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परहित सरिस  धर्म नहीं भाई

10:02 AM Apr 22, 2024 IST
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सुदर्शन
यदि जीवन का उद्देश्य केवल अपने पेट का भरण-पोषण होता तो संभवतः विश्व में सभ्यता और संस्कृति का पतन हो गया होता। संस्कृति का मूलाधार उन तपस्वियों और मनीषियों के जीवन का त्याग है जिन्होंने अपना समस्त जीवन ही संसार के सत्य को जानने के लिए अर्पित किया है। अत: स्पष्ट है कि वास्तव में संस्कृति की पवित्र धारा सदैव जन-कल्याण और लोक-मंगल की भावना से युक्त रहती है।
ज्ञान की दृ‌ष्टि से विचार करें तो अपने-अपने जीवन का पालन करना सभी का कर्तव्य है यदि मनुष्य अपने हित के अतिरिक्त दूसरों के हित की भी सोचे तो वह मानवता का धर्म है। जो अपने हित की परवाह किए बिना दूसरों की भलाई के लिए तत्पर रहता है और अपना जीवन भी न्योछावर कर देता है वह सच्चे अर्थों में देवता बन जाता है। वेद व्यास जी ने सभी पुराणों का सार इन शब्दों में प्रकट कर दिया है :-
अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम‍्।
परोपकार: पुण्याय: पापाय परपीडनम‍्॥
अट्ठा‌रह पुराणों की रचना करने वाले व्यास जी ने उन सबका सार दो शब्दों में ही कह दिया कि दूसरों की भलाई ही पुण्य है और दूसरों को कष्ट देना ही पाप है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इस भावना को, समस्त धर्मों के सार को इस चौपाई में स्पष्ट कर दिया है :-
परहित सरिस धर्म, नहीं भाई।
परपीड़ा सम नहिं अधमाई॥
जब प्राणी सभी के प्रति अपने धर्म को पहचानता है तो यहीं उसकी विश्व दृष्टि हो जाती है। वह ‘स्व’ और ‘पर’ की भावना से अलग हो जाता है और सारा विश्व ही उसे अपना परिवार जैसा दिखाई देता है।
हमारी संस्कृति ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम‍्’ का जो उपदेश दिया है वह इसी पुनीत भावना पर आधारित है कि जब हम दूसरों के दुख में दुख को अनुभव करते हैं तब दूसरा भी हमारे दुख को अनुभव करता है। अपना जीवनयापन तो पशु भी करता है लेकिन मनुष्य केवल अपने लिए ही नहीं जीता, उसके जीवन का लक्ष्य दूसरों का कल्याण भी होता है। यही संस्कृति की पवित्र धारा है।
आज विश्व में जो उत्पात मचा हुआ है वह इसीलिए है कि लोग अपने-अपने स्वार्थों में खोए हुए हैं। उन्हें दूसरों की कोई परवाह नहीं होती। अपने भले के लिए दूसरों का शोषण करते हैं। उनके जीवन से खेलते हैं। हमारे इतिहास और पुराणों में एक नहीं अनेक ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपने जीवन को दूसरों के लिए समर्पित कर दिया था। दधीचि, रंतिदेव, शिवि आदि ऐसे उदाहरण हैं। स्वतंत्रता के लिए प्राणों की बाजी लगाने वाले वीरों के जीवन के आदर्श भी यही रहे हैं कि—
निज हेतु बरसता नहीं व्योम से पानी।
हम हों समष्टि के लिए व्यष्टि-बलिदानी॥

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