स्वाद का उपचार
मोहन राजेश
डॉक्टर ने रिपोर्ट देखते ही दवाओं का एक लम्बा पर्चा थमाते हुए कहा, ‘ब्लड प्रेशर हाई है, नमक छोड़ना पड़ेगा। शुगर भी है, चीनी बिल्कुल नहीं लेनी है, चाय भी फीकी पिएं। कोलेस्ट्रॉल बढ़ा हुआ है, घी-तेल, चिकनाई और डेयरी प्रॉडक्ट नहीं खा सकते। मीठे फलों से भी परहेज करना होगा।’
अब दादाजी को आधा दर्जन टेबलेट्स के साथ नाममात्र के मसाले वाली उबली हुई दाल और नमक रहित दलिया परोसा जाने लगा।
मिठाई तो दूर चाय भी फीकी मिलने लगी, वह भी बिना दूध की। बहूरानी डॉक्टर की एक-एक हिदायत का मुस्तैदी से अक्षरशः पालन कर रही थी।
दादाजी के लिए यह सब खाना तो दूर, निगलना तक दुश्वार हो चला था। उन्होंने चाय पीना ही बंद कर दिया तो बेटा मोरपेन की जीरो शुगर टेबलेट भी ले आया पर दादाजी को टेस्ट नहीं आया।
एक सप्ताह में ही दादाजी की हालत ऐसी हो गई कि लगने लगा कि वे शीघ्र ही परलोकगामी हो जाएंगे।
दादाजी की यह दारुण दशा दादी से देखी न गयी। उन्होंने विद्रोह कर दिया और अपने हाथ से बनाकर दाल का हलवा, घी में चकाचक रोटियां और मसालेदार सब्जियां दादाजी की थाली में परोस दी। शाम को चिंटू को बाजार भेजकर लच्छू के यहां से रबड़ी भी मंगवा दी।
दादी के हाथ की यह खुराक पेट में जाते ही दादाजी का कायाकल्प हो गया। उन्होंने जमकर खाया और छड़ी उठाकर बाहर टहलने निकल पड़े।
‘जब मरना ही है तो खा-पी कर क्यों नहीं मरें, आत्मा अतृप्त रह गई तो भटकती रहेगी।’
दादा-दादी का यह फ़लसफ़ा बेटे-बहू की समझ से परे था।