प्यार की छुअन
तृप्ता के. सिंह
‘बाबा, रोटी खा ले।’ मैंने रोटी की थाली बाबा की चारपाई पर रख उसको जगाते हुए कहा।
‘रोटी...? कैसी रोटी...? मुझे किस साले ने दी है! कई महीने हो गए मुझे रोटी खाये। कंजरों ने भूखा मार दिया। मेरी तो साली आंतें पीठ की हड्डी से जा लगीं।’
लगता था, बाबा को फिर दौरा पड़ गया था। जब से बाबा गांव से आया, तब से ऐसे ही अचानक अबा-तबा बोलने लगता है। कभी-कभी अच्छी-भली बातें करता है तो कभी पता नहीं अकेले में वक्त को उलटा घुमाकर कहां का कहां पहुंच जाता है।
ताई भी खीझकर कल इसको मेरे पास छोड़ गई, बोली, ‘तुम्हारा भी कुछ लगता है। अब थोड़े समय तुम भी कर लो सेवा...।’ मुझे तो चिंता सताने लगी थी। और दो दिन बाद निशा आ जाने वाली थी। निशा शहर की पढ़ी-लिखी लड़की थी। उसने गांव का माहौल और गांव के बूढ़े कब देखे थे। फिर ऐसा स्पेशल केस तो मैंने भी कभी नहीं देखा था। मां-बापू के होते कभी-कभार बाबा दो-चार दिनों के लिए हमारे पास आकर रह जाता था। पर तब यह ठीकठाक था। ऐसा नहीं था।
अब कल की ही बात लो। मुझे तो बताते हुए भी लाज आती है। मैंने दो तलाइयां गोल कर के एक बड़ा-सा सिरहाना बना रखा था। कंधा दुखने के कारण डॉक्टर ने ऐसा करने को कहा था। अब वह सिरहाना मैं तो लेता नहीं था, इसलिए मैंने वह बाबा को दे दिया। गोल सिरहाने के एक सिरे में डोरी डाल कर गांठ लगा रखी थी। बाबा ने क्या किया, पहले तो पता नहीं डोरी की इतनी मजबूत गांठ कैसे खोल ली फिर सिरहाने का गिलाफ उतारकर फेंक दिया और शुरू हो गया उसके साथ लेटकर बातें करने।
‘री छन्नी, तुझे याद है जब साई ठोले शाह के मेले से तुझे पकौड़े और जलेबियां खिलाई थीं। कितनी खुश हुई थी तू उस वक्त और कहती थी कि इससे पहले ज़िन्दगी में तूने कभी जलेबियां नहीं खाई थीं।’
‘ना, क्या कहती है...?’
मैं दरवाज़े की ओट में खड़ा बाबा की बातें सुन रहा था। कई साल पहले मर चुकी मेरी दादी छिन्नी के साथ बाबा यूं बातें कर रहा था जैसे वह उसके सामने बैठी हो। साथ ही साथ सिरहाने पर आहिस्ता-आहिस्ता हाथ फेर रहा था।
ताई बताती थी कि घर में भी ऐसा ही करता रहता है। जब गली-पड़ोस से कोई लड़की या बुढ़िया घर में आ जाती, यह मरजाणा चन्द्र बदन के किस्से गाने लगता। एक दिन तो इसने हद ही कर दी। पड़ोस की बेबे नंती बुढ़िया घर में आई, तो यह उसके सामने चादरा उतार कर जांघों पर तेल मलने लगा और साथ ही साथ, माहिये-टप्पे गाने लगा। बुढ़िया तो उल्टे पैर लौट गई अपने घर और यह लग गया छिन्नी को पुकारने। पौत्र बहुएं मुंह में कपड़ा ले लेकर खीं-खीं हंसने लगीं। इस बूढ़े-बुजुर्ग को ज़रा-भी शरम नहीं आती। मैंने तो तब से ही इसका बोरिया-बिस्तर उठवा कर पशुओं वाले बाड़े में भेज दिया। तब से बच्चों के हाथ रोटी भिजवा देती हूं दोनों वक्त की।
पर अब हालात ज्यादा खराब हो गए थे। एक तो इसको दिखता कम है और ऊपर से ज्यादा चला भी नहीं जाता। पर आवाज़ अभी भी कड़क है, जैसे गले में स्पीकर फिट हो। जो मुंह में आता है, वही बोले जाता है। ताई यह कहकर बाबा को मेरे पास छोड़ गई कि इसे किसी अच्छे डॉक्टर के पास इसका इलाज करवाओ। इलाज इस उम्र में इसका क्या होगा भला।
मैं भी बस यही कर सकता था कि इसका मंजा-बिस्तर कोठी के पीछे बने क्वार्टर में डाल दूं और दोनों वक्त की रोटी वहीं पहुंचा दिया करूं। न किसी को इसकी बातें सुनाई दें और न ही गालियां।
बाबा को रोटी खिलाकर मैंने उसको सहारा देकर खड़ा किया।
‘चल बाबा, तुझे कोठी दिखलाऊं।’
‘अच्छा शेरा, चल थोड़ा-बहुत घूम फिर लूं, भैण देने घुटने तो अब बिलकुल ही रह गए। अपने बापू से पूछना जब मैं कबड्डी खेला करता था, आसपास के बीस गांव में मेरे नाम की तूती बोलती थी। गांव में जब कोई बारात आती तो बाराती अपने गांव की कबड्डी की टीम संग लेकर आते और फिर कई-कई दिन गांव में कबड्डी का खेल चलता रहता। अच्छी-खासी रौनक लग जाती। मजाल, आज तक मुझे किसी ने ढाया हो।’
बाबा पूरे जोश के साथ बोल रहा था, पर चाल उसकी धीमी थी। बाबा का शरीर और मन अलग-अलग चाल से चलते लग रहे थे। मैंने कोठी के पिछवाड़े बनी कोठरी में ले जाकर बाबा को बिस्तर पर लिटा दिया।
‘यहां?...’ बाबा हैरान-सा हो गया, ‘तू तो मुझे कोठी दिखलाने लाया था रे। यह तो कोई विरान-सा गांव आ गया लगता। यहां न कोई पक्षी, न कोई परिंदा। न बंदा, न बंदे की जात। मैं नहीं रहूंगा यहां। मुझे तो तू गांव छोड़ आ, कुएं वाले घर में। छिन्नी मेरी राह देखती होगी।’
बाबा फिर इधर-उधर की मारने लगा। मैंने बाबा को समझा-बुझाकर वहां लिटा दिया और खुद चुपचाप अपने कमरे में आ गया।
कुछ ही देर बाद पिछवाड़े से ज़ोर-ज़ोर से गालियों की आवाज़ें आनी शुरू हो गईं।
‘ओए कुड़ी दे यारो... ओ तुम्हारा कुछ न रहे रे... ओ मुझे लटका गए रे उलटा... निकालो रे कंजरो मुझे कोई बाहर... ओए मेरा गला दबा दिया मेरे सालों ने...।’
‘री छिन्नी, अरी तू भी मिल गई इन भैण के यारों के साथ... निकल लेने दे मुझे बाहर, रखता हूं तेरे गले पर घुटना।’
‘क्या बात है बाबा, क्यों शोर मचा रखा है, सारा घर सिर पर उठा रखा है? क्या हुआ तुझे?’ मैंने घूरते हुए बाबा से कहा तो बाबा इधर-उधर देखने लगा। मानो मैं किसी और से बातें कर रहा होऊं।
‘मैं...? मैंने तो कुछ नहीं कहा किसी को ... मैं तो चुप होकर बैठा हूं यहां कब से ।’
बाबा को बिस्तर पर लिटा मैं फिर अपने कमरे में आ गया। सिर घूमने लगा। उठकर अपने लिए एक पैग बनाया और धीमे-धीमे घूंट भरने लगा। थोड़ा सुरूर हुआ तो मुझे निशा याद आने लगी। कई दिन हो गए थे निशा को मायके गए। औरत के बग़ैर भी साली कैसी ज़िन्दगी है भला। पता नहीं शराब का नशा था या कुछ और... मुझे बहुत शिद्दत से निशा की ज़रूरत महसूस होने लगी। मेरा मन किया कि निशा अभी घर आ जाए, इसी वक्त, इसी पल। पर उसके आने में तो अभी समय बाकी था। फिर मन को समझा लिया। सोचने लगा कि निशा आएगी तो बाबा की बातों पर कैसे रियेक्ट करेगी। शायद बहुत मजाक उड़ाएगी बाबा की बातों और उसकी गालियों का और साथ ही, शायद मेरा भी। समझ में नहीं आ रहा था कि आने वाले समय में घर में क्या माहौल बनेगा। निशा ने यदि बाबा को रखने से मना कर दिया तो फिर क्या होगा। एक घड़ी तो मेरा दिमाग आसपास के वृद्धाश्रमों का पता लगाने लगा। मुझे कुछ भी सूझ नहीं रहा था। मैंने सिर को झटका-सा दिया और उठकर धीरे-धीरे बाबा की तरफ चल दिया।
बाबा शांत होकर बिस्तर पर बैठा था जैसे किसी गहरी सोच में डूबा हो।
‘बाबा!’
‘हां...।’ बाबा ने गहरी-सी आवाज़ में कहा।
‘पैग लोगे?’
‘है क्या?’ पैग का नाम सुनकर बाबा के चेहरे पर रौनक-सी आ गई।
‘हां, है।’
‘ला फिर, कड़ा-सा बनाकर मेरा पुत्तर... पानी न डालना।’
मैं बाबा के लिए एक तगड़ा-सा पैग बना लाया। बाबा एक ही सांस में खींच गया और बाद में खंखार कर उसने सिर को झटका-सा दिया।
‘चल अब लेट जा, थोड़ी देर।’
‘अच्छा बेटा।’
कुछ देर बाद मैं रोटी लेकर बाबा की कोठरी में गया तो क्या देखता हूं, बाबा की देह पर एक भी कपड़ा नहीं था। मैं गुस्से भरी शरम के साथ चौखट में ही रुक गया। बाबा अपने आप से ही बातें किए जा रहा था।
‘ए छिन्नी, अब तू मुझसे रूठी ही रहेगी, मेरे साथ नहीं बोलेगी तू? मुझसे ऐसी क्या भूल हो गई? अरी, कुछ तो बोल मेरे साथ।’ बाबा सिरहाने पर हौले-हौले हाथ फेर बातें कर रहा था।
‘बाबा...!’ मेरी आवाज़ में क्रोध था।
‘हां...’ बाबा की आवाज़ यूं आई मानो किसी गहरे कुएं में से निकली हो।
‘ये क्या किए बैठा है तू?... तुझे ज़रा भी शरम नहीं आती? ‘
‘मैंने क्या किया बेटा...’ अपनी तरफ देखकर बाबा शर्मिन्दा-सा हो गया। ‘मेरे कपड़े कहां गए?’ बाबा हैरान-सा होकर बोला।
‘अच्छा... छिन्नी ले गई होगी धोने को।’ बाबा ने तसल्ली के साथ कहा। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि बाबा पाखंड कर रहा था या एक ही समय में दो अलग-अलग समयों में पहुंच जाता था।
मैंने बाबा को कपड़े पहनाए और रोटी खिलाकर बिस्तर पर लिटा दिया। पैग के नशे में उसे जल्दी ही नींद आ गई। फिर मैं भी अपने कमरे में आकर लेट गया। कब आंख लगी, पता ही न चला। सवेरे बाबा की मोटी-मोटी गालियों से मेरी नींद खुली थी।
मैं फुर्ती से उठा और जाकर देखा। बाबा मोटे सिरहाने को ज़ोर-ज़ोर से दुहत्थड़ मारकर कूट रहा था। सिरहाने की डोरी कहीं पड़ी थी, गिलाफ कहीं।
‘है इस कुतिया औरत को मेरी ज़रा भी परवाह... कब से कह रहा हूं कि मेरे तेल झस दे, पर मजाल है कि ये रन्न ज़रा भी कान धरती हो मेरी तरफ। आज नहीं मैं छोड़ता इस कुजात को... आज तो इसकी कहानी ही खत्म कर देनी है।’ बाबा हांफते हुए सिरहाने को पीटे जा रहा था।
‘बाबा... ये क्या कर रहा है? ये सिरहाने का क्या हाल किया तूने?’ मैं ज़रा गुस्से में कहा।
‘कुछ नहीं शेरा... मैंने तो कुछ नहीं किया।’ बाबा यूं बोला जैसे दो मिनट पहले कुछ हुआ ही न हो।
दोपहर तक निशा आ गई। चाय-पानी पीने के उपरांत मैंने निशा को बाबा के बारे में विस्तार से बता दिया।
‘कहां है बाबा अब?’ उसने इधर-उधर देखकर पूछा।
‘पिछली कोठरी में।’
‘क्या! पिछली कोठरी में क्यों? ‘
‘तुझे नहीं पता। वह वहीं ठीक रहेगा। घर के अंदर तो चीख-चिल्लाकर घर सिर पर उठा लेगा। उसका दिमाग हिल गया है।’
‘तुम चुप होकर बैठो।’
निशा उठकर पिछवाड़े वाली कोठरी में बाबा के पास जा पहुंची और बाबा को कसकर लिपट गई। बाबा ने भी निशा को यूं कस लिया जैसे उसे कोई वस्तु वर्षों बाद मिली हो और उसको उसके छिन जाने का डर हो। कितनी ही देर बाबा और निशा उसी स्थिति में रहे, अडोल... स्थिर। पास खड़े मुझे बाबा की झप्पी कुछ और ही तरह की लग रही थी। परंतु निशा प्यार के साथ बाबा के साथ लगी बैठी थी। कुछ पल बाद निशा और बाबा अलग हुए। निशा बांह का सहारा देकर बाबा को अंदर घर की तरफ ले गई और लॉबी में बिछे बेड पर लिटा दिया। चाय बनाकर बाबा के करीब बैठ खुद भी चाय पी और बाबा को भी पिलाई। रात की रोटी खाकर बाबा जल्दी ही सो गया।
कई दिन बीत गए। बाबा को दौरा नहीं पड़ा था। निशा बाबा की रोटी, चाय, कपड़ों का खुद ही ख़याल रखती। बाबा का सिर झसती, उसके साथ बातें करती।
एक दिन मैंने मजाक में निशा से कहा, ‘बाबा से थोड़ा दूर ही रहा कर, तुझे नहीं पता, बाबा औरत के स्पर्श को कितना कामुक हुआ पड़ा है।’ निशा मेरी तरफ देखकर मुस्करा दी, ‘औरत के स्पर्श और प्यार की छुअन में बहुत फर्क होता है। तुम मर्द इन सूक्ष्म बातों को सारी उम्र बिताकर भी नहीं समझ सकते।’ निशा मेरी छाती पर ठोला मारकर हंसती हुई कमरे से बाहर निकल गई।
अनुवाद : सुभाष नीरव