एक अनूठा संसार भी है शर्मीले शिकारी परिंदों का
ताल-पोखरों के आसपास सरकंडों और नरकुलों में मछली-मेंढक का शिकार करते और घास के मैदानों में गाय-भैंसों के साथ विचरते लम्बी पतली टांगों और सुराहीदार गर्दन वाले भूरे, सफेद पक्षियों को हम सब बगुलों के नाम से जानते हैं। किसान के हल एवं ट्रैक्टर के पीछे उछलते-उड़ते शायद हम सभी ने इन्हें देखा होगा। जिन्होंने खेत में नहीं देखा वे भी ‘बगुला भगत’ कहानी से तो भली भांति परिचित होंगे। ये लगभग एक से दिखने वाले पक्षी वास्तव में ‘हेरोन’, ‘बगुला’, ‘बक’ या ‘बलाका’ परिवार से आते हैं। विश्व में इनकी 74 और भारत में 27 प्रजातियां हैं। इन में कुछ तो दिन में और कुछ केवल रात में सक्रिय होते हैं। कुछ दूध-से श्वेत बगुले हैं जो खुले इलाकों में निडर विचरते हैं और कुछ काले भूरे छद्मावरण वाले ऐसे रहस्यमय पक्षी हैं जो शायद ही कभी सरकंडों से बाहर निकलते हैं। आम लोगों की तो क्या बात, अधिकतर पक्षी प्रेमियों के लिए भी इन्हें देखना एक चुनौती है।
रात में सक्रिय होने वाला पक्षी
हम बात कर रहे हैं अत्यंत शर्मीले, एकांतप्रिय एवं गूढ़ बगुले की जो अक्सर रात में सक्रिय होता है और दिन में ऊंची घास, सरकंडों और नरकुलों में छुपा रहता है। इस पक्षी का नाम है ‘जून बगुला’ या ‘ज्योत्सना बक’। जून वास्तव में ‘जून्हाइ’ का बिगड़ा स्वरूप है जिसका अर्थ है चांदनी एवं ज्योत्सना का अर्थ भी है चांदनी। संभवतः निशाचर बगुलों के नाम के साथ जून अथवा ज्योत्सना जोड़ दिया गया है। संस्कृत नाम ‘चन्द्रविहंगम’ भी इसी भावना को इंगित करता है। कुदरत के छद्म कलाकार, जून बगुले, अपनी रहस्यपूर्ण जीवनशैली, निशाचर प्रवृत्ति और उत्कृष्ट छलावरण के कारण आर्द्रभूमि (वैटलैंड) के पक्षियों में विशेष स्थान रखते हैं। इनका रंग सरकंडों वाले दलदली परिवेश में सहजता से घुलने-मिलने में मदद करता है।
लंबी गर्दन और चोंच वाले शिकारी
इनके लाल काले भूरे चित्तीदार पंखों का आवरण, गठीला शरीर, मोटी लम्बी धारीदार गर्दन और नुकीली लम्बी चोंच शिकार की एक खास रणनीति के लिए पूर्णतया अनुकूलित है। उथले पानी में चलने के लिए लंबे पैर, सरकंडों को पकड़ने के लिए लम्बे पंजे और शिकार को पकड़ने के लिए नुकीली लम्बी चोंच खास तौर के क्रमिक विकास का अच्छा उदाहरण हैं। इनकी पूंछ छोटी और सघन होती है और अक्सर उसके लंबे पंखों में छिप जाती है। पंख चौड़े और गोल होते हैं, जो दलदल की सतह पर नीची उड़ान के लिए उपयुक्त हैं। पंखों का फैलाव शरीर के अनुपात में होता है ताकि घनी वनस्पतियों के बीच तीव्रता से उड़ा जा सके। वैसे तो मछलियां इनका मुख्य आहार है परन्तु आर्द्रभूमि में पाए जाने वाले लगभग सभी जलीय प्राणियों का शिकार करते हैं जैसे कि मेंढक, सांप, छोटे पक्षी एवं कीड़े-मकोड़े।
मौसम अनुकूल आहार समायोजन का गुण
ये बगुले उपलब्धता और मौसम के आधार पर अपने आहार को समायोजित कर लेते हैं, जो पर्यावरण के लिए उनकी अद्भुत अनुकूलन क्षमता को प्रदर्शित करता है। एसी अनुकूलनशीलता यह सुनिश्चित करती है कि उन्हें हमेशा आवश्यक पोषण मिलता रहे। जून बगुले मानसून के मौसम में प्रजनन करते हैं जब जलीय भोजन और जलीय वनस्पतियां प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं। काले जून बगुले को छोड़ कर बाकी बगुले जीवन भर के लिए नर-मादा का जोड़ा नहीं बनाते अपितु हर प्रजनन काल में एक नर अपने आधिपत्य वाले क्षेत्र में कई मादाओं के साथ प्रजनन करता है।
कपट नहीं, शिकार की रणनीति
हमारे साहित्य में बगुलों को कपटी एवं कुटिल रूप में दर्शाया गया है। अमीर खुसरो कहते हैं : ‘उज्जवल बरन अधीन तन, एक चित्त दो ध्यान। देखत मैं तो साधु है, पर निपट पार की खान ’। इसी भाव को संत कबीर दोहराते हैं : ‘मन मैला तन ऊजला, बगुला कपटी अंग। तासों तो कौआ भला, तन मन एकही रंग’। शायद इन पक्षियों की शिकार प्रणाली को यथावत चरित्र समझ लिया गया है। चुपचाप एक जगह पर घात लगा कर मछली-मेंढक पकड़ना तो इन पक्षियों की भोजन विधि है। समय आ गया है कि चिरकाल से प्रचलित ऐसी मान्यताओं को प्रत्यक्ष पर्यवेक्षण की कसौटी पर कसा जाए।
भारत में हैं पांच प्रजातियों के ज्योत्सना बक
जून बगुलों की विश्व में 14 प्रजातियां हैं जिन में से पांच भारत में पाई जाती हैं - तीन स्थानीय और दो प्रवासी। ये सभी प्रजातियां विविध आर्द्रभूमि आवासों में पनपती हैं, और प्रत्येक अपने अनूठे तरीके से पारिस्थितिकी तंत्र में योगदान करती है।
गोनर्द यानी वृहद ज्योत्सना बक यह विश्व का सबसे बड़ा और प्रवासी जून बगुला है जो यूरोप, उत्तर अफ्रीका, मध्य एशिया और रूस के शीतोष्ण इलाकों में प्रजनन के पश्चात भारत एवं दक्षिण एशिया में सर्दियां बिताता है। काली धारियों से रेखांकित बादामी भूरा चित्तीदार आवरण, गठीला गोल मटोल शरीर, लम्बी टांगें, नुकीली चोंच, छोटी-छोटी आंखें और काली टोपी इसे परिपूर्ण छद्मावरण प्रदान करते हैं। इसे नीर गौंग एवं ग्रेट बिटर्न भी कहा जाता है। अपने परिवेश के साथ सहजता से घुल-मिल कर स्थिर रहने से यह लगभग अदृश्य हो जाता है। विशेष है इस की गहरी गाय जैसी गूंजती आवाज जो कि नर पक्षी प्रजनन काल में मादाओं को रिझाने और इलाके में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए निकालता है। पक्षी जगत में यह सबसे बुलंद आवाज है जो तीन से पांच किलोमीटर तक सुनी जा सकती है। इसी आवाज के कारण इस पक्षी को हिंदी में गौनर्द कहा जाता है। ‘गो’ अर्थात पानी और ‘नर्द’ अर्थात भारी गूंजती आवाज। ये मांसाहारी पक्षी मछली, मेंढक समेत सभी जलीय जंतुओं, चूहे, सांप और छोटे पक्षियों का शिकार करते हैं। लम्बी ईल मछली इसका प्रिय आहार है। वनस्पतियों के छुपाव में बैठकर इंतजार करता है और हद में आने पर अचानक हमला करते हैं तथा शिकार को साबुत निगल जाते हैं।
पीला जून बगुला अथवा पीत ज्योत्सना बक
भारत में सबसे व्यापक तौर पर पाया जाने वाला अपेक्षाकृत छोटा पक्षी है। इसका फैलाव भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण एशिया से लेकर आस्ट्रेलिया तक है। प्रजनन काल में मीठे पानी के दलदल, तालाब और चावल के खेतों सहित विभिन्न आर्द्रभूमियों के बीच भोजन और प्रजनन के लिए उपयुक्त स्थान की तलाश में छोटे प्रवास करता है। इसका भूरे और पीले रंग का आवरण सरकंडों और घनी वनस्पतियों के बीच छुपाव के लिए पूरी तरह से अनुकूलित है। नर और मादा का रंग एक जैसा होता है। यह एकांतप्रिय शिकारी है, जिसे अक्सर घने वनस्पतियों या उथले पानी के बीच धैर्यपूर्वक शिकार की प्रतीक्षा करते हुए देखा जाता है। सरकंडों को पैरों से पकड़ कर चपलता से पैनी चोंच का तीव्र एवं सटीक हमला अतुलनीय है। मानसून के दौरान घनी वनस्पतियों के बीच छिपाव में उथले कप जैसे घोंसले का निर्माण कर वंश वृद्धि करते हैं।
काला जून बगुला
श्याम ज्योत्सना बक भी इसे ही कहते हैं। यह मध्यम से बड़े आकार का स्थानीय पक्षी है जिसका फैलाव भारतीय उपमहाद्वीप एवं दक्षिण एशिया से लेकर आस्ट्रेलिया तक है। यह लम्बी धारीदार गर्दन और पैनी पीली चोंच वाला काला सुरमई पक्षी तालाबों और नहरों के आसपास की जलीय वनस्पतियों और कीकर के वृक्षों में ढूंढने पर देखा जा सकता है। नरकुलों और झाड़ियों के बीच छुपाव के लिए पीले, काले भूरे और सलेटी रंग के आवरण का छद्म बहुत कारगर है। मादा का रंग थोड़ा हल्का होता है। यह भी एकांतप्रिय शिकारी हैं और लगभग सभी जलीय जंतुओं को खाते हैं। गर्दन को अंदर खींच कर एक विशेष शैली से झुक कर लगभग रेंगते हुए शिकार का पीछा करते हैं और अचानक पूरी गर्दन खोल कर पैनी लम्बी चोंच से हमला करते हैं। नर पक्षियों की एक अनूठी विशिष्टता उसकी गूंजती हुई गहरी आवाज है जो प्रजनन काल में निकालते हैं। नर और मादा उम्र भर के लिए जोड़ा बनाते हैं, हालांकि प्रजनन की अधिकांश जिम्मेदारी मादा ही निभाती हैं।
लाल बगुला
संस्कृत में नाम लोहित ज्योत्सना बक है। विशिष्ट लाल भूरे पंखों वाला एक छोटा और सुगठित पक्षी है। धारियों और धब्बों की जटिल रूपरेखा एवं इस का संकोची स्वभाव सरकंडों और लंबी वनस्पतियों के बीच असाधारण छद्मावरण प्रदान करते हैं। उड़ान के दौरान पंखों के काले और सफेद चित्ते इसकी खूबसूरती में चार-चांद लगा देते हैं। यह विशिष्ट पक्षी मुख्य रूप से पूरे दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में दलदल, तालाब और चावल के खेतों सहित मीठे पानी की आर्द्रभूमि में पाया जाता है। यह घनी वनस्पतियों में भोजन खोजने में माहिर है जहां यह छोटी मछलियों, उभयचरों और कीड़ों का छिपकर शिकार कर सकता है। इन्हें अक्सर पानी के किनारे निश्चल खड़े देखा जा सकता है जहां ये धैर्यपूर्वक शिकार का इंतज़ार करते हैं। नुकीली चोंच से अचानक हमला करना इनकी मुख्य शिकार रणनीति है। नर पक्षी प्रजनन काल के दौरान कूक-कूक की आवाजें निकालते हैं। प्रेमालाप प्रदर्शन के दौरान, नर मादाओं को आकर्षित करने के लिए पंख फड़फड़ाने और आवाजें निकालने जैसे विस्तृत कार्यकलाप करते हैं। ये निराले पक्षी सुंदरता और विविधता की एक खूबसूरत झलक पेश करते हैं। गंभीर पर्यावरणीय चुनौतियों के बावजूद अपने अस्तित्व को कायम रखना इन के सफल अनूकूलन एवं दृढ़ इच्छाशक्ति का प्रतीक है।
छोटा तपस
इसके दूसरे नाम लघु ज्योत्सना बक व लिटिल बिटर्न भी हैं। पीत जून बगुले से मिलता-जुलता एक छोटा सुंदर पक्षी है जो अपनी शर्मीली प्रवृत्ति के लिए जाना जाता है। यह मुख्य रूप से यूरोप, अफ्रीका और एशिया के कुछ हिस्सों में मीठे पानी के ताल-पोखरों और आर्द्रभूमियों में पाया जाता है। भारत में कश्मीर घाटी में प्रजनन के बाद उत्तर पश्चिमी इलाकों में प्रवास करता है। यह पक्षी उथले पानी जैसे दलदल, ईख के खेत व घनी जलीय वनस्पतियों में रहना पसंद करता है जहां यह चुपचाप और चपलता से शिकार कर सकता है। नर पक्षी की पीठ काली, पंख गहरे रंग के और गर्दन लाल-भूरी होती है, जबकि मादा का धारीदार भूरे पंखों वाला सादा आवरण होता है। एक छोटी पैनी पीली चोंच और पीली आंखें इनके आकर्षण में चार-चांद लगाते हैं। ये मुख्य रूप से सुबह और शाम के दौरान सक्रिय रहते हैं और रात के शिकारी हैं। घनी वनस्पतियों के बीच छिपकर घूमने में अविश्वसनीय रूप से कुशल हैं और अपनी लंबी गर्दन का उपयोग कर मछली, मेंढकों, कीड़ों और छोटे स्तनधारियों पर तेजी से हमला करते हैं। मानसून से पहले प्रजनन काल में, नर पक्षी विशेष आवाजों और उड़ान प्रदर्शन द्वारा अपने क्षेत्र पर एकाधिकार स्थापित करते हैं। मादा से मिलन के साथ-साथ घनी वनस्पतियों के बीच में घोंसले का निर्माण कर प्रजनन प्रक्रिया का आरम्भ होता है। माता-पिता दोनों प्रजनन गतिविधियों में समान भाग लेते हैं।
ये अद्भुत बगुले अपनी अनूठी भौतिक विशेषताओं, विशिष्ट शिकार तकनीकों और एकांत स्वभाव के संयोजन से आर्द्रभूमि के प्राकृतिक वास को और विस्मयकारी बना देते हैं। छद्मावरण के उस्ताद, घात लगाने में माहिर, परिस्थितियों के अनुसार अनुकूलन में अव्वल और अंतर्ज्ञान एवं धैर्य के प्रतीक जून बगुले पृथ्वी के अति विशिष्ट पक्षी हैं और आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी तंत्र के प्राकृतिक संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापमान में वृद्धि, सिकुड़ते ताल-पोखर, गिरता जल स्तर, आर्द्रभूमि के प्राकृतिक आवास का विनाश, सरकंडों नरकुलों और जलीय वनस्पतियों का दोहन, कृषि भूमि का विस्तार, कृत्रिम मछली पालन, आवारा कुत्तों की बढ़ती आबादी और जानकारी का अभाव कुछ ऐसे कारण हैं जो जून बगुलों के समग्र विकास में बाधक सिद्ध हो रहे हैं और वो दिन दूर नहीं जब इन्हें विलुप्त होने की कगार पर खड़ा कर देंगे।
जून बगुले आर्द्रभूमियों के जटिल कुदरती संतुलन में प्रकृति की कलात्मकता का उत्कृष्ट उदाहरण हैं। उनके आवासों की रक्षा और संरक्षण के प्रयास आज हमारी आवश्यकता ही नहीं अपितु जिम्मेदारी बन गई है ताकि आने वाली पीढ़ियों को इन अद्भुत पक्षियों को देखने का आनन्द मिल सके।
लेखक पक्षियों के संरक्षण के लिए दो दशक से सक्रिय हैं।