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मिलावट इतनी कि शुद्ध खाएं, फिर भी बीमार हो जाएं

06:35 AM May 01, 2024 IST
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नरेश कौशल

डेढ़ साल की राबिया को क्या पता था कि जब वह पटियाला से ननिहाल के लाड़-प्यार की मिठास से भरी चॉकलेट लुधियाना आकर खाएगी तो उसकी जान पर बन आएगी। दुर्भाग्य से इस लाड़-प्यार के रिश्तों के बीच बेरहम बाजार आ गया। बाजार जो सिर्फ मुनाफे का पीर है। कोई मासूम मरे या जीये, उसकी बला से। चॉकलेट खाकर बच्ची बहुत बीमार हो गई। बड़े अस्पताल ले जाया गया तो डॉक्टरों ने किसी जहरीली चीज खाने की बात कही। बात चॉकलेट की आई, रैपर देखा गया तो चॉकलेट की एक्सपाइरी डेट छह महीने पहले खत्म हो चुकी थी। यह दुखद संयोग ही है कि पिछले दिनों पटियाला में ही जन्मदिन पर ऑनलाइन मंगवाए गए केक को खाने से एक ‘बर्थडे गर्ल’ की मौत हो गई थी। जांच पड़ताल के बाद पता चला था कि किसी बेकरी का मालिक दूसरी जगह से अलहदा नाम से बेकरी का सामान ऑनलाइन बेच रहा था। पक्की बात है, ये कानून से बचने-बचाने की तरकीब थी। इस चाकलेट व केक बेचने वाली दुकानों का इलाका पटियाला में पीली सड़क के आसपास का ही है।
यह संयोग ही है कि पिछले कुछ अरसे से देश में कई ऐसे खुलासे हुए, जिनमें बताया गया कि दशकों से हम जिन उत्पादों को तंदुुरुस्ती संवारने वाला मानते आ रहे थे, वे तो सेहत के लिये नुकसानदायक निकले। पहले खुलासा हुआ कि बॉर्नविटा व सेरेलेक्स में बहुराष्ट्रीय कंपनियां आवश्यकता से अधिक शूगर मिलाकर विकासशील व गरीब मुल्कों के बच्चों के जीवन से खिलवाड़ कर रही हैं। यह भी खुलासा हुआ है कि व्यंजनों को लजीज बनाने, रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने व पाचन सुधारने वाले कुछ कंपनियों के मसालों में सेहत को नुकसान पहुंचाने वाले तत्व पाये गए हैं। मसालों को सुरक्षित रखने के लिये कीटनाशक जैसे पदार्थ मिलाए गए हैं। भारत में तो लोग जैसे-तैसे इन्हें खा ही रहे हैं अब तो दुनिया के कई मुल्कों में भी दो भारतीय मसाला कंपनियों की साख पर सवाल उठाये जा रहे हैं। सिंगापुर व हांगकांग का दावा है कि दो भारतीय कंपनियों के मसाला पैकेटों में सेहत के लिये हानिकारक पदार्थ पाए गए हैं। सैकड़ों सालों से भारत की पहचान रहे मसाले न केवल रोगनाशक बल्कि इम्यूनिटी बढ़ाने वाले भी होते हैं। याद करें कि कोरोना संकट में इन मसालों ने ही देश के लोगों का मनोबल बनाये रखने में खासी मदद की।
आये दिन हम मिलावटी खानपान की चीजों की बरामदगी की खबरें पढ़ते हैं। कुछ लोग बीमार होते हैं, कुछ अपना जीवन गवां बैठते हैं। लेकिन सुनने में नहीं आया कि किसी हादसे के बाद किसी की जवाबदेही तय करके बड़ी सजा दी गई हो। ऐसी सजा जो दोषियों के लिये सबक का फैसला साबित हो। आज आखिर बचा ही क्या है बिना मिलावट के? दूध, बेसन, घी, पनीर, खोया, दवाइयां, दैनिक जरूरत की चीजें आटा, चावल व दालें भी मिलावट की चपेट में हैं। यहां तक कि पानी तक में मिलावट है। इस मिलावट का ही असर है कि कम उम्र में लोग बड़ी उम्र की बीमारियों से पीड़ित होने लगे हैं। जिन अधिकारियों व कर्मचारियों पर खाने-पीने की चीजों की निगरानी की जिम्मेदारी है, वे होली-दीवाली पर दिखावटी अभियान चलाकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते हैं और जेबें भी भर लेते हैं। कुछ स्थानों पर छापेमारी होती है और कुछ जगह नमूने भरे जाते हैं। फिर ढाक के वही तीन पात। होना तो यह चाहिए कि शासन-प्रशासन ऐसे सख्त कदम उठाये कि कोई फिर से मिलावट करने का दुस्साहस न कर सके। वैसे लोगों को सचेत करने की भी जरूरत है।
यह कैसी अजीब स्थिति है कि अब तक हम जिन प्रॉडक्ट को दशकों से सेहत के लिये वरदान मानते रहे हैं, अब खुलासा हुआ कि वे तो सेहत के लिए नुकसानदायक हैं। ऐसे कई देसी-विदेशी उत्पादों के खुलासे एक साथ हुए। इसी कड़ी में उत्तराखंड सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल किया है कि राज्य सरकार ने पतंजलि आयुर्वेद के 14 उत्पादों का निर्माण लाइसेंस निलंबित किया है। राज्य सरकार की ओर से बताया गया है कि स्टेट लाइसेंसिंग अथॉरिटी की ओर से भ्रामक प्रचार मामले में दिव्य फार्मेसी और पतंजलि आयुर्वेद के उत्पाद मामलों में यह कार्रवाई की गई है।
जो भी हो, सुप्रीम कोर्ट ने इस साल न्यायिक जिम्मेदारी का नमूना पेश किया। जिस तरह पतंजलि आयुर्वेद के कर्ताधर्ताओं की क्लास लगाई, उसे पूरे देश ने देखा और मीडिया के जरिये आम लोगों ने महसूस किया। लेकिन अदालत ने इसमें याचिका दायर करने वाली आईएमए को भी नहीं बख्शा। अदालत ने सख्त लहजे में कहा कि एक उंगली यदि बाबा रामदेव की तरफ उठी तो चार तुम्हारी तरफ भी उठी हैं। तुम्हारा दामन भी पाक साफ नहीं है। नाराज न्यायाधीशों ने कहा कि आखिर कौन दवा कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए महंगी-महंगी दवाएं लिखता है? इसी बीच खबर आई कि बच्चों के लिये स्वास्थ्यवर्धक बताये जाने वाले बॉर्नविटा की पड़ताल में पता चला कि उसमें चीनी की मात्रा यूरोपीय व अमेरिकी देशों में बेचे जाने वाले उत्पाद के मुकाबले काफी ज्यादा थी। चीनी की यह मात्रा एशिया व अफ्रीका के गरीब मुल्कों में बेचे जाने वाले बॉर्नविटा में भारत से भी ज्यादा थी। लेकिन यूरोप व अमेरिकी देशों में बॉर्नविटा में यह मात्रा स्वास्थ्य मानकों के अनुरूप ही रही। बाद में कंपनी ने दावा किया कि भारत में बेचे जाने वाले बॉर्नविटा में चीनी की मात्रा तीस प्रतिशत कम कर दी गई है। कभी संपन्न वर्ग के बच्चों का पसंदीदा स्वास्थ्यवर्धक पेय बताये जाने वाला बॉर्नविटा स्टेटस सिंबल माना जाता था। बड़े मोहक व भ्रामक विज्ञापन इसकी तारीफ में गढ़े जाते रहे हैं। गरीब बच्चों के लिये तो बॉर्नविटा का स्वाद चखना एक सपना हुआ करता था। कई पुराने फिल्मी व टीवी कलाकार उपभोक्ताओं को लुभाने के लिये अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल करते रहे। इसी तरह यूरोपीय कंपनी नेस्ले ने भी अपने उत्पादों में चीनी व अन्य हानिकारक पदार्थ हटाने की बात कही थी।
सवाल है कि भारत में खाने-पीने की क्वालिटी की निगरानी करने वाली एजेंसियां क्यों चुप्पी साधे बैठी रहती हैं। अपने-आप पहल करते हुए तथाकथित विदेशी सेहत बढ़ाने वाले प्रॉडक्ट तथा स्वदेशी आयुर्वेदिक दवाओं की गुणवत्ता की पड़ताल क्यों नहीं करतीं? यदि बच्चों को दिये जाने वाले कथित पेय पदार्थों में वास्तव में नुकसानदायक पदार्थ मौजूद हैं तो फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने जांच क्यों नहीं की? क्यों करोडों भारतीयों बच्चों की सेहत को भगवान भरोसे छोड़ दिया गया?
एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह भी है कि देश के शहरों-कस्बों में कथित खानदानी वैद्य, चमत्कारी इलाज, यौवन और ताकत की दवाएं बेचते रहते हैं। कुछ धर्म परिवर्तन कराने वाले भी चमत्कारी इलाज का दावा करते हैं। उनकी निगरानी करने वाला कोई महकमा अभी तक नहीं बना। वे सीधे-साधे ग्रामीणों को छलते रहते हैं। इतना ही नहीं, ट्रेनों व बसों में कथित हकीम दवा बेचते और इलाज की शर्तिया गारंटी देते मिलेंगे। इन दवाओं को खाने से कई लोगों के लीवर व किडनी तक खराब हो जाते हैं। लेकिन सेहत से खिलवाड़ की जवाबदेही तय करने वाला कोई विभाग नहीं बना।
दुखद है कि होटलों, ढाबों में व खोमचों में खाने-पीने का सामान बेचने वालों की योग्यता और खाने की गुणवत्ता की जांच करने वाले निरीक्षक कभी अपनी ड्यूटी को निभाते नजर नहीं आते। मोटी-मोटी रकम देकर निरीक्षक पदों पर तैनात लोग इस रकम को कई गुना करने के खेल में लगे रहते हैं। दीवाली और अन्य त्योहारों में बाजार में खाेया व मिठाई की बहुतायत हैरान करने वाली होती है। सवाल यह उठता है कि जब पशुधन लगातार सिमट रहा हो। गोवंश को लगे रोग से लाखों गायें मर रही हों, फिर भी बाजार में दूध व खोये की कोई कमी नहीं दिखी! कहां से आ रहा है यह पनीर व खोया? आखिर कब तक देश के लोगों की सेहत से खिलवाड़ यूं ही होता रहेगा? हमारे हुक्मरान कब नींद से जागेंगे? क्यों नहीं हर शहर-गांव में खाने की चीजों व दूध की तुरत-फुरत जांच करने वाले केंद्र बनाए जाते? अंत में इसी आशा के साथ; वह सुबह कभी तो आयेगी।

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