्पूर्ण एकरूपता से लागू किये जाते हैं।
नागरिक कानूनों में भी समरूपता लाने के लिए अलग-अलग समय पर न्यायपालिका ने अक्सर अपने निर्णयों में पुरजोर आवाज उठाई है कि सरकार को समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने की दिशा में प्रयास करना चाहिए। इस संदर्भ में ‘शाह बानो’ मामले में दिया गया 1985 का निर्णय सर्वविदित है, तथा 1995 का ‘सरला मुद्गल’ वाद व 2017 का ‘शायरा बानो’ मामले भी इस संबंध में काफी चर्चित हैं।
अब प्रश्न उठता है कि जिस देश में सदियों से ‘अनेकता में एकता’ के नारे लगते आ रहे हों तो फिर व्यक्तिगत कानूनों में एकरूपता से आपत्ति क्यों? धर्मनिरपेक्ष-गणराज्य में धार्मिक प्रथाओं के आधार पर विभेदित नियम क्यों? एक संविधान वाले इस देश में लोगों के निजी मामलों में भी एक कानून क्यों नहीं है? क्या धार्मिक प्रथाओं का संवैधानिक संरक्षण मौलिक अधिकारों के अनुरूप नहीं होना चाहिए? एकरूपता से देश में राष्ट्रवादी भावना को बल देने में आपत्ति क्यों? व्यक्तिगत कानूनों में मौजूद लैंगिक पक्षपात का पक्षधर कौन। क्या भारतवर्ष में ‘एक पत्नी – एक विधान’ का नारा, सपना ही बनकर रह जायेगा?
जहां एक तरफ अल्पसंख्यक समुदाय नागरिक संहिता को संविधान के अनुच्छेद-25 का हनन मानते हैं, वहीं दूसरी तरफ बहुसंख्यक समान नागरिक संहिता की कमी को अनुच्छेद-14 का अपमान मानते हैं। ध्यानाकर्षण बात यह है कि अनुच्छेद-25 किसी भी धर्म को मानने और प्रचार की स्वतंत्रता को संरक्षित करता है, वहीं अनुच्छेद-14 निहित समानता की अवधारणा को संरक्षित करता है। समय की नज़ाकत है कि समान नागरिक संहिता की नाजुकता केवल सांप्रदायिकता की राजनीति के संदर्भ में नहीं की जानी चाहिए। सभी व्यक्तिगत कानूनों में से प्रत्येक में पूर्वाग्रह और रूढ़िवादी पहलुओं को रेखांकित कर मौलिक अधिकारों के आधार पर उनका परीक्षण किया जाना चाहिए। धार्मिक रूढ़िवादी दृष्टिकोण के बजाय समान नागरिक संहिता को चरणबद्ध तरीके से लोकहित के रूप में स्थापित किया जाना अपेक्षित भी है और आवश्यक भी। इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि सभी व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध किया जाना प्रयोजनीय है, और यह प्रक्रिया न्यायिक प्रणाली को अत्यधिक सरल-सहज और प्रत्यक्ष-पर्याप्त बनाने में मील का पत्थर साबित होगी।
भारत जैसे विविधतापूर्ण विकासशील देश में जहां विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं, सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए और धर्मनिरपेक्ष-गणराज्य भारत की अपरिहार्यता है कि धार्मिक स्थलों/आयोजनों के सरकारी प्रायोजन/विनियमन को संविधान में वर्जित किया जाना चाहिए। न्यायाधीश ऋतुराज अवस्थी के कुशल नेतृत्व में बाइसवें भारतीय विधि आयोग द्वारा सार्वजनिक सूचना के माध्यम से बड़े पैमाने पर जनता और मान्यताप्राप्त धार्मिक संगठनों से विचारों को आमंत्रित करने की पहल उल्लेखनीय होने के साथ-साथ प्रशंसनीय भी है। समान नागरिक संहिता से देश में विभिन्न धर्मों के लोगों में धार्मिक मतभेदों को कम करने में मदद मिलेगी, कमजोर वर्गों को सुरक्षा मिलेगी, कानून सरल होंगे और धर्मनिरपेक्षता के आदर्श का पालन करते हुए लैंगिक न्याय सुनिश्चित होगा। परन्तु सरकार को लोगों, विशेषकर अल्पसंख्यकों की आशंकाओं को दूर करना होगा और उन्हें आश्वस्त करना होगा कि उनके अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जाएगा। इसी संदर्भ में लोकतांत्रिक व्यवस्था में चौथे स्तंभ के दायित्व को सकारात्मक रूप से निभाते हुए मीडिया की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि मीडिया राष्ट्र का संसाधन होता है और उसकी विश्वसनीयता जनता के सरोकारों और जनविश्वास पर ही टिकी होती है। मीडिया को भारतीय विधि आयोग की सार्वजनिक सूचना के बारे में बड़े पैमाने पर जनता को जागरूक करना चाहिए। साथ ही स्वतंत्र रूप से स्वस्थ बहस चलानी चाहिए ताकि परिपक्व लोकतंत्र में जनभागीदारी को सुनिश्चित किया जा सके।
‘नियम संहिता एक समान हो, समता का सबको गुमान हो, हर मजहब का मान रहे पर, पहला मजहब संविधान हो!’
अंततोगत्वा भारत जैसे विविधतापूर्ण, विकासशील, विशालकाय देश में समान नागरिक संहिता का कार्यान्वयन ‘समय की मांग’ ही नहीं अपितु ‘संविधान का मान’ भी है, और जो अनुच्छेद इतने वर्षों से एक मृत-पत्र बना हुआ है उसे लागू करने का अब उचित अवसर आ गया है। निःसंदेह, यह सरकार और प्रत्येक हितधारक के लिए एक चुनौतीपूर्ण कार्य होगा, परन्तु महत्वपूर्ण बात यह है कि लोगों को इसमें योगदान देना चाहिए और इसके बारे में अपने बहुमूल्य सुझाव प्रदान कर राष्ट्रव्यापी यज्ञ में अपनी पुण्य आहुति प्रदान करनी चाहिए ताकि संविधान सर्वोपरि सिद्ध हो सके।
लेखक पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ में कानून के प्रवक्ता हैं।