सच्चा स्वयंसेवक
उन दिनों दिल्ली में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का अधिवेशन चल रहा था। चारों ओर काफी चहल-पहल थी। साहित्यिक महारथी साफ-सुथरे व चमकदार कपड़ों में अपनी साहित्यिक गतिविधियों में लगे थे। वे लोग स्वयंसेवकों को बुरा-भला कहते और व्यवस्था में खामियां निकालते हुए इधर-उधर घूम रहे थे। कुछ ही देर में इन साहित्यकारों की शोभायात्रा निकलने वाली था, जिसकी तैयारी जोर-शोर से हो रही थी। ऐसे समय सभी अध्यक्ष राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन को खोज रहे थे। जुलूस का समय हो रहा था और वे अब तक नहीं आए थे। कुछ साहित्यिक महारथी दौड़कर राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के निवास स्थान पर पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि राजर्षि अपने खादी के वस्त्र धो रहे हैं। एक सज्जन बोल उठे, ‘बाबूजी, प्रतिनिधियों के कपड़े धोने के लिए धोबी की व्यवस्था है। आप स्वयं यह मामूली काम क्यों कर रहे हैं? उधर जुलूस में भी विलंब हो रहा है।’ राजर्षि ने सहजता से उत्तर दिया, ‘क्या मेरे बिना जुलूस नहीं निकल सकता? और हां, जिसे तुम मामूली काम कह रहे हो, वह मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। मैं स्वयंसेवक हूं और दूसरों की सेवा लेकर जुलूस का स्वांग बनाने की अपेक्षा नियत समय पर अपना काम करना अधिक आवश्यक मानता हूं। सच्चा स्वयंसेवक सेवा लेता नहीं है, बल्कि सेवा देता है।’
प्रस्तुति : अंजु अग्निहोत्री