सोच
अशोक जैन
हरी बाबू परेशान से हो गये। बिटिया की शादी से कुछेक घण्टे पहले जो खबर उन्हें दी गयी, वह परेशान करने के लिए काफी थी। विवाह की लगभग सारी तैयारियां हो चुकी थीं- विवाह हाथ के बाद चूड़ा पहनाने की रस्म तक हो चुकी थी। कुछ घण्टे ही शेष बचे थे बारात आने में।
‘हरी!’ बाहर से आते हुए उनकी मौसी ने आवाज़ लगाई। वह इसी क्षेत्र में रहती थीं।
‘हां, मौसी। प्रणाम। कैसी हैं आप? आज सुबह से नहीं आई!’
‘अरे, मैं तो ठीक हूं। क्या कर रहे हो तुम?’ उनके स्वर में चिंता और आश्चर्य दोनों थे।
‘क्या हुआ?’ हरी मुस्काये।
‘मुस्काने की बात नहीं है। जानते हो किस परिवार में रिश्ता कर रहे हो?’
‘...’ चुपचाप देखते भर रहे हरी बाबू।
‘इनके बड़े लड़के ने अपनी ससुराल से नहीं निभायी, जो यहीं है इसी कॉलोनी में।’
‘तो क्या? परिवार में हर तरह के लोग होते हैं। फिर यह रिश्ता देखभाल करके ही किया है। अपनी बहन के मामा ससुर का लड़का है।’
‘परिवार तो एक ही है दोनों का!’
‘आप भी क्या लेकर बैठ गईं! सभी कुछ तो हो चुका अब! पीछे मुड़ने का सवाल ही नहीं है! और सभी भाई अपने अपने व्यवसाय करते हैं, अलग-अलग रहते हैं। और हां, यही लड़का मां-बाप से सबसे अधिक निकट है।’
मौसी चुप रही। हरी बाबू के मन में आशंका का बीज उग रहा था। वे सोचने लगे...
...जब वे लड़का देखने गये थे, पूछने पर उसने बताया था...
‘जितना कमाता हूं वह फिलहाल अपने परिवार के लिए पर्याप्त है। हां, परिवार को भूखे नहीं सोने दूंगा।’
...लड़के में अपनी सोच है, वह किसी दूसरे भाई पर आश्रित नहीं है। जबकि तीन भाई आसपास रहते हैं, वह अपना व्यवसाय अलग करता है- कोचिंग का...
तभी बाहर बादलों के गरजने से उनकी तंद्रा टूटी। बारिश होने लगी तो हरीबाबू सपरिवार तैयारी में जुट गये।