चाचा-भतीजे और इतिहास के नतीजे
आलोक पुराणिक
महाराष्ट्र के बड़े नेता अजित पवार भाजपा-शिवसेना सरकार की तरफ जा चुके हैं। चाचा उधर रह गये, भतीजे इधर आ गये। राजनीति कारोबार है, इधर से उधर चलता रहता है। ब्रांडों के लिए भी ऐसा होता है। जो ब्रांड आज उस कंपनी का होता है, वह कल प्रतिस्पर्धी कंपनी का हो सकता है। अजित पवार कल तक जिस सरकार को कोस रहे थे, आज वह उस सरकार के मंत्री हो जाते हैं। इसे बेशरमी नहीं रणनीति कहा जाता है। वैसे बेशरमी अपने आप में बड़ी रणनीति है।
दरअसल, जो ब्रांड बदलता नहीं है, वह खत्म हो जाता है, ब्रांडों का इतिहास यह बताता है। नोकिया सुपर क्लास टाप ब्रांड था करीब तीन दशक पहले, अब कहीं नहीं दिखता। ब्रांड या नेता अगर बदलता नहीं है, तो खत्म हो जाता है। अजित पवार डायनामिक ब्रांड की तरह से बदल रहे हैं, इसलिए सुपर नेता हैं। भाजपा के साथ उप-मुख्यमंत्री थे, फिर शिवसेना सरकार के साथ भी टॉप पोजीशन में रहे, अब शिवसेना सरकार की विरोधी भाजपा सरकार में भी सरकार महाराष्ट्र उपमुख्यमंत्री हो लिये।
हर शोरूम में फिट होने वाला ब्रांड कामयाब हो जाता है। अजित पवार कांग्रेस से लेकर शिवसेना से लेकर भाजपा तक सब जगह फिट हो लेते हैं। जो फिट नहीं हुए, वह इतिहास के कबाड़ में हैं। पर स्मार्ट ब्रांड वह होता है, जो यह जानता है कि बदलने के बाद जमने की क्षमता है या नहीं। संजय राऊत ब्रांड बदलवाकर उद्धव ठाकरे को दूसरी तरफ ले गये थे, वहां जम नहीं पाये। तो हर ब्रांड इधर से उधर जाकर कामयाब ही होता, तो फिर संजय राऊत और उद्धव ठाकरे को बेरोजगार नहीं होना चाहिए था।
मार्केटिंग का पहला नियम यह है कि बाजार डायनामिक है, हालात बहुत तेजी से बदलते हैं। अगर बदले हुए हालात को भांपने का हुनर नहीं है, तो देर-सवेर ब्रांड को गायब होना ही होता है। भारतीय पॉलिटिक्स और कारोबार में सबसे ज्यादा खतरा करीबी रिश्तेदारों से ही होता है। कई टॉप क्लास कारोबारों के परिवारों में आपस में झगड़े ऐसे हुए कि एक ही ब्रांड पर कई लोगों ने दावा कर दिया है। राजनीति में भी ऐसा होता है कि पार्टी के चुनाव चिन्ह पर सब दावा कर देते हैं कि चुनाव चिन्ह उन्हीं का है। एक ही ब्रांड पर लड़ते-भिड़ते एक ही परिवार के लोग उसी ब्रांड को ऐसे बांट लेते हैं कि उस ब्रांड से मिलते-जुलते ब्रांड एक ही परिवार से आ जाते हैं।
इतिहास बताता है कि अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा जलालुद्दीन खिलजी को मारकर सत्ता हथिया ली थी। पहले के भतीजे क्रूर होते थे, चाचा को निपटा ही देते थे। अब जमाना बदल गया है। अब भतीजे सिर्फ सरकार छीन लेते हैं या चाचा के खिलाफ जाकर किसी और सरकार को ज्वाइन कर लेते हैं।
इससे हमें समझना चाहिए कि पॉलिटिक्स और कारोबार में इतिहास खुद को सिर्फ दोहराता ही नहीं है, बल्कि बार-बार दोहराता है।