आत्म मंथन का वक्त
हरियाणा में वापसी को लेकर बनी बड़ी उम्मीदों के बीच आए अप्रत्याशित चुनाव परिणामों से निश्चय ही कांग्रेस पार्टी सांसत में है। पार्टी का केंद्रीय व राज्य नेतृत्व स्तब्ध है कि आखिर ये क्या और कैसे हुआ। भले ही पार्टी ईवीएम व चुनाव प्रणाली को लेकर सवाल खड़े कर रही है, लेकिन इसके बावजूद उसे हरियाणा में शिकस्त और जम्मू-कश्मीर में निराशाजनक प्रदर्शन से सबक लेना चाहिए। निश्चय ही इस प्रदर्शन ने महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस की स्थिति को कमजोर कर दिया है। यहां तक कि इंडिया गठबंधन में घटक दलों द्वारा बयानबाजी का दौर तेज हुआ है। वे कांग्रेस के अति आत्मविश्वास को विफलता की वजह बता रहे हैं। निस्संदेह, लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद देश की यह सबसे पुरानी पार्टी पिछले दो आम चुनावों की तुलना में बेहतर स्थिति में नजर आई थी। पार्टी को लोकसभा में प्रमुख विपक्षी दल के रूप में मान्यता भी मिली थी। वहीं पार्टी के युवा तुर्क राहुल गांधी खासे मुखर थे। लेकिन आठ अक्तूबर के नतीजे के बाद स्थितियां बदल गई हैं। इसके कुछ सहयोगियों, जैसे कि शिव सेना-यूबीटी, सीपीआई और आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को आगामी विधान सभा चुनावों के लिये आत्मनिरीक्षण करने की सलाह दी है। साथ ही अपनी आगामी रणनीति की समीक्षा करने की सलाह भी दी है। वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी की सीट बंटवारे की बातचीत फिलहाल अंतिम चरण में पहुंच चुकी है। शिवसेना-यूबीटी और शरद पवार के नेतृत्व वाली एनसीपी कांग्रेस इस बदले हालात में सीटों के बंटवारे के लिये बेहतर सौदेबाजी करने का अवसर महसूस कर रही हैं। वहीं कांग्रेस ने अपने गठबंधन के सहयोगियों को तुरंत याद दिलाया है कि उसने इस साल हुए लोकसभा चुनावों में महाराष्ट्र में अच्छा प्रदर्शन किया था। उसने जिन 17 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें से तेरह पर जीत हासिल की थी।
बहरहाल ऐसे तर्कों के बावजूद कांग्रेस पार्टी द्वारा हरियाणा विधानसभा चुनाव में की गई चूकों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उसके कई फैसलों को लेकर सवाल उठाये जा रहे हैं। गठबंधन में शामिल आप के साथ तालमेल करने के बजाय अकेले चुनाव लड़ना सवालों के घेरे में रहा है। यद्यपि हरियाणा विधानसभा चुनाव में आप को एक भी सीट नहीं मिली, लेकिन पार्टी द्वारा हासिल 1.79 वोट शेयर ने भाजपा और कांग्रेस में कांटेदार टक्कर के बीच नतीजों पर कुछ असर तो डाला ही है। भले ही कांग्रेस आलाकमान अपने फैसलों को लेकर तर्क देता रहे, लेकिन उसे अपने गठबंधन के साझेदारों के प्रति अधिक उदार होने की जरूरत है। झारखंड में भाजपा के प्रभुत्व के मद्देनजर कांग्रेस को इतना विनम्र तो होना चाहिए कि वह झारखंड मुक्ति मोर्चा के बाद दूसरी भूमिका निभा सके। महाराष्ट्र में भी, उसे इस बात को प्राथमिकता देनी चाहिए कि गठबंधन के लिये क्या बेहतर हो सकता है न कि वह अपने पार्टी हितों को प्राथमिकता दे। यह हकीकत किसी से छिपी नहीं है कि लोकसभा चुनावों में उम्मीद के अनुरूप प्रदर्शन न कर पाने के बाद भारतीय जनता पार्टी अच्छी तरह से एकजुट हो गई है। पार्टी ने अपने अहम् को त्यागकर गठबंधन धर्म की राह पकड़ी है। कांग्रेस को अपने चिर-प्रतिद्वंद्वी से कुछ तो सबक सीखना चाहिए, यह जानते हुए कि हरियाणा और जम्मू कश्मीर के जनादेश से कांग्रेस के लिये राष्ट्रीय राजनीति में मुश्किलें बढ़ेंगी। इस बात का अंदाजा इस घटनाक्रम से लगाया जा सकता है कि चुनाव परिणाम आने के बाद आम आदमी पार्टी व शिव सेना उद्धव ठाकरे गुट ने कांग्रेस को निशाना बनाना आरंभ कर दिया है। आम आदमी पार्टी ने तो यहां तक घोषणा कर दी है कि दिल्ली विधान सभा के चुनाव पार्टी अकेले ही लड़ेगी। हरियाणा चुनावों के अप्रत्याशित परिणामों की एक व्याख्या यह भी की जा रही है कि भाजपा व राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बीच की दूरियां कम हो गई हैं। यह भी कि हरियाणा के अप्रत्याशित चुनावों में संघ की निर्णायक भूमिका रही है। यह तथ्य इसलिये भी महत्वपूर्ण है कि संघ का नागपुर मुख्यालय महाराष्ट्र की राजनीति में प्रभावी घटक भी हो सकता है।