For the best experience, open
https://m.dainiktribuneonline.com
on your mobile browser.

पैनी ज़ुबान से राजनीति चमकाने का वक्त

07:05 AM Mar 29, 2024 IST
पैनी ज़ुबान से राजनीति चमकाने का वक्त
Advertisement

अशोक गौतम

मेरा मोहल्ला दिलदारों का मोहल्ला नहीं, चाकू-छुरियों वालों का मोहल्ला है। यहां का स्थाई आदर्शवादी से आदर्शवादी तो छोड़िए, पांच महीने बाद एक महीने का किराया देने वाला किराएदार भी अपनी बगल में दस-दस चाकू छुरियां दबाए सगर्व मटकता रहता है। एक-दूसरे के गले लगते हुए, एक-दूसरे से हाथ मिलाते हुए, एक-दूसरे पर हाथ लहराते हुए।
इसी मोहल्ले में अहिंसा के परम पुजारी के पास भी बगल में चाकू-छुरियां हरदम सुसज्जित न हों, ऐसा हरगिज नहीं हो सकता। कारण, आज का दौर मुंह में राम का दौर हो या न, पर बगल में चाकू-छुरियों का दौर जरूर है। और जिनके पास दोनों हैं, उन्हें तो नरक में भी स्वर्ग मिला समझो।
अपने मोहल्ले में दिलों से अधिक चाकू-छुरियों वालों को देखते हुए हफ्ते में दो-तीन बार चाकू-छुरियां पैनी करने वाला चक्कर मार लेता है। कल फिर चाकू-छुरियां तेज करने वाला हमारे मोहल्ले में आया। पर अबके वह चाकू-छुरियां तेज करवाने की आवाज के बदले जुबान तेज कराने की आवाज दे रहा था, ‘जुबानें तेज करा लो! जुबानें तेज करा लो!’ उसका ये नया धंधा देख सुन मैं चौंका! यार! ये बंदा आज बोल क्या रहा है? वह मेरे जरा और नजदीक आया तो धंधागत स्वभाव के चलते मेरे मुंह में झांकने लगा कि मैंने अपना मुंह पूरी तरह बंद कर उससे पूछा, ‘हद है यार! पहले तो तुम हम लोगों की बगलें झांका करते थे पर आज मुंह में क्यों झांक रहे हो? कहीं अब बगल में राम तो मुंह में छुरी का मुहावरा तो नहीं चल पड़ा?’
‘नहीं बाबूजी! बस, चुनाव के दिन हैं। चुनाव के दिनों में चाकू-छुरियों से अधिक डिमांड तेज जुबानों की रहती है। इन दिनों धारदार चाकू-छुरियों से मारक वार तेज जुबान का होता है। पिद्दी से पिद्दी जनसेवक भी चाहता है कि इन दिनों उसके पास कुछ और सॉलिड हो या न, पर उसकी जुबान एकदम लसालस हो। ताकि एक ही वार से विरोधी की बली से महाबली जुबान को तमाम कर दे।
साहब! चुनावी कुरुक्षेत्र जुबानी तलवारों से जीते जाते हैं, लोहे की तलवारों से नहीं। इस युद्ध के दिनों के विरोधी को तेजधार तलवारों से नहीं, तेजधार जुबानों से ही कलम किया जा सकता है। ऐसे में सारा दिन एक-दूसरे को जुबानों से चीर-चीर कर पैनी से पैनी जुबानें भी शाम को धारहीन हो जाती हैं। पर अगले दिन भी बंदे को पहले से अधिक पैनी जुबान चाहिए कि नहीं? चुनाव मुद्दों का नहीं, पैनी जुबानों का खेल होता है। जो जितनी पैनी जुबान से अपने विरोधियों पर वार कर गया, समझो वह चुनावी समर में अपनी उतनी जीत पक्की कर गया,’ कहते-कहते उसने एक बार फिर जबरदस्ती मेरे मुंह में झांका। मेरी जुबान देखी और मन ही मन बड़बड़ाता, जुबानें तेज करा लो! जुबानें तेज करा लो! की आवाज देता आगे हो लिया।

Advertisement

Advertisement
Advertisement
Advertisement
×