मनमौजी लोकतंत्र के ये लाड़ले सुकुमार
केदार शर्मा
बात उन दिनों की है जब बिजली नहीं हुआ करती थी। जेठ की तपती दोपहरी में किसी राजदरबार में कोई सौदागर हाथ से हवा करने वाली पंखी बेचने आया। उसने कहा, ‘राजन यह हजारों साल चलने वाली पंखी है और इसकी कीमत भी हजारों में है।’ राजा ने एक पंखी खरीद ली परंतु वह दूसरे दिन ही टूट गई। सौदागर को ढूंढ़कर दरबार में पेश किया गया। सौदागर ने सफाई दी, ‘राजन पंखी इसलिए टूटी क्योंकि आपके हवा करने का तरीका सही नहीं था। सही तरीका यह था कि पंखी को चेहरे के सामने स्थिर रखकर गर्दन और चेहरे को दाएं-बाएं जोर से हिलाया जाए। जितनी जोर से गर्दन हिलेगी उतनी ही बढि़या हवा आएगी और पंखी हजारों साल चलेगी सो अलग।
यही हाल मतदान नहीं करने वाले लोगों का रहा। सारा तंत्र हिलने के बाद भी कुछ लोकगण (जिनको हिलना था) टस से मस नहीं हुए। खूब नारे लगे, नुक्कड़ नाटक हुए, स्वीप कार्यक्रम चलाया गया। पर नत्थू जैसों के जूं तक नहीं रेंगी। बोला, ‘कौन इस तपती दोपहरी में घर से निकले। शादी में जाएंगे, मौसर में जीमेंगे, बारात में जाएंगे, नाचेंगे, गाएंगे, घूमेंगे, फिरेंगे, पर वोट देने नहीं जाएंगे, और क्या? सो नतीजा वही ढाक के तीन पात। कहीं साठ तो कहीं सत्तर तो कहीं ये प्रतिशत और लुढ़कता दिखाई दिया।
अब उम्मीदवार और पार्टियां विधवा विलाप कर रहे हैं- कोई कह रहा है, हो न हो इन वोट नहीं देने वालों का वोट हमारी ही झोली में जाने से रह गया हो? ये बचे हुए नत्थू भी वोट दे देते तो हो न हो हमें बहुमत मिल जाता। मगर इन नत्थुओं का करें तो क्या करें? ये तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लाड़ले सुकुमार जैसे हैं। वोट देना ऐच्छिक है, अनिवार्य नहीं है, इसी सुविधा का ये फायदा उठाते हैं पर वोट देने की दुविधा नहीं उठाते हैं। जहां कर्तव्य की बात आती है तो ‘हम भले और हमारा परिवार भला’ की नीति अपनाते हैं और इसीलिए वोट देने नहीं जाते हैं। ये जानते हैं रेवडि़या मिलेंगी तो सबको मिलेंगी। नागरिक अधिकार सबके बराबर रहेंगे। इनकी स्वार्थपरता इनको कहती है कि वोट तो नेताओं के और पार्टियों के लाभ-हानि का मामला है। मैं क्यों अपना समय खराब करूं?
दरअसल, ये वे ही लोग हैं जो या तो कानून के प्रभाव से काम करते हैं या अभाव के दबाव में आकर लोभवश काम करते हैं परंतु ये स्वभाव से काम करने वालों में से नहीं हैं। लोकतंत्र में यही तो मजे हैं कि कहीं-कहीं गधे-घोड़े सब बराबर हो जाते हैं तो कहीं-कहीं गधों-गधों में ही रात-दिन का फर्क आ जाता है। अब बुद्धिजीवी बजाते रहें ‘अपनी ढपली अपना राग’ कि भाई मतदान अनिवार्य करने पर विचार करो। कब तक भैंसों के आगे स्वीप कार्यक्रम की बीन बजाते ही रहोगे। पंखी के आगे गर्दन हिलाने के बजाय गर्दन के आगे हाथ हिलाकर पंखी करने दो।