संयम-करुणा से नया इतिहास रचने का समय
विश्वनाथ सचदेव
बाईस जनवरी दो हज़ार चौबीस। यह कैलेंडर की एक तारीख मात्र नहीं है। अयोध्या में भगवान राम के ‘भव्य, दिव्य मंदिर’ की प्राण-प्रतिष्ठा के साथ ही यह तारीख, जैसा कि प्रधानमंत्री ने कहा है, ‘नये इतिहास-चक्र की भी शुरुआत’ है। इस अवसर पर किये गये संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने अपने संकल्प ‘सबका साथ, सबका विकास और सबके विश्वास’ को एक नया आयाम भी दिया है। यह सही है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण एक चुनावी वादे का पूरा होना भी है। चुनावी घोषणापत्र में भाजपा लगातार इसकी बात भी करती रही है और यह भी सही है कि अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार ने इस मुद्दे को स्थगित रखकर एक राजनीतिक परिपक्वता का उदाहरण ही प्रस्तुत किया था। लेकिन उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद ‘बालक राम’ के मंदिर का निर्माण निर्बाध भी हो गया था और एक स्वाभाविक परिणति भी।
अयोध्या में मंदिर निर्माण को पूरे देश में जो प्रतिसाद मिला है, वह कल्पनातीत है। भाजपा को इसका राजनीतिक लाभ मिलेगा, इसमें कोई संशय नहीं, पर जैसा कि प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में कहा है, ‘राम विवाद नहीं, समाधान है’। उनके इस कथन को समझा और स्वीकारा जाना चाहिए। यह भी समझा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री का यह कथन देश में संभावनाओं के नये आयाम भी खोल रहा है। राम और राष्ट्र के बीच की दूरी को पाटने का एक स्पष्ट संकेत भी प्रधानमंत्री ने दिया है। इस बात को भी समझने की ईमानदार कोशिश होनी चाहिए। राम की महत्ता हिंदू समाज के आराध्य होने में ही नहीं है, राम प्रतीक हैं सुशासन के। सुशासन, जिसमें हर नागरिक को, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, वर्ण, वर्ग का हो, प्रगति करने का समान और पर्याप्त अवसर मिलना चाहिए। तुलसी ने कहा था ‘दैहिक, दैविक, भौतिक तापा, राम राज नहिं कहुहि व्यापा’ इस राज में, ‘नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना, नहीं कोउ अबुध न लच्छन हीना।’ किसी भी अच्छे शासन में यह बुनियादी स्थिति होनी चाहिए। राम-राज्य की बात तो हम बहुत करते हैं पर यह भूल जाते हैं कि राम-राज्य की परिकल्पना में हर नागरिक को समान अधिकार प्राप्त थे। राम ने तो स्वयं यह बात स्पष्ट की थी कि यदि राज-काज में उनसे कोई ग़लती हो जाती है तो हर नागरिक को यह अधिकार है, और यह उसका दायित्व है कि वह राजा को ग़लती का अहसास कराये। आज जब देश अयोध्या में राम मंदिर का उत्सव मना रहा है, यह बात भी याद रखना ज़रूरी है कि वनवास भोगकर जब भगवान राम अयोध्या लौटे थे तो हर नागरिक को खुशी मनाने का अवसर और अधिकार मिला था। समान अधिकार। राम के समावेशी शासन में कोई पराया नहीं था। सब अपने थे।
आज जब देश ‘राममय’ हो रहा है, इस अपने-पराये का भेद मिटाने की आवश्यकता को भी समझना ज़रूरी है। धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, होने वाला कोई भी विभाजन ‘राम-राज्य’ में स्वीकार्य नहीं हो सकता। सांस्कृतिक अथवा धार्मिक राष्ट्रवाद के नाम पर किसी को कम या अधिक भारतीय आंकना भी राम-राज्य की भावना के प्रतिकूल है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अयोध्या में नया मंदिर बनने के बाद हिंदू समाज में एक नया उत्साह है। स्वाभाविक भी है यह। पर इस भाव की सीमाओं को भी समझना होगा हमें। नदी जब किनारा छोड़ती है तो बाढ़ आ जाती है। सरसंघ चालक मोहन भागवत ने प्राण-प्रतिष्ठा के अवसर पर कहा था ‘जोश के माहौल में होश की बात’ करनी ज़रूरी है। यह होश ही वह किनारे हैं जो नदी को संयमित रखते हैं। बाढ़ से बचाते हैं। बाढ़ का मतलब तबाही होता है, इस तबाही से बचाना है तो हमें ‘संयम बरतना होगा,’ सहमति के संवाद का मार्ग स्वीकारना होगा।
यह समझना ज़रूरी है कि ‘सहमति के लिए’ और ‘सहमति का संवाद’ बने कैसे? इसके लिए विजय के साथ-साथ विनय की भी आवश्यकता है। प्रधानमंत्री ने आने वाले हज़ार वर्षों के भारत की नींव रखने की बात कही है। इस नींव को आपसी भाई-चारे और मनुष्य की एकता-समानता के सीमेंट से ही मज़बूत बनाया जा सकता है। यहीं इस बात को भी रेखांकित किया जाना ज़रूरी है कि हमारी कथनी और करनी में अंतर नहीं होना चाहिए। जब हम एक भारत श्रेष्ठ भारत की बात करते हैं तो यह भी समझना होगा कि आसेतु-हिमालय एक भारत जिस समाज से बनेगा वह किसी धर्म-विशेष का नहीं होगा। भारत के नागरिक का धर्म चाहे कोई भी हो, वह पहले भारतीय है। हर धर्म हमें मनुष्य बनने की प्रेरणा देता है। हर धर्म हमें एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करने का संदेश देता है। हर धर्म हमें सिखाता है कि लक्ष्य एक है सिर्फ वहां तक पहुंचने के रास्ते अलग-अलग हैं। फिर, आदमी और आदमी में भेद किस बात का? मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर या गुरुद्वारे में धर्म को बांट कर वस्तुतः हम धर्म को न समझने का उदाहरण ही प्रस्तुत करते हैं।
बहरहाल, अब जबकि अयोध्या में रामलला के भव्य-मंदिर का निर्माण हो चुका है, और हम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा का उत्सव भी मना चुके हैं तो हमें आगे क्या करना है? यह सवाल अपने संबोधन में भागवत ने भी उठाया था। उन्होंने कहा था, अब हमें अहंकार को छोड़कर करुणा और संयम से काम लेना होगा। समय आ गया है जब हमें सदियों के इतिहास को पीछे छोड़कर आने वाली सदियों के इतिहास की शुरुआत करनी है। एक नया इतिहास रचने का समय है यह। संयम और करुणा के भाव से ही मनुष्यता का भावी इतिहास रचा जा सकता है– इस आने वाले कल के इतिहास में घृणा नहीं होगी, अहंकार नहीं होगा, एक-दूसरे के प्रति वैर-भाव नहीं होगा। किसी काम में देरी होने के लिए किसी से क्षमा मांगने की ज़रूरत भी नहीं है। सिर्फ अपना काम ईमानदारी से करने की ज़रूरत है। और क्या है यह अपना काम?
अपना काम अर्थात स्वयं को मनुष्यता के अनुकूल ढालने की ईमानदार कोशिश। जब हम राम को आग नहीं, ऊर्जा के रूप में समझें- स्वीकारेंगे तो यह भी समझ आ जायेगी कि जब हम राम को सबका कहते हैं तो इसका अर्थ सबको अपना समझना होता है, परायेपन के बोझ से मुक्त होना होता है। जब हम भारतीय सबको अपना समझ लेंगे तो यह भी समझ आ जायेगा कि जिस धर्म की स्थापना के लिए राम का जन्म हुआ था, वह मानव धर्म था। मानव धर्म अर्थात् मनुष्य की एकता और समानता में विश्वास। जब हमारा आचरण इस धर्म के अनुकूल होगा तभी राम का काम पूरा होगा। तभी हम कह पायेंगे, राम हमारा आदर्श हैं, हमारी आस्था हैं, हमारी पहचान हैं। विजय तब नहीं होती जब हम अपने शत्रु को परास्त करते हैं, विजय तब होती है जब हम शत्रु को यह अहसास दिला पाते हैं कि एक-दूसरे से नफरत करके हम अपने भीतर के मनुष्य को हराने की ही कोशिश करते हैं। भीतर के उस मनुष्य को जगाना, जगाये रखना ज़रूरी है। अयोध्या में रामलला की मूर्ति की प्राण- प्रतिष्ठा तो हो गयी, अपने भीतर की मनुष्यता की प्राण-प्रतिष्ठा भी ज़रूरी है। यह काम शब्दों से नहीं, कर्म से होगा।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।