बाघ
दिनेश कर्नाटक
देखते ही देखते गांव में आए नए और अनजान व्यक्ति की खबर हर घर में पहुंच गई और उसे देखने के लिए गांव वालों की भीड़ लगने लगी। गांव मुख्य मार्ग से इतना दूर था कि वहां किसी अनजान या अपरिचित के आने की संभावना नहीं के बराबर थी। उस ओर का वह अंतिम गांव था। हिमालय के निकट शिखरों के बीच ऊंचाई और एकांत में किसी किले की तरह सुरक्षित। सयाने अपनी याददाश्त को टटोलते हुए कहते कि शायद ही कभी कोई यहां आया हो। देखने में वह व्यक्ति सीधा-सरल था, गांव के ही किसी नौजवान जैसा। गांव में आकर उसने शांत झील में फेंके गए पत्थर की तरह हलचल मचा दी थी।
व्यक्ति को लेकर कई तरह की बातें हो रही थी। कई तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही थी। सामान के नाम पर उसके पास एक पोटली थी। कह रहा था, अनाथ है। बचपन से ही इधर-उधर काम करके गुजर-बसर करता रहा है। काम की तलाश में आया था। ‘पहले वाली जगह से क्यों आया’ पूछने पर उसका जवाब था, उसे वहां परेशान किया जाता था और भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था। ‘यहां के बारे में किसने बताया’ के जवाब में उसका कहना था कि उधर की तरफ के लोगों ने बताया कि आगे जाकर एक गांव है, जहां खूब खेती-बाड़ी और मवेशी हैं। अच्छे लोग हैं। कोई न कोई काम मिल जाएगा।
बात सही थी। गांव सड़क और शहर से दूर जरूर था तथा सड़क गांव तक पहुंची नहीं थी, मगर गांव समृद्ध था। खेती के लिए खूब चौरस जमीन थी। बारहो मास पानी रहता। गांव के ऊपर की ओर बुग्याल था, जो मवेशियों के लिए स्वर्ग से कम नहीं था। गांव वाले दूध, घी और अपनी उपज बेचकर अच्छा पैसा कमा लेते थे। कभी पांचवीं और आठवीं तक पढ़ सकने वाले गांव के बच्चे अब बारहवीं और आगे की पढ़ाई के लिए बाहर जाने लगे थे। सड़क के गांव के करीब पहुंचने के साथ ही गांव के लोग अपना अतिरिक्त दूध और उपज लेकर शहर जाने लगे। तीन किमी पैदल जाते फिर जीप से शहर। सड़क के नजदीक पहुंचते ही गांव के जीवन के एकरस और शांत जीवन में जैसे हलचल मच गई थी। एक-दूसरे की देखा-देखी अधिक से अधिक कमाने की होड़ मचने लगी। नई-नई चीजें गांव में आती और उन्हें प्राप्त करने की ललक बढ़ती जाती। झगड़े होते मगर जल्दी ही शांत हो जाते थे।
भले ही होड़ और प्रतिस्पर्धा गांव में प्रवेश कर चुकी थी, लेकिन सयानों के सम्मान की परंपरा अभी बची हुई थी। बड़ों की बातों को अनसुना करने का रिवाज अभी शुरू नहीं हुआ था। माना जाता था कि सयाने गांव तथा लोगों के हित में ही अपनी राय देते हैं। उनकी राय को महत्व दिया जाता और उनके निर्णय के अनुसार आगे बढ़ा जाता। इसलिए जब इस व्यक्ति के आने की खबर आई तो सयानों का दिमाग इस ओर चलने लगा कि इस व्यक्ति का क्या किया जाए। ठीक है तो किसी काम में लगा दिया जाए और बुरा है तो गांव छोड़कर जाने को कह दिया जाए।
गांव भर के मवेशियों को चराने के लिए रोज हर घर के किसी एक सदस्य को जिम्मेदारी लेनी होती थी। लड़के-लड़कियों के स्कूल जाने के साथ हर घर में मवेशियों को चराने को लेकर क्लेश होता। बच्चे कहते, पढ़ाई का हर्जा होता है। बड़ों को खेत में या शहर जाना होता। सयानों को इस व्यक्ति के आने के साथ इस समस्या का समाधान होता हुआ दिखा।
पधान के घर के बरामदे पर सयानों के सामने उसकी पेशी हुई।
‘तेरा घर कहां है ?’
‘कहीं नहीं, जहां काम मिल गया वहीं घर बन जाने वाला हुआ।’
‘मां-बाप का कुछ पता है। कौन धर्म, कौन जात हो?’
‘कुछ पता नहीं है सैपो, बचपन से अपने को अकेला ही देखा।’
‘क्या काम कर सकते हो ?’
‘जो काम दोगे, वो करूंगा।’
सयानों को व्यक्ति गलत नहीं लगा। एक बुजुर्ग ने उससे कहा-‘गांव के जानवर चराने का काम करोगे? जिस घर की बारी होगी वो तुम्हारे खाने की जिम्मेदारी लेगा।’
सयानों ने उसे समझाया कि उसे अपना काम जिम्मेदारी से करना होगा। गाय, बकरियों, बैलों तथा भैंसों पर नजर रखनी होगी। कोई जानवर भटकना नहीं चाहिए। कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए। शिकायत मिली तो गांव से भगा देंगे।
‘सैपो आपको कभी शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।’ उसने कहा।
समय बीतता गया। इस चरवाहे ने इतनी जिम्मेदारी से काम किया कि पन्द्रह-बीस दिन बाद ही गांव के लोग उसकी तारीफ करने लगे। समय से उठता। समय से जानवरों को जंगलों की ओर लेकर जाता। समय से वापस लाता। सूर्यास्त से पहले खाये-अघाये हुए जानवर अपने गोठों में पहुंचकर जुगाली करने लगते। घरों का क्लेश खत्म हुआ सो अलग। इतना ही नहीं यह चरवाहा सुबह-शाम गांव वालों के और भी कई काम निबटा देता। बदले में उसे खूब आशीष के साथ मिलता दूध, दही, घी से चिपड़ी हुई रोटी और लोटा भर मट्ठा। छह महीने होते-होते वह गांव वालों का अपना हो गया।
एक दिन उस ने जंगल से गांव वालों को आवाज लगाई- ‘सुनो रे बाघ आ गया!’ उसकी पुकार सुनकर गांव के पुरुष लोग अपने-अपने काम छोड़कर जंगल की ओर भागे। उनके पहुंचने पर उसने कहा कि आप लोग आए अच्छा किया, मगर मैंने खुद ही बाघ भगा दिया। अपने जानवरों को सुरक्षित पाकर गांव वालों ने मन ही मन उसके साहस तथा बहादुरी की प्रशंसा की और समझाया कि जब भी ऐसा संकट आए वह धात दे दिया करे।
समय बीतता गया। गांव वाले अपने मवेशियों से निश्चिंत और इस व्यक्ति पर निर्भर होते चले गए।
महीनों बाद उसने फिर से गांव वालों को आवाज दी तो गांव के सहज विश्वासी लोग जंगल को दौड़ पड़े। मगर शंकालु और सवाल करने वाले लोगों का दिमाग खटका। उनके दिमाग में सवाल उठा कि इस बीच तो पूरे इलाके में बाघ की कोई खबर नहीं है। उन्हें पिछली बार बाघ का कहीं पर कोई निशान नहीं दिखा था। मगर सहज विश्वासी लोगों को किसी प्रकार का कोई शक नहीं था। चरवाहे ने उनके जीवन को इतना आसान बना दिया तो उसकी बात पर शक कैसे किया जा सकता है।
चरवाहे ने कहा कि बाघ के एक झुंड की नज़र हमारे जानवरों पर पड़ गई है। जानवरों को चराना अब आसान काम नहीं है, मगर उसके होते हुए गांव वाले चिंता न करें। वह अपनी जान लड़ा देगा, मगर जानवरों को कुछ नहीं होने देगा। उस ने अपनी जान जोखिम में डालकर बाघों को भगाने का किस्सा गांव वालों को सुनाया और अफसोस जताया कि बाघ दो मवेशी उठा ले गये। सहज विश्वासी विश्वास कर लौट गए। प्रश्न करने वाले तथा शंकालु लोगों की शंका बढ़ गई। वे बाघ व मवेशियों के संघर्ष वाली जगह देखना चाहते थे। मन ही मन सोचने लगे, खतरा चरवाहे को नहीं मवेशियों को है।
इस बीच गांव के एक छोटी जोत वाले ग्रामीण ने उसकी शादी अपनी इकलौती बेटी के साथ करा दी। अब वह गांव का जमाई बन चुका था।
चरवाहे ने तीसरी बार लोगों को आवाज लगाई, ‘सुनो रे बाघ आ गया!’ तीसरी बार भी लोगों ने जंगल की ओर दौड़ लगाई। पिछली बार की तरह वह खुद सुरक्षित था, मगर दो-तीन मवेशी फिर कम हो गए। गांव का एक बड़ा समूह दूसरे समूह से कहता है कि हमारे मवेशी बाघ के पेट में नहीं दूसरे गांव को ले जाये जाते हुए देखे गए हैं। दूसरा समूह चरवाहे जैसे जान जोखिम में डालने वाले गांव भक्त को गलत कहने के लिए पहले समूह को अपना शत्रु मानने लगा। गांव की एकता पहले जैसी नहीं रह गई थी। तनाव रहने लगा। सयाने कहते, इतना समय हो गया इस गांव में रहते, कभी बाघ द्वारा लोगों व मवेशियों को नुकसान पहुंचाते नहीं सुना। समझदार कहते, हम जंगल के बीच में हैं। यहां जंगली जीवों के बीच नैसर्गिक संतुलन बना रहता है। पालतू पशुओं को उठाने की नौबत ही नहीं आनी चाहिए।
सहज विश्वासी लोग चरवाहे की लच्छेदार बातों से प्रभावित होकर कहते, उसने अपना जीवन हम लोगों के लिए समर्पित कर दिया है। दिन भर मेहनत में जुटा रहता है। सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ता। समझदार लोग सवाल उठाते- बाघ चरवाहे को कभी क्यों नहीं खाता? सच तो यह है कि वह गांव वालों के जानवरों को बेचता है और उसने सीधे-सरल, एकजुट गांववासियों को दो गुटों में बांटकर लड़ते-झगड़ते गांव में बदल दिया है।
बाघ का आतंक गांव की सबसे बड़ी समस्या बन गया। चरवाहे ने सहज विश्वासी लोगों को समझाया कि उसके शरीर में देवता आता है और वह अपनी दैवीय शक्ति से गांव को बाघ के आतंक से मुक्त करा देगा। सहज विश्वासी लोग इस बात को जानने के बाद उस पर और भी विश्वास करने लगे और उसे पधान के चुनाव में प्रत्याशी घोषित कर दिया।
समझदार तथा जागरूक लोग अब खुलकर चरवाहे के विरोध में आ गए। उन्होंने कहा, बाघ गांव की समस्या नहीं है। यह सब इसकी धूर्तता है। मगर किसी ने उनकी नहीं सुनी और चरवाहे को गांव का पधान चुन लिया गया। चरवाहा अब जंगल नहीं जाता। उसने फिर से गांव वालों को चरवाहे के काम में लगा दिया। फिर एक दिन खबर आई कि बाघ ने उसके एक प्रमुख विरोधी को खा लिया। उसने गांव वालों से कहा कि यह बाघ नरभक्षी हो चुका है और वह उसे शीघ्र ही मरवा देगा। तब से गांव वाले बाघ के मारे जाने का इंतजार कर रहे हैं और पधान ब्लॉक प्रमुख का चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहा है।
(यह कहानी पंचतंत्र की एक मशहूर कहानी से प्रेरित है।)