मणिपुर के जख्मों पर मरहम लगाने का वक्त
पिछले दो महीनों से ज्यादा वक्त से मणिपुर उबाल पर है और लगता है नफरत का ज्वालामुखी अभी भी आग और जहर उगल रहा है। मैं वहां कुछ वक्त रहा हूं (2008-13) और वहां की खूबसूरत वादियों, पहाड़ों और वन अंचल की यादें अभी भी ज़हन में ताज़ा हैं। मैं अभी भी वहां की वनस्पति व प्राणियों की मौजूदगी महसूस करता हूं वहीं लोकतक झील का सुरम्य अक्स अभी भी आंखों के सामने घूमता है। किसी और से ज्यादा, वहां के लोग, जोकि नाना जनजातियों का गुलदस्ता है और जिनकी जीवनशैली, रिवाज और धर्म अलहदा हैं, स्मृति में हैं। वहां लगता है मानो वक्त ठहर चुका है और अपने पुरखों की भांति लोग सरल जिंदगी जीते हैं। छोटे नगरों और इम्फाल में आधुनिकता के कुछ चिन्ह जरूर दिखाई देते हैं, वरना शेष परिदृश्य ठिठके हुए समय-सा है।
मणिपुर में आप समय की धुंध में खो जाते हैं और बाकी जगह पर व्याप्त जिंदगानी की तेज दौड़-भाग बिसर जाती है। एक समाज, जिसका पुराने तौर-तरीकों से नयों की ओर रूपांतर बहुत धीमा है, जहां भारतीय प्रशासन के वजूद का अहसास शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं में ज्यादा दिखने की बजाय तैनात सुरक्षा बलों की दृश्यावली से अधिक होता है। अधिकांशतः अपने हाल पर छोड़ दिए जाने के कारण, ग्रामीण मणिपुर अभी भी अपनी पुरानी रिवायतों को जिंदा रखे हुए है, चाहे यह कला एवं शिल्प हो, जड़ी -बूटियों का प्राचीन ज्ञान हो या विरासती लोकगीत-नृत्य या मंदिर शैली अथवा जनजातीय विभेद। वे शांतिप्रिय लोग, जिनका तसव्वुर आज भी मेरे ज़हन में, रिवायती परिधान पहनकर अपने इष्ट की उपासना के लिए मंदिर या चर्च जाते हुओं का है, उन्हें हो क्या गया है? मानो एक लावा है, जो पिछला सबकुछ लील गया है। हालांकि उनकी मौलिक प्रवृत्ति हमेशा दिखाई देती थी, सतह के नीचे व्याप्त आपसी जनजातीय विद्वेष सदा धधकता प्रतीत होता था और जनजातीय लोगों ने अपने-अपने इलाके भी चिन्हित कर रखे थे और वे इसका पालन करते थे, हालांकि कुछ जगहों पर अंतर-प्रवास भी रहा है। यही वे इलाके हैं, जो मौजूदा हिंसा का सर्वप्रथम निशाना बने।
यहां मैं किसी पर अंगुली उठाने या इल्जामबाजी में नहीं पड़ना चाहूंगा। आज मैं घटनास्थल से काफी दूर हूं और वही जान पा रहा हूं, जितना और जो मीडिया दिखाना चुने। नहीं मालूम कि यह क्रिया है या प्रतिक्रिया, इरादतन है या अनजाने में हुआ कृत्य। क्या कार्यपालिका की असफलता है या न्यायापालिका का अतिरेक? जो भी है, इसने ‘लड़ने को उद्यत श्वान’ खुले छोड़ दिए, परिणाम में कत्लोगारत हुआ और अभी भी जारी है। एक बार फिर, चूंकि वास्तविक आंकड़ों तक मेरी पहुंच नहीं है, इसलिए मीडिया खबरों के मुताबिक सौ से ज्यादा लोग मारे गए और सैकड़ों घायल हुए हैं, हज़ारों घर और कई गांव जला या तोड़ दिए गए, संपत्ति का भारी नुकसान हुआ है। पशुधन, जोकि जीवनयापन का महत्वपूर्ण जरिया है, पक्का है वह भी लुट चुका होगा। लगता है सरकारी संपत्ति भी निशाना बनी है। जो तथ्य तमाम तर्कों को झुठलाता है, वह यह कि सूबे भर में थाने और पुलिस शस्त्रागारों को निशाना बनाया गया और हजारों बंदूकें और भारी मात्रा में गोलियां लूट ली गई हैं। यह काम तो पंजाब, जम्मू-कश्मीर में, दिल्ली और गुजरात में सबसे बदतर स्थिति में भी नहीं हुआ था। इस लिहाज़ से, वर्दीधारी हो या आम नागरिक, यह बात किसी की भी समझ से बाहर है। मुझे यकीन है लूटे गए हथियार बलवाइयों के बहुत काम के रहे। लगता है सरकार की बारम्बार अपीलों के बावजूद लुटे शस्त्रों में अधिकांश वापस नहीं किए गए। भविष्य में भी इनसे राज्य में सुरक्षा बलों को खतरा बना रहेगा।
अब बात उन हजारों लोगों की, जिन्होंने न केवल अपने परिजनों को खोया है बल्कि अपने घर, पशुधन और जीवनयापन का जरिया भी। हजारों लोग बेघर हुए हैं और वादी और पहाड़ों के गांव वालों को पड़ोसी सूबे या अस्थाई शरणार्थी शिविरों में पनाह लेनी पड़ी है। शायद कुछ लोग सीमा पार करके म्यांमार भी चले गए हों। जो कुछ हिंसा की पहली लहर में बचा भी होगा वह भी बाद में अवश्य खत्म हो गया होगा। आनन-फानन में बनाए गए शरणार्थी शिविरों में हालात कहां रहने लायक होंगे। जो सरकार सुरक्षा के सबसे मूलभूत चिन्ह यानि थाने को नहीं बचा पाई, उससे गुणवत्तापूर्ण राहत शिविरों की अपेक्षा कहां हो सकती है। मुझे नहीं मालूम कि राज्य प्रशासन का हुक्म फिर से कहां तक कायम हो पाया है और क्या राहत शिविरों में गतिविधियों की निगरानी करने के काबिल है या नहीं? यह काम युद्धस्तर पर करना होगा मसलन खाद्य, आश्रय, साफ-सफाई, दवाएं, चिकित्सक इत्यादि का प्रबंध। यह प्रबंधन बहुत बड़ा है और मैं उम्मीद एवं प्रार्थना करता हूं कि राज्य सरकार अपना फर्ज निभाने में खरी उतरे। यह उनका सूबा है और लोग भी, जिनकी सेवा करने की शपथ उसने उठा रखी है। वर्तमान शरणार्थी शिविरों और आपातकालीन उपायों से परे देखें तो उजड़े नागरिकों को पुनः बसाने का काम बहुत विशाल होगा। घाटी और खासकर पहाड़ी इलाके के लोगों के पास भरण-पोषण के संसाधन बहुत कम होते हैं। हम उन्हें हमेशा शरणार्थी शिविरों में बंद करके नहीं रख सकते, न ही वे पड़ोसी राज्यों में अपने रिश्तेदारों पर ज्यादा वक्त बोझ बन सकेंगे। उन्हें अपने मूल निवास पर लौटना ही होगा, जहां बनी परिस्थितियों के कारण पलायन करना पड़ा है। यह पुनर्वास का कार्य है जो हमारे राष्ट्र और मणिपुर सरकार का इम्तिहान है।
इससे पहले, जब भी, जहां भी ऐसी त्रासदियां हुई हैं और परिणामस्वरूप लोगों का पलायन हुआ है, हम उन्हें मूल स्थान पर पुनः स्थापित करने में विफल रहे हैं। बड़े सूबों और शहरों में, लोग उजड़ने के बाद, किसी तरह जीवनयापन के वैकल्पिक ठोर ढूंढ़ लेते हैं, भले ही वह पहले जितना न हो। लेकिन मणिपुर एक छोटा राज्य है, वहां के लोग घाटी और पहाड़ों पर रहने के आदी हैं। अब जिंदगी नए सिरे से शुरू करने का साधन उन्हें कहां मिल पाएगा? इसका उत्तर केवल केंद्र और राज्य सरकार के पास है। सौभाग्य से वे एक ही राजनीतिक दल से संबंधित हैं। उन्हें तुरत-फुरत पुनर्वास योजना बनानी होगी, जिसमें तमाम पहलुओं का ध्यान जाए। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि लोग अपने मूल स्थान पर फिर से बसें। यह काम उनके सामूहिक अथवा निजी दर्द को घटाने में मनोवैज्ञानिक रूप से सहायक होगा। वैसे तो मणिपुरी समाज के समुदायों में आपसी बैर की दृश्यमान लकीरें बहुत गहरी और प्राचीन काल से रही हैं, लेकिन इस भूभाग में चली नफरत की आंधी से अब वह पुनः नुमाया और अधिक गहरी हो गई हैं। आइए, तोड़ने और बर्बादी की बजाय घाव भरने और पुनर्वास करने, एकता बनाने और स्थापित करने में सम्मिलित प्रयासों में मदद करें।
लेखक मणिपुर के राज्यपाल रहे हैं।