आत्ममंथन का वक्त
वाकई आपदाएं मानवीय त्रासदी की वजह तो बनती हैं, साथ ही समाज व सत्ताधीशों को सबक भी देती हैं। निस्संदेह, उत्तराखंड के उत्तरकाशी में ऑलवेदर रोड के लिये निर्माणाधीन सुरंग के धंसने से फंसे चालीस श्रमिकों ने देश की धड़कने थाम दी हैं। अच्छी बात है कि फिलहाल वे सुरक्षित हैं और पूरा देश उनके सुरक्षित बाहर आने की कामना कर रहा है। लेकिन इस दुर्घटना ने इंसान की सीमाओं और निर्माण कार्य में लगी एजेंसियों की खामियों को भी बताया है। जिन्होंने सुरंग में फंसे श्रमिकों को सुरक्षित निकालने के वैकल्पिक उपाय पहले से ही क्रियान्वित नहीं किये। सवाल यह है कि अब देशी मशीनों की विफलता के बाद अमेरिकी ऑगर मशीन से ड्रिलिंग करके जिस विशाल पाइप को श्रमिकों के जीवन रक्षा के लिये डाला जा रहा है, क्या वैसी वैकल्पिक व्यवस्था सुरंग निर्माण में पहले से नहीं की जानी चाहिए थी? उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी अब कह रहे हैं कि राज्य में निर्माणाधीन सभी सुरंगों की समीक्षा होगी। सवाल यह है कि हम आग लगने पर कुआं खोदने की प्रवृत्ति से कब मुक्त होंगे? क्यों नहीं सामान्य दिनों में ऐसे संवेदनशील निर्माण कार्यों की समीक्षा की जाती? क्या यह दुर्घटना निर्माण कार्य में लगी कंपनी की कार्यकुशलता पर प्रश्नचिन्ह नहीं है? सवाल यह भी कि जानते-बूझते हिमालयी पर्वत शृंखला में अपेक्षाकृत नये व संवेदनशील उत्तराखंड के पहाड़ों में भारी-भरकम विकास परियोजनाओं का निर्माण क्या तार्किक है? निश्चित रूप से पहाड़ों की संवेदनशीलता को ध्यान में रखकर बड़ी विकास परियोजनाओं को अनुमति देनी चाहिए। वर्ष 2013 की केदारनाथ त्रासदी के जख्म अभी भरे नहीं हैं। ग्लोबल वार्मिंग की वजह से मौसम के मिजाज में आए बदलाव के चलते पहाड़ों में कई तरह के नये संकट पैदा हो रहे हैं। कम समय में तेज बारिश होने से भू-स्खलन की घटनाओं में तेजी आई है। जो कालांतर बड़े संकटों का कारण बन जाते हैं। नीति नियंताओं को बड़ी विकास योजनाओं को अमलीजामा पहनाने से पहले इन बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
पुरानी कहावत है कि जब पहाड़ पर चढ़ना होता है तो हमें झुककर चलना होता है। सीधे खड़े होकर चलेंगे तो खाई में गिर जाएंगे। इसका अभिप्राय यह है कि पहाड़ में पारिस्थितिकीय संतुलन का भी ध्यान रखें। मैदान में होने वाले निर्माण कार्य का फार्मूला पहाड़ी इलाकों में नहीं चल सकता। फोरलेन रोड के फार्मूले का दंश पिछले दिनों हिमाचल ने बड़े पैमाने पर भूस्खलन के रूप में देखा। सड़कें चौड़ी करने के लिये पहाड़ का निचला हिस्सा काटने से ऊपर का हिस्सा संवेदनशील होकर भू-स्खलन का कारण बनता है। उत्तराखंड का इतिहास रहा है कि ऐसी तमाम बड़ी विकास परियोजनाओं के खिलाफ लंबे समय तक जनांदोलन हुए हैं। टिहरी बांध में प्राचीन शहर टिहरी की जलसमाधि रोकने को लंबा आंदोलन चला। चिपको आंदोलन वनों को बचाने के लिये लंबे समय तक चला। जिसमें पेड़ों का कटान रोकने के लिये महिलाएं अपनी जान की बाजी लगाकर पेड़ों से चिपक गई। विख्यात पर्यावरणविद् सुंदरलाल बहुगुणा के लंबे अनशन पहाड़ों के पर्यावरण संतुलन की उत्कट अभिलाषा को ही दर्शाते हैं। बहरहाल, उत्तराखंड सरकार का वह कथन स्वागत योग्य है कि राज्य में सभी निर्माणाधीन सुरंगों की समीक्षा की जाएगी। साथ ही उत्तराखंड व केंद्र सरकार ने दुर्घटना के बाद स्वागतयोग्य सक्रियता दिखायी है। निश्चित रूप से तंत्र की सक्रियता से उन सैकड़ों परिजनों का हौसला बढ़ा है जिनके परिजन धंसी सुरंग में फंसे हैं। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री कई बार घटनास्थल का दौरा कर चुके हैं। वहीं दूसरी ओर सड़क परिवहन एवं राजमार्ग राज्य मंत्री जनरल वी.के. सिंह उत्तरकाशी के सिलक्यारा पहुंचे। उन्होंने सुरंग में फंसे मजदूरों को निकालने के लिये चलाए जा रहे बचाव व राहत अभियान का निरीक्षण किया। निश्चित रूप से देश के बड़े निर्माण कार्यों में लगे श्रमिकों का मनोबल सरकार की सक्रियता से बढ़ेगा। भले ही फंसे श्रमिकों को निकालने में वक्त लगा है, विश्वास करें कि सभी श्रमिक सुरक्षित निकलें। सही मायनों में देश में इस तरह की दुर्घटनाओं व प्राकृतिक आपदाओं से मुकाबले के लिये प्रभावी अनुभव व संसाधन अर्जित करने की जरूरत है।