विनम्रता का पाठ भी तो पढ़ें सत्ताधीश
महात्मा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर देश में प्रतिबंध लगा दिया गया था। फिर तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने इस शर्त के साथ प्रतिबंध हटाया था कि संघ राजनीतिक गतिविधियों में हिस्सा नहीं लेगा। तब से लेकर अब तक गंगा में बहुत-सा पानी बह चुका है। वह प्रतिबंध कब और कैसे हटा, अब उसकी बात भी नहीं होती। जनसंघ के ज़माने से भाजपा तक की यात्रा में देश ने संघ की राजनीतिक भूमिका को स्पष्ट देखा है। जहां तक भाजपा के सत्ता में आने का सवाल है, संघ की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। सब जानते हैं कि भाजपा संघ की राजनीतिक शाखा के रूप में ही विकसित हुई है। यह बात दूसरी है कि अब भाजपा का नेतृत्व अपनी स्वतंत्र सत्ता को मज़बूत बनाना चाह रहा है। पार्टी के वर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा ने तो इस बार के चुनाव में स्पष्ट घोषणा कर दी थी कि अब भाजपा को संघ की बैसाखी की आवश्यकता नहीं है।
बहरहाल, यह बात दूसरी है कि संघ की महत्ता को नकारने वाले भाजपा नेतृत्व को चुनाव के आखिरी दौर तक पहुंचते-पहुंचते यह समझ आने लगा था कि उससे ग़लती हो गयी। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। संघ के नेतृत्व ने भी यह बताने-जताने में देरी नहीं की कि पार्टी के नेतृत्व का ‘घमंड’ उसके पराभव का कारण बनेगा। आरएसएस के सर संघचालक मोहन भागवत ने तो हाल ही में अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए यह स्पष्ट कह दिया है कि आम-चुनाव में भाजपा को अपेक्षित विजय न मिलने का कारण भाजपा के शीर्ष-नेतृत्व का घमंड ही है। उन्होंने अपने संबोधन में भाजपा या शीर्ष-नेतृत्व का नाम भले ही न लिया हो, पर किसी से यह छिपा नहीं रहा कि उनका आशय प्रधानमंत्री मोदी के तौर-तरीके से है।
यह सही है कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने लोकसभा में लगातार तीसरी बार विजय प्राप्त की है, लेकिन सही यह भी है कि प्रधानमंत्री मोदी को सन् 2014 में जितना जन-समर्थन मिला था उसकी तुलना में इस बार मिला समर्थन कहीं कम है। दस साल पहले भाजपा के सांसदों की संख्या 282 थी, जबकि 2024 में यह संख्या घटकर 240 रह गयी है। इसमें कोई संदेह नहीं शासन के समय के साथ सत्ता विरोधी लहर का असर पड़ता है, पर 350 सीटों पर विजय का दम भरने वाले दल को पूर्ण बहुमत भी न मिल पाना यह भी बताता है कि ‘एक अकेला सब पर भारी’ का दावा करने वाले नेतृत्व पर सत्ता का नशा भी छाने लगा था। संघ के सर्वोच्च नेता मोहन भागवत ने इसी नशे की ओर इशारा करते हुए भाजपा को चेतावनी दी है।
रामचरितमानस में एक चौपाई है– ‘नाहीं कोऊ जन्मियो जग माही, प्रभुता पाय जाही मद नहीं’। अर्थात् प्रभुता का नशा किस पर नहीं चढ़ता। दुनिया के तमाम देशों का इतिहास साक्षी है कि सत्ता के घमंड ने बड़े-बड़ों को आईना दिखाया है। इसलिए आदर्श शासक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह विनम्रता के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करेगा। यूं कहने को हर शासक स्वयं को ‘सबसे बड़ा सेवक’ अथवा ‘चौकीदार’ कहता है, पर हमने देखा है कि इस ओढ़ी हुई विनम्रता का सच अंततः उजागर हो ही जाता है।
यह कहना तो सही नहीं होगा कि सिर्फ घमंड के कारण भाजपा को इस बार अपेक्षित सफलता नहीं मिली, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि अब ‘हमें संघ की मदद की आवश्यकता नहीं रही’ जैसी भावना मन में आना भी भाजपा की वर्तमान स्थिति का एक बड़ा कारण है। इस तरह का घमंड किसी भी शासक को कमज़ोर ही बनाता है। अपने ही देश में हमने इंदिरा गांधी को सत्ता के शीर्ष से लुढ़कते देखा है। यह प्रभुता का मद ही था जिसने उन्हें देश में आपातकाल लागू करने की बुद्धि दी। ‘इंदिरा इज इंडिया’ जैसा नारा देने वाले उनके अनुयायियों ने ही संभवत: उन्हें यह अहसास कराया था कि वे सर्व शक्तिशाली हैं! यह अच्छी बात है कि उनका सत्ता का नशा जल्दी ही उतर गया और उन्होंने चुनाव की घोषणा करके जनतंत्र को फिर से पटरी पर ला दिया।
सरसंघचालक भागवत का यह घमंड वाला बयान भी हमारे शासकों को यह चेतावनी देने वाला है कि वह राज करने के लिए नहीं, शासन व्यवस्था चलाने के लिए चुने जाते हैं। भागवत के बयान के पीछे भाजपा द्वारा संघ की अनदेखी करना भी एक कारण हो सकता है, लेकिन इसके पीछे के इस भाव को भी समझा जाना चाहिए कि सत्ता में बैठने वालों को विनम्रता का पाठ भी पढ़ना होता है। भागवत ने यह कहना भी ज़रूरी समझा कि चुनाव-प्रचार के दौरान जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया गया वह भी विनम्रता और शालीनता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। भले ही वह समूचे राजनीतिक नेतृत्व का हवाला देने लगें, पर हकीकत छिपी नहीं है कि उनका संकेत मुख्यत: किस ओर था।
नि:संदेह, आरोप-प्रत्यारोप लगाना स्वाभाविक है, शब्द कुछ कटु भी हो सकते हैं, पर दुश्मन और प्रतिपक्षी के अंतर को समझना ज़रूरी है। हमारे राजनेताओं को समझना होगा कि सत्तारूढ़ पक्ष और विपक्ष दोनों को मतदाता ने चुना है, दोनों को जनता की भलाई के लिए काम करना है। जनतंत्र में विरोधी दुश्मन नहीं प्रतिपक्षी होता है। दोनों से यह अपेक्षा की जाती है कि वह नम्रता के साथ अपना दायित्व संभालेंगे। लेकिन हमारे राजनेता जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं, उसका समर्थन नहीं किया जा सकता।
सिर्फ चुनाव-प्रचार में ही नहीं संसद और विधानसभाओं में भी हमारे नेता जैसा व्यवहार करते हैं, जैसी भाषा काम में लेते हैं, वह कई बार शिष्टता की सीमा लांघ जाती है। इसके पीछे भी अक्सर घमंड का वही भाव होता है, जिसकी बात श्री भागवत ने की है।
हमारे नेतृत्व को ‘मैं’ की जगह ‘हम’ का प्रयोग करना सीखना होगा। जब कोई प्रधानमंत्री छाती ठोक कर ‘सब पर भारी’ होने की बात करता है तो वह सामूहिक सोच की महत्ता पर सवालिया निशान लगा रहा होता है। जब संघ के मुखिया यह कहते हैं कि चुनाव में अपेक्षित सफलता न पाने के पीछे प्रधानमंत्री मोदी का स्वयं को ‘सेवक’ के बजाय ‘शासक’ समझना एक बड़ा कारण था तो वे एक तरह से इस ‘मैं’ की प्रवृत्ति को समझने की ही बात कर रहे थे— ‘एक असली सेवक कभी भी अपनी उपलब्धियों पर गर्व नहीं करता’ और न ही उन्हें अकेले की प्राप्ति मानता है। जब कोई शासक यह मानने लगता है कि ईश्वर ने उसे किसी विशेष प्रयोजन के लिए भेजा है तो इसके पीछे सिर्फ वह घमंड होता है जो किसी के लिए भी उचित नहीं माना जाना चाहिए। जब कोई सत्ताधीश यह दावा करता है कि ‘मैंने अस्सी करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज दिया’ तो यह कहने का मन करता है कि अनाज उसका नहीं, देश का है; निर्णय एक व्यक्ति का नहीं, पूरी सरकार का है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तौर-तरीकों से, नीतियों से, मान्यताओं से किसी का विरोध हो सकता है, पर जब संघ का मुखिया ‘प्रभुता पाय काहि मद नाहीं’ से बचने की बात कहता है तो इसके पीछे की भावना का समर्थन होना चाहिए। स्वयं को ईश्वर का अवतार समझने अथवा, ईश्वर का दूत मानने की प्रवृत्ति व्यक्ति की कमज़ोरी का प्रमाण है, उसकी ताकत का नहीं। भाजपा लगातार तीसरी बार सत्ता में अवश्य आई है, पर पहले से कम समर्थन के साथ— अपनी कथित उपलब्धियों पर घमंड करने वालों को यह बात ध्यान में रखनी होगी!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं