यात्रा कुप्रबंधन व जंगलों में आग की त्रासदी
रश्मि सहगल
उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व वाली सरकार सूबे को दरपेश एक के बाद एक आपदाओं से सही ढंग से निपटने में सफल नहीं रही है। इसका नवीनतम उदाहरण है व्यापार-धंधे में खासी कमाई करवाने वाली प्रतिष्ठित चार धाम यात्रा, जिसके इंतजामों में भारी कोताही हुई है। इस वर्ष यात्रा की विधिवत शुरुआत 10 मई को हुई और अगले 10 दिनों के भीतर, प्रबंधों में कमी के कारण 45 से अधिक श्रद्धालु यात्रियों की मौत हुई और अनेकानेक जख्मी हुए।
वर्ष 2023 की यात्रा में भी 200 से अधिक श्रद्धालु ऊंचाई से संबंधित स्वास्थ्य समस्या या भूस्खलन या अन्य कारणों से मारे गए थे। प्रशासन के पास 2024 की यात्रा की तैयारियों के लिए छह महीने से अधिक का समय हाथ में था क्योंकि अमूमन नवम्बर के पहले सप्ताह में चारों धामों के द्वार बंद कर दिए जाते हैं। इस अवधि का उपयोग मूलभूत सुरक्षा उपायों को मजबूत करने जैसे कि धामों तक जाती पगडंडियों को चौड़ा करने, प्राथमिक स्वास्थ्य उपचार सुविधा की उपलब्धता सुनिश्चित करने और ट्रैफिक के सुचारु रूप से चलते रहने की कार्ययोजना बनाना इत्यादि में किया जाना चाहिए था।
इसकी बजाय यमुनोत्री धाम में पहले ही दिन, जहां पर एक दिन में अधिक से अधिक 4500 लोगों को दर्शन करवाने की समर्था है, वहां लगभग 45000 पर्यटक दर्शनाभिलाषी तंग पगडंडियों पर दूर-दूर तक लगी लाइनों में खड़े नजर आए। उनकी जिंदगी और मौत के बीच खड्ड के किनारे लगी बांस की कमजोर रेलिंग थी। एक भी गलत कदम का मतलब था सैकड़ों फीट गहराई में जा समाना। यमुनोत्री जाने वाले मार्ग पर 45 किमी से लंबा जाम लगा था और यात्रियों की शिकायत रही कि उन्हें दर्शन के लिए 10-12 घंटे का इंतजार करना पड़ा।
केदारनाथ का परिदृश्य भी अलग न था, वहां भी पहले दिन लगभग 80000 श्रद्धालु दर्शनों की चाह में पंक्ति में लगे थे। लेकिन मिली, भारी बर्फ और बारिश, तिस पर होटल वालों ने मुंहमांगे दाम मांगने शुरू किए जिसको चुकाना आम लोगों के बस में नहीं है। बद्रीनाथ में भी हालत इसी प्रकार बदतर रहे। तीखी ठंड में श्रद्धालु रात 2 बजे से ही दर्शनों के लिए पंक्ति में लगे थे। जब आखिर में मंदिर के कपाट खुले तो प्रथम तरजीह वीआईपी दर्शन को मिलने लगी। नाराज यात्री सरकार विरोधी नारे लगाते हुए प्रदर्शन करने को मजबूर हुए। सोशल मीडिया पर दूर तक लगी सर्पीली पंक्तियों और गुस्साए यात्रियों की वीडियो की बाढ़-सी आ गई। तुर्रा यह कि सरकार ने यात्रा को बदनाम करने के लिए ‘झूठी खबर’ फैलाने वालों के विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करने की धमकी दे डाली।
स्थानीय लोग भी सोशल मीडिया पर आकर प्रशासन से यात्रियों के प्रवाह को नियंत्रित करने और उत्तराखंड में दाखिल होने वाले वाहनों की संख्या पर लगाम लगाने की दुहाई देने लगे। दरअसल, वाहनों से कराधान कमाने का वर्तमान मॉडल उनके लिए पर्यावरण की नई चुनौतियां बना रहा है। पर्यावरण सुरक्षा के लिए कूड़ा निस्तारण भी एक बड़ी चुनौती बनकर उभरा है क्योंकि अधिकांश गंदगी हिमालय की ऊंचाई से शुरू होने वाली नदियों में डाली जा रही है।
चार धाम यात्रा से पहले सूबे भर के जंगलों में अभूतपूर्व संख्या में आग लगी है, जिनमें बहुत बड़े वनीय भूभाग में स्थानीय और ओक के पेड़ों के जंगल स्वाह हुए हैं। नवम्बर, 2023 से ही जंगल में आग लगने का सिलसिला शुरू हुआ था। पिछली सर्दियों में बारिश और बर्फ का कम गिरना और इस साल गर्मियों में लंबे समय के सूखे के कारण पौड़ी गढ़वाल से लेकर केदारनाथ और बद्रीनाथ घाटी तथा कुमाऊं की पहाड़ियों तक के लगभग हर वनीय अंचल में आग फैलती चली गई। इसमें नैनीताल, भवाली और हल्द्वानी का इलाका भी शामिल है। यहां तक कि भीमताल, सत्तल से लेकर नेपाल की सीमा पर स्थित मुनसियारी तक भी आग फैली। आग का धुआं इतना सघन था कि पिथौरागढ़ के नैनी-सैनी हवाई अड्डे से विमानन गतिविधियां रोकनी पड़ीं।
उपग्रह से प्राप्त तस्वीरें और भारतीय वन सर्वेक्षण द्वारा की गई तस्दीक के मुताबिक उत्तराखंड में कभी अत्यधिक सघन रहे वनीय भूभाग का लगभग 40 फीसदी भाग जलकर स्वाह हो चुका है। फिर भी राज्य सरकार सर्वोच्च न्यायालय को बता रही है कुल वनीय क्षेत्र का महज 0.1 प्रतिशत अंश ही प्रभावित हुआ है। यह तो जब आग नैनीताल पहुंचने लगी तो भारतीय वायु सेना से अग्निशमन के सहयोग करने के लिए गुहार लगानी पड़ी। तेलंगाना और कर्नाटक राज्यों आदि में चुनाव प्रचार करने में लगे मुख्यमंत्री धामी और वन मंत्री सुबोध उनियाल को तब वापसी करनी पड़ी जब सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य अधिकारियों को करारी फटकार लगाई।
दुखद है कि इन अग्नि दावानलों ने हजारों झरनों को सुखा डाला है, जो कि स्थानीय लोगों के पेयजल के एकमात्र स्रोत थे। एक वक्त बहुत खूबसूरत रहा यह सूबा फिलवक्त मानो ज़हरीली गैस के प्रकोष्ठ में बदल चुका है, जिससे लोगों की सेहत बिगड़ रही है। युवा और बुजुर्ग आंखों में जलन की शिकायतें लेकर अस्पतालों का रुख कर रहे हैं। उन लोगों को भर्ती करना पड़ रहा है जिन्हें सांस लेने में तकलीफ हो रही है।
इस गाथा की सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि इन अग्निकांडों को काबू करने का सारा भार पहले से स्टाफ और उपकरण का भारी टोटा झेलने वाले वन रक्षकों के कंधों पर डाल दिया है जो दिन में 10-12 घंटे इस काम में लगे हैं। आग बुझाने वाले यंत्र के नाम पर उनके हाथों में पेड़ों की डाली के सिरे पर पत्तियों के झुरमुट से बना चोब नुमा जुगाड़ है, जिसको आग पर पटककर उसे बुझाने का प्रयास करते हैं। जबकि आग है कि पहाड़ी ढलानों पर फुफकारती हुई तेजी से आसपास फैलती है। साथ ही रास्ते में पड़ने वाली हर चीज़ को लील जाती है।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन करते हुए राज्य सरकार ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय से नदियों के पुश्तों पर खनन करने की अनुमति किसी तरह जुगाड़ करके हासिल कर ली। मकसद था कि खोदकर निकाले गए खनिजों, रेत और पत्थरों से भारी मुनाफा कमाया जा सके। वन के नष्ट होने, अंधाधुंध खनन और प्रदूषण के कारण नदियां मर रही हैं। गर्मी के महीनों में वे सिकुड़कर नाला भर रह जाती हैं। लेकिन नदी के थालों में खोदी गई खनन खाइयां इतनी गहरी हैं कि उनमें गिरकर कई लोग मर चुके हैं।
पिछले साल फरवरी माह में, मुख्यमंत्री धामी, पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव से मिलने दिल्ली गए, ताकि कोसी, गुआला, सारदा और नन्दौर नदियों में अगले दस साल की अवधि वाला खनन अनुमति पत्र पा सकें। विद्रूपता यह कि यादव से भेंट के बाद उन्होंने सोशल मीडिया पर डाली पोस्ट में लिखा ‘डबल इंजन की सरकार के नेतृत्व में, हम क्षेत्र के विकास और समृद्धि के लिए सदा काम करते रहेंगे।’ दुर्भाग्यवश, उत्तराखंड को दोहरी मार पड़ रही है, एक है पर्यावरण में बदलाव की तो दूसरी अभूतपूर्व पर्यावरणीय विध्वंसक आपदाओं की।
लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।