तिरंगे को वर्तमान स्वरूप तक पहुंचने में लगे थे 41 साल
योगेश कुमार गोयल
विश्व में प्रत्येक राष्ट्र का अपना राष्ट्रीय ध्वज है। हमारा राष्ट्रीय ध्वज ‘तिरंगा’ अन्य देशों के ध्वजों के मुकाबले अनेक विशेषताएं धारण किए हुए है। हमारा राष्ट्रीय ध्वज न केवल राष्ट्र की एकता, अखंडता, गरिमा, गौरव, शक्ति, आदर्श और आकांक्षाओं का प्रतीक है, बल्कि समूचे विश्व को त्याग की भावना एवं शाति का संदेश भी देता है। यह हमारी स्वतंत्रता का भी प्रतीक है, क्योंकि आजादी की लड़ाई में क्रांतिकारियों को एकजुट करने में इसकी बहुत अहम भूमिका रही। तिरंगे ने ही भारतवासियों को एकता और भाईचारे का संदेश देकर उन्हें एक सूत्र में पिरोकर अंग्रेजों से लोहा लेने को प्रेरित किया था। तब क्रांतिकारियों के लिए राष्ट्र ध्वज का सम्मान अपने प्राणों से भी बढ़कर था, इसीलिए अंग्रेजों की लाठियां व गोलियां खाते हुए भी उन्होंने इसे कभी झुकने नहीं दिया।
तीन रंगों की पट्टियों वाले राष्ट्रीय ध्वज की सबसे ऊपर की केसरिया रंग की पट्टी त्याग, बल और पौरूष की प्रतीक है, जबकि बीच वाली सफेद पट्टी शांति और सत्य की प्रतीक है और सबसे नीचे की हरे रंग की पट्टी हरियाली, समृद्धि एवं सम्पन्नता की प्रतीक है। झंडे के बीचों-बीच सफेद पट्टी में स्थित गहरे नीले रंग का अशोक चक्र आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। 24 तीलियों वाला अशोक चक्र देश की प्रगति, राष्ट्र के कानून और धर्म के पहिये का प्रतीक है।
डाॅ. सर्वपल्ली राधकृष्णन के शब्दों में कहें तो जो लोग इस ध्वज के नीचे कार्य करेंगे, उन्हें सत्य और सदाचार के सिद्धांतों का पालन करना होगा। राष्ट्र ध्वज के नीचे कार्य करने वालों से उनका तात्पर्य सरकारों और नौकरशाहों से था। राष्ट्र कोकिला सरोजिनी नायडू ने भी राष्ट्र ध्वज की महत्ता का उल्लेख करते हुए संविधान सभा में 22 जुलाई 1947 को कहा था कि नये भारत के सभी नागरिकों को इस राष्ट्र ध्वज को प्रणाम करना होगा और इसके नीचे कोई छोटा-बड़ा नहीं होगा।
1906 : राष्ट्र ध्वज का सफर 7 अगस्त 1906 को आरंभ हुआ था। हरे, पीले और लाल रंग की तीन पट्टियों से बना यह ध्वज कलकत्ता के पारसी बागान में फहराया गया था। उस ध्वज पर ऊपर की हरी पट्टी पर एक ही पंक्ति में सफेद रंग के आठ कमल अंकित थे, जबकि बीच वाली पीली पट्टी पर देवनागरी में गहरे नीले रंग से वंदेमातरम् लिखा था और नीचे की लाल पट्टी पर बायीं ओर एक सफेद सूर्य और दायीं ओर एक-एक सफेद चन्द्रमा और तारा अंकित थे। ‘भारत का झंडा’ नामक यह ध्वज हालांकि देश के सभी धर्मों, सम्प्रदायों और साम्प्रदायिक सद्भावना को मद्देनजर रखते हुए तैयार किया गया था, लेकिन यह सर्वमान्य नहीं हो पाया।
1917 : डाॅ. एनी बेसेंट और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक द्वारा 1917 में ‘होमरूल आंदोलन’ चलाया गया था। उस समय एक नया राष्ट्रीय ध्वज तैयार किया गया, जिसमें लाल और हरे रंग की एक के बाद एक कुल 9 समानान्तर और तिरछी पट्टियां थी। उस ध्वज के बीचों-बीच 7 तारे थे और एक कोने में चांद व तारा अंकित थे, जबकि उसके ऊपरी बायें कोने में ‘यूनियन जैक’ का चित्र (झंडे का चौथाई भाग) बनाया गया था। झंडे में यूनियन जैक के इस चित्र को सम्मिलित किए जाने के कारण ही यह अधिकांश लोगों द्वारा नापसंद कर दिया गया, क्योंकि इस चित्र को राष्ट्रीय ध्वज में स्थान देने का अर्थ यही माना गया कि भारतीय समाज की ब्रिटिश सम्प्रभुत्ता के प्रति स्वीकृति है। तब एक ऐसे ध्वज की आवश्यकता महसूस की गई, जो प्रत्येक धर्म, सम्प्रदाय और विचारधाराओं के लोगों का प्रतिनिधित्व करने के साथ देशवासियों के लिए जीवन-मरण का प्रतीक भी बन सके।
1921 : विजयवाड़ा में कांग्रेस के अधिवेशन में पिंग्ले वेक अथ्या नामक एक क्रांतिकारी युवक ने महात्मा गांधी को एक ऐसा ध्वज भेंट किया, जिसमें लाल व हरे रंग की केवल दो पट्टियां थी, लेकिन पंजाब के एक बुजुर्ग नेता रायजादा पंडित हंसराज ने गांधी जी को सुझाव दिया कि इस ध्वज में चरखे को भी अंकित किया जाए और तब गांधी जी ने यह सुझाव स्वीकारते हुए हिन्दुओं के लिए केसरिया रंग, मुस्लिमों के लिए हरा रंग तथा अन्य सम्प्रदायों के लिए ध्वज में सफेद रंग को भी शामिल किया। 31 दिसंबर 1929 को रावी नदी के तट पर इसी तिरंगे को फहराते हुए पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की गई थी।
1931 : बहुत से लोगों को राष्ट्रीय ध्वज को जातियों व धर्म-सम्प्रदाय से जोड़ना उचित नहीं लगा, अतः 1931 में राष्ट्रीय ध्वज के स्वरूप के निर्धारण के लिए कराची कांग्रेस ने 7 व्यक्तियों की एक समिति बनाई और समिति ने एक ही रंग (केसरिया) के ध्वज में नीचे बायीं ओर लाल रंग के चरखे का चिन्ह अंकित करने का सुझाव दिया, जिसे अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने अस्वीकार कर दिया। तत्पश्चात् पं. जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की एक बैठक हुई और तिरंगे ध्वज को ही बीच की सफेद पट्टी में चरखे सहित मान्यता प्रदान की गई। उस निर्णय को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया, लेकिन इसमें सबसे अहम बात यह रही कि तीनों पट्टियों के रंगों को धर्म-सम्प्रदायों से न जोड़कर उनके गुणों के आधार पर ही स्वीकार किया गया। इस ध्वज का आकार लम्बाई और चौड़ाई में 3:2 रखा गया।
1947 : स्वतंत्रता प्राप्ति के चंद दिनों पहले जब भारत के सम्मान और स्वाभिमान के प्रतीक स्वरूप स्वतंत्र भारत के लिए राष्ट्रीय ध्वज की चर्चा चली तो 1931 में सर्वसम्मति से स्वीकार किए गए ध्वज को ही पुनः राष्ट्र ध्वज के रूप में स्वीकार किया गया, लेकिन 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा की एक बैठक में पं. नेहरू ने चरखे के स्थान पर इसमें देश की प्रगति, राष्ट्र के कानून और धर्म के पहिये के प्रतीक 24 तीलियों वाले अशोक चक्र को रखने का सुझाव दिया। संविधान सभा के सभी सदस्य इस सुझाव से सहमत हो गए और उसी दिन से राष्ट्रीय ध्वज को नये रूप में स्वीकार लिया गया। इस प्रकार हमारे राष्ट्रीय ध्वज को वर्तमान स्वरूप तक पहुंचने के लिए करीब 41 वर्षों का बहुत लंबा सफर तय करना पड़ा।
अमर हो गया झंडा गीत...
1924 में आजादी के लिए संघर्षरत श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ ने झंडा गीत ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा’ की रचना की और महात्मा गांधी ने उस गीत के दूसरे और तीसरे भाग को हटाकर उसे ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। वह गीत पहली बार कानपुर में 1925 में कांग्रेस सम्मेलन में सामूहिक रूप से गाया गया। बाद में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भी इसे एक लाख लोगों के साथ गाया और देखते ही देखते यह गीत क्रांतिकारियों का सबसे लोकप्रिय गीत बन गया। चाहे कांग्रेस का कोई सम्मेलन हो, कोई प्रभात फेरी हो अथवा क्रांतिकारियों का कोई आंदोलन, ऐसे हर अवसर पर यही झंडा गीत बड़े ही जोशीले अंदाज में गाया जाने लगा।