रहने को घर नहीं है, सारा जहां हमारा!
पंकज चतुर्वेदी
देश के अन्य भागों की तरह राजधानी दिल्ली इन दिनों कड़ाके की सर्दी से ठिठुर रही है। सत्ता के केंद्र इस महानगर में कई लोग जाड़े के कारण दम तोड़ चुके हैं। दिल्ली सरकार आंकड़ों को स्वीकार कर रही है कि पिछले दो सालों की तुलना में इस बार ठंड से मरने वालों की संख्या अधिक है। सरकारी एजेंसियों से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार एक से 22 जनवरी के बीच दिल्ली में तकरीबन 180 लोग जाड़े के चलते अपनी जान से हाथ धो बैठे। इनमें से 80 फीसद लोग बेघर थे। मरने वालों में 30 प्रतिशत वे थे जो पहले से बीमार थे और यह ठंड झेल नहीं पाए।
सेंटर फॉर हॉलिस्टिक डेवलपमेंट (सीएचडी) और दिल्ली सरकार की स्वायत्त संस्था दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड (डुसिब) के साथ मिलकर बेघरों की मौतों का आंकड़ा एकत्रित करते हैं। इसमें दिल्ली पुलिस व अन्य निजी एजेंसियां विभिन्न अस्पतालों के पोस्टमार्टम हाउस में रखे गए शवों की शिनाख्त के जरिए इनकी पहचान करती हैं।
वहीं दूसरी ओर, आश्रयगृहों का हाल यह है कि बुनियादी सुविधाएं बेहाल हैं। आसमान के नीचे जिंदगी असमय मौत का शिकार हो रही है। सरकार का संवेदनशील होना बहुत जरूरी है। सत्ता के केंद्र लुटियंस दिल्ली के कई इलाकों में खुले में रात बिताने वाले दिख जाते हैं। कई ऐसे इलाके हैं‚ जहां बेघर फुटपाथ पर सोते और अलाव के सहारे रात गुजारते दिख जाएंगे। चिकित्सक बताते हैं कि यदि पेट खाली हो तो ठंड की चोट जानलेवा हो जाती है।
दिल्ली सरकार के अनुसार रैनबसेरों में हर रात बीस हजार लोग आश्रय पा रहे हैं। इनमें स्थाई भवन केवल 82 हैं। पोर्टा केबिन वाले 103 और अस्थाई टेंट वाले 134 रैनबसेरे सरकारी रिकार्ड में हैं। इसके बावजूद कई फ्लाई ओवर के नीचे हजारों लोग रात काटते मिल जाएंगे। इन रैनबसेरों में मूलभूत सुविधाएं तक नहीं हैं। खासकर औरतों के लिए शौचालय, कपड़े बदलने की जगह या अपना सामान सुरक्षित रखने की कोई व्यवस्था है नहीं। इन आश्रयघरों में कोई सुरक्षा की व्यवस्था नहीं है। बहुत से नशेड़ी और असामाजिक तत्व इन पर कब्जा किए हुए हैं। यहां दरियां-चादरें सीलनभरी और चूहों द्वारा कुतरी हुई होती हैं। ऐसे स्थान पर रात बिताने वालों को सांस लेने में तकलीफ होती है‚। सूखी खांसी, ‚सीने में दर्द और हाथ-पैर सुन्न होने जैसी तकलीफ तो आम शुमार है। सबसे दर्दनाक हालात एम्स व सफदरजंग अस्पताल के पास के हैं, वहां बीमार व उनके साथ आए तिमारदारों की संख्या हजारों में है, जबकि दो रैनबसेरों की क्षमता बामुश्किल 150 है। लोग सारी रात भीगते दिखते हैं ओस व कोहरे में। नए बीमार अस्पताल की शरण में चले जाते हैं। मीना बाजार व जामा मस्जिद के रैनबसेरों में सात से आठ सौ लोगों के सोने की जगह है। दिल्ली की त्रासदी है कि यहां के रैनबसेरे गैर-सरकारी संगठनों के बदौलत हैं और वहां काम करने वाले कर्मचारी बहुत मामूली वेतन पाते हैं। सरकारी प्रश्रय वाले संगठनों को ये रैनबसेरे बांट दिए जाते हैं और फिर कोई उनकी सुध लेता नहीं।
एक तो कड़ाके की ज्यादा ठंड, ऊपर से न ओढ़ने-बिछाने को पर्याप्त साधन, न ही पौष्टिक भोजन, न्यूनतम स्वास्थ्य सेवा की तो बात ही क्या की जाए। अनुमान है कि दिल्ली और उससे सटे यूपी-हरियाणा के जिले, जिन्हें एनसीआर कहा जाता है, में कोई दो लाख लोग बेघर हैं। हाल ही में गाजियाबाद में तो प्रशासन ने आदेश दिया है कि रैनबसेरों में रहने वालों की नियमित स्वास्थ्य जांच हो। दिल्ली के सब्जी मंडी मोर्चरी के रिकार्ड में दर्ज है कि वहां रखे लावारिस शवों में सात-आठ ऐसे हैं जो जाड़े और भूख की दोहरी मार के कारण मारे गए।
आखिर इतने सारे लोग क्यों आसमान तले सोते हैं? इसके पीछे सोच यह भी है कि झुग्गी लेंगे तो कहीं दूर से आना होगा। फिर आने-जाने का खर्च बढ़ेगा, समय लगेगा और झुग्गी का किराया देना होगा सो अलग। राजधानी की सड़कों पर कई तरह के भारी ट्रैफिक पर पाबंदी के बाद लाल किले के सामने फैले चांदनी चौक से पहाड़गंज तक के सीताराम बाजार और उससे आगे मुल्तानी ढांडा व चूना मंडी तक के थोक बाजार में सामान के आवागमन का जरिया मजदूरों के कंधे व रेहड़ी ही रह गए हैं। यह काम कभी देर रात होता है तो कभी अलसुबह। ऐसे में उन्हीं मजदूरों को काम मिलता है जो वहां तत्काल मिल जाएं। फिर यदि काम करने वाला दुकान का शटर बंद होने के बाद वहीं चबूतरे या फुटपाथ पर सोता हो तो बात ही क्या है? मुफ्त का चौकीदार। अब सोने वाले को पैसा रखने की कोई सुरक्षित जगह तो है नहीं, यानी अपनी बचत भी सेठजी के पास ही रखेगा। एक तो पूंजी जुट गई, साथ में मजदूर की जमानत भी हो गई। बहुत से लोग तो रैनबसेरे में इस लिए नहीं घुस पाते क्योंकि उनके पास आधार कार्ड नहीं होता।
एक गैर-सरकारी संगठन की सर्वे रिपोर्ट से पता चलता है कि इन बेघरों में से 23.9 प्रतिशत लोग ठेला खींचते हैं व 19.8 की जीविका का साधन रिक्शा है। इसके अलावा ये रंगाई-पुताई, कैटरिंग, सामान की ढुलाई, कूड़ा बीनने, निर्माण कार्य में मजदूरी जैसे काम करते हैं। कुछ बेहतरीन सुनार, बढ़ई भी हैं। इनमें भिखारियों की संख्या 0.25 भी नहीं थी। ये सभी सुदूर राज्यों से काम की तलाश में यहां आए हुए हैं।