दलबदल की राजनीति को खारिज करने का वक्त
महाराष्ट्र में चुनाव-प्रचार अब ज़ोरों पर है। अपनी-अपनी जीत का दावा तो सब कर रहे हैं, पर मतदाता जितायेगा किसे, यह अभी भविष्य के गर्भ में ही है। चुनाव परिणाम को लेकर दावे और प्रतिदावे तो अब भी हो रहे हैं, पर ‘चुनावों के पंडित’ कहलाने वाले चुनाव परिणाम के बारे में इस बार कुछ ठोस कहने में स्वयं को असमर्थ पा रहे हैं। कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस, ये चार दल मुख्यतः हुआ करते थे पहले मैदान में, इस बार इन दलों की संख्या छह है– शिवसेना और राष्ट्रवादी दोनों इस बार बंटे हुए हैं। अब मैदान में दो शिवसेना हैं और दो राष्ट्रवादी। यह स्थिति बड़ा कारण है चुनाव परिणाम को लेकर फैल रहे असमंजस का। सवाल सिर्फ पार्टियों के बंटने का नहीं है, व्यक्तियों का बंटना ज़्यादा घाल-मेल करने वाला है।
यूं तो हर दल यह दावा करता है कि उसके पास अपनी नीतियां हैं, अपनी विचारधारा है, ‘जनता की सेवा’ करने का अपना तरीका है, पर देश में चुनाव-दर-चुनाव यह बात लगातार स्पष्ट होती रही है कि हमारे राजनीतिक दलों का उद्देश्य सत्ता के लिए राजनीति करना ही रह गया है। नीतियों और सिद्धांतों की बात तो सब करते हैं पर निगाह सबकी ‘कुर्सी’ पर ही टिकी रहती है। सत्ता पाने के लिए हमारे राजनेता कुछ भी करने-कहने के लिए तैयार दिखते हैं।
वैसे सिद्धांतों की राजनीति का नकार कोई नयी बात नहीं है। दशकों पहले हरियाणा में ‘आया राम, गया राम’ की राजनीति शुरू हुई थी। एक तरह की राजनीतिक अराजकता-सी फैलती गयी उसके बाद। ऐसा नहीं है कि इस दल बदलू राजनीति के खतरों से देश अनभिज्ञ था। कोशिशें भी हुईं इस स्थिति से उबरने की। राजनीति में नैतिकता के स्थान को लेकर विमर्श भी होते रहे, कानून भी बने, पर सत्ता की दौड़ में राजनीतिक शुचिता के लिए स्थान लगातार कम होता गया। युद्ध और प्यार में सब कुछ जायज़ है की तर्ज पर राजनीति में भी सब कुछ जायज़ मान लिया गया है। इसी का परिणाम है कि आज की राजनीति में नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं बचा। चुनावों के दौरान, और चुनावों के लिए मची आपाधापी में हम इस पतन के उदाहरण लगातार देख रहे हैं। यह अपने आप में कम पीड़ा की बात नहीं है, पर मतदाता की असहायता देख कर पीड़ा और बढ़ जाती है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि देश के मतदाता ने समय-समय पर अपनी जागरूकता और ताकत का परिचय और परिणाम भी दिया है। आपातकाल घोषित करने वाली सरकार को देश के मतदाता ने जिस तरह से नकारा था, वह उसकी ताकत का प्रमाण है, उसकी जागरूकता का स्पष्ट उदाहरण है। राज्यों के चुनाव में भी ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं। लेकिन, भ्रष्ट, दलबदलू सिद्धांतहीन राजनीति को नकारने का जो परिणाम होना चाहिए, वह अक्सर नहीं दिखाई देता। यह पीड़ा की बात है, और चिंता की भी। यह चिंता राजनेता नहीं करेंगे। उनका स्वार्थ इस स्थिति के बने रहने में है। स्थिति को बदलने की आवश्यकता तो मतदाता को है। वह इस आवश्यकता को समझते हुए भी अक्सर न समझने की मुद्रा अपना लेता है।
टिकटों के बंटवारे को लेकर आज महाराष्ट्र में जिस तरह की स्थिति दिखी है, वह अपने आप में कोई नयी स्थिति नहीं है। बहुत देखा है इस स्थिति को मतदाता ने। देखा ही नहीं, सहा है, कहा जाना चाहिए। पर क्यों सहे मतदाता इस स्थिति को?
बड़ी बेशर्मी के साथ हमारे राजनेता अपना पाला बदल लेते हैं। शरद पवार ने टिकट नहीं दिया तो अजित पवार के पाले में चले जाएंगे; उद्धव ठाकरे की पार्टी से चुनाव लड़ने का टिकट नहीं मिला तो शिंदे की पार्टी दे देगी; भाजपा के नेतृत्व ने किसी की उम्मीदवारी का दावा स्वीकार नहीं किया तो कांग्रेस का दरवाजा खटखटाया जा सकता है। किसी को कांग्रेस नकारती है तो भाजपा बांहें फैला कर उसका स्वागत कर लेगी। महाराष्ट्र का यह सच देश के बाकी राज्यों का सच भी है। इस सच का निहितार्थ सत्ता के लालच के संदर्भ में ही समझा जा सकता है।
सत्ता के लिए कुछ भी किया जा सकता है, किया जा रहा है। लेकिन सत्ता के लिए विचारधारा की जिस तरह आज बलि दी जा रही है, वह जनतांत्रिक मूल्यों और आदर्शों की धज्जियां उड़ाना ही है। आज़ादी प्राप्त करने के कुछ अर्सा बाद तक स्थिति ऐसी या इतनी बुरी नहीं थी। हमारे पास ऐसे नेता थे जो नीतियों और मूल्यों की राजनीति में विश्वास करते थे। तब एक सीमा तक हमारी राजनीति तीन हिस्सों में बंटी हुई थी– वामपंथी, दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी। तब हमारा मतदाता इतना शिक्षित नहीं था, जितना आज है। पर राजनीति के इस विभाजन को वह समझता था। तब हमारे नेताओं को अपनी छवि की, शायद, ज़्यादा चिंता थी। आज स्थिति बदल गयी है। नेता भले ही यह कहता रहे कि ‘यह पब्लिक है सब जानती है’ पर मानता वह यही है कि पब्लिक को बरगलाया जा सकता है। इसीलिए जब चाहे कोई ‘आयाराम गयाराम’ बन जाता है और सब जानने का दावा करने वाली पब्लिक यह खेल देखकर हंसती रह जाती है।
पर बात हंसने की नहीं है। पीड़ा देने वाली बात है यह। मतदाता का कर्तव्य है कि वह आयाराम गयाराम की राजनीति में विश्वास करने वाले प्रत्याशियों से पूछे कि उनके आचरण को अस्वीकार क्यों न किया जाये? क्यों न पूछा जाये कि वह मतदाता को इतना कमज़ोर क्यों समझते हैं कि कुछ भी करना-कहना अपना अधिकार मान लेते हैं? और यह सवाल मतदाता को अपने आप से भी पूछना चाहिए कि वह अक्सर नेताओं के हाथ का खिलौना क्यों बन जाता है?
एक बात जो और उभर कर सामने आयी है, वह अपनी संतानों को नेताओं द्वारा राजनीतिक उत्तराधिकार देने की है। यह सिर्फ महाराष्ट्र का सच नहीं है कि अधिकतर बड़े नेता अपनी संतानों को राजनीति में ‘फिट’ करना चाह रहे हैं। यहां भी वे इस बात की कोई परवाह नहीं करते कि उनके इस कार्य को अनैतिक माना जायेगा। राजनीतिज्ञ की संतान का राजनीति में आना कतई ग़लत नहीं है। ग़लत तो यह है कि राजनेता अपनी गद्दी को विरासत में देना अपना अधिकार समझने लगे हैं। और नेता-संतानें भी पिता की गद्दी पर अपना अधिकार समझती हैं। नेताओं और उनकी संतानों का यह कथित अधिकार अनैतिक है। जनतंत्र हर एक को अपनी योग्यता-क्षमता प्रमाणित करने का अवसर देता है। पर यह क्षमता-योग्यता विरासत में नहीं मिलती। यह बात हमारे राजनेताओं और मतदाताओं, दोनों को प्रमाणित करनी होती है। रातो-रात पाला बदलना जहां एक ओर व्यक्ति की सत्ता-लोलुपता को उजागर करता है वहीं सिद्धांतहीन राजनीति उस खतरे का भी संकेत देती है जो जनतांत्रिक व्यवस्था और सोच के सामने आ खड़ा हुआ है। इस खतरे का अहसास और मुकाबला, राजनेताओं को नहीं, जनता को करना है। जनता यानी मैं और आप। हमें अपने आप से पूछना होगा कि क्या हम इस मुकाबले के लिए तैयार हैं?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।