सियासी उथल-पुथल में भी आर्थिक संबंध सुचारु रखने की जरूरत
अपने दक्षिण एशियाई पड़ोसियों के साथ भारत के संबंधों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में एक यह है कि जब से 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध में बांग्लादेश का जन्म हुआ, उसके साथ हमारे संबंध घनिष्ठ बने रहे। पश्चिमी अर्थशास्त्री तभी से दावा करने लगे थे कि बांग्लादेश की नियति ‘अंतर्राष्ट्रीय भिखारी’ होना तय है और उसका गुजारा सदा विदेशी सहायता पर निर्भर रहेगा। तथापि, बांग्लादेश का आर्थिक प्रदर्शन पाकिस्तान से कहीं बेहतर रहा। शेख हसीना के शासनकाल के दौरान, पिछले दो वर्षों में वार्षिक आर्थिक विकास दर लगभग 6 प्रतिशत रही वहीं 2023 में पाकिस्तान की वृद्धि दर 2.38 प्रतिशत थी।
प्रचलित धारणा के विपरीत, जो बात उभरकर सामने आई कि हसीना और उनकी सरकार ने बांग्लादेशी अर्थव्यवस्था की आर्थिक वृद्धि दर में अच्छा प्रदर्शन कर दिखाया। पश्चिमी प्रचार के उलट,बांग्लादेश की बजाय पाकिस्तान ‘अंतर्राष्ट्रीय भिखारी’ बन गया,जो आज विदेशी सहायता पर अत्यधिक निर्भर है। अफगानिस्तान संघर्ष समाप्त होने के बाद से, अरब सागर और फारस की खाड़ी क्षेत्र में पाकिस्तान खुद को रणनीतिक समीकरणों को नियंत्रित करने वाली एक महत्वपूर्ण शक्ति होने का दावा करना जारी नहीं रख सकता।
बांग्लादेश की घटनाओं का विश्लेषण करते समय जिस महत्वपूर्ण कारक को ध्यान में रखा जाना चाहिए वह यह कि स्पष्टतः हाल के दिनों में हसीना को हटाने के लिए हुआ ‘सत्ता परिवर्तन’ राजनीतिक कारणों से था, जिसमें साफ तौर पर पाकिस्तान की रुचि दिखी। हालांकि, पाकिस्तान के पास फिलहाल ऐसी कार्रवाइयों को अंजाम देने के लिए संसाधन या रणनीतिक कुव्वत नहीं है। उसका मुख्य जोर बांग्लादेश के इस्लामी संगठनों के साथ तालमेल बिठाने पर रहा है। जाहिर है इस प्रकार की ‘सहायता’ धार्मिक कट्टरवाद के उन्माद पर आधारित होती है, जिसकी व्याख्या पाकिस्तानी प्रतिष्ठान ‘कट्टरपंथी इस्लाम’ के रूप में करता है। आख़िरकार, पाकिस्तान ने किसी भी देश को आर्थिक रूप से मदद देने के लिए कहीं कुछ नहीं किया। अफगानिस्तान के आंतरिक मामलों में दखलअंदाज़ी करने के बावजूद, इसने अपने इस उत्तरी पड़ोसी मुल्क के लोगों के कल्याण हेतु जरा भी आर्थिक मदद नहीं की। आशा है, अपनी नाज़ुक आर्थिक स्थिति के मद्देनज़र बांग्लादेश समझेगा कि अपने पड़ोसियों के साथ संबंधों में जटिलताएं या तनाव पैदा करने से बचना ही अक्लमंदी होगी।
अंतरिम सरकार के मुख्य सलाहकार और नोबेल पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस और सेना प्रमुख जनरल वकार-उज़-ज़मान, दोनों के सामने घरेलू स्थिति व्यवस्थित करने में पर्याप्त समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। उम्मीद करें कि नई सरकार देश की समस्त सीमाओं पर, सीमा पारीय हिंसा या आतंकवाद को अनुमति न देने के प्रति सजग रहेगी। हालांकि, यह खुला रहस्य है कि 84 वर्षीय यूनुस का बिल क्लिंटन प्रशासन के दिनों से ही, तमाम अमेरिकी सरकारों के साथ अच्छे संबंधों का एक लंबा इतिहास है। ब्रिटिश प्रतिष्ठान के साथ भी उनके संबंध घनिष्ठ हैं। छोटे किसानों के लिए ‘सूक्ष्म ऋण’ रूपी उपाय को बढ़ावा देकर, बांग्लादेश के कृषि क्षेत्र में उनका योगदान उल्लेखनीय है। भारत के लिए, ढाका के साथ व्यापारिक, आर्थिक और नागरिकों के बीच आपसी संपर्क जारी रखना और उसका विस्तार करना उपयोगी होगा। आर्थिक और व्यापारिक संबंधों को जितना जल्द हो सके, पूरी तरह बहाल करना जरूरी है। बांग्लादेश के निर्यात-उन्मुख कपड़ा उद्योग की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए, विगत में भारत और उसके व्यापारिक प्रतिष्ठानों के बीच संबंध प्रगाढ़ होते चले गए, आगे इन्हें और मजबूत किया जाना चाहिए।
दिसंबर 1971 में, अपने जन्म के बाद से, बाहरी दुनिया के साथ बांग्लादेश के जो संबंध रहे, वह उसके ऐतिहासिक अनुभवों से अभिन्न रूप से जुड़े हुए थे। ऐसी चिंताएं भी हैं कि बांग्लादेश की दोनों नई व्यवस्थाओं (सेना और सरकार) के साथ अपने संबंध मजबूत करने में चीन की बढ़ती रुचि के अलावा उसके द्वारा बांग्लादेश एवं पड़ोसी म्यांमार में नौवहनीय अड्डा प्राप्त करने वाली अपनी नीतियां जारी रखने के चलते, भारत के लिए बांग्ला भूमि से होकर बंगाल की खाड़ी तक थलीय पहुंच मार्ग योजना में मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। इसके लिए, भारत बंगाल की खाड़ी में सित्त्वे बंदरगाह (म्यांमार) जैसी विकास परियोजनाओं का निर्माण संयुक्त रूप से करते हुए, म्यांमार और बांग्लादेश के साथ संपर्क माध्यमों को मजबूत करने में गहरी दिलचस्पी ले रहा है। इसके अतिरिक्त, भारत, बांग्लादेश और म्यांमार के बीच त्रिपक्षीय नौवहनीय सहयोग की रूपरेखा पर विचार करना सार्थक होगा, विशेषकर संचार और व्यापार में। यह ध्यान में रखने की जरूरत है कि चीन लंबे अर्से से बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से होकर, फारस की खाड़ी और उससे आगे के तेल सपंन्न अरब मुल्कों तक अपनी समुद्री पहुंच सुनिश्चित करने की फिराक में है। चीन के लिए अपनी बृहद रणनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति की राह में, बंगाल की खाड़ी से होकर वहां तक समुद्री पहुंच मार्ग और लंगर डालने की सुविधा को सुनिश्चित बनाए रखने का बहुत महत्व है। फिलहाल चीन को ऐसी पहुंच की सुविधा सिर्फ पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह तक ही उपलब्ध है। यह देखना बाकी है कि यूनुस चीन की समुद्री महत्वाकांक्षाओं से किस प्रकार निबटेंगे। हसीना के देश छोड़ने और भारत निर्वासन में बांग्लादेशी सेना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह स्पष्ट है कि भारत भागने से पहले हसीना को अपनी जान का खतरा हो गया था। उन्हें सुरक्षित प्रश्रय मुहैया करवाकर भारत की प्रतिक्रिया उचित रूप से सकारात्मक रही है। इस बीच, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यूनुस का फोन आया और उन्होंने बांग्लादेश में हिंदुओं और अन्य अल्पसंख्यक समूहों की सुरक्षा के बारे में आश्वासन दिया। यह वह मुद्दा है जिसके बारे में मोदी पहले ही गंभीर चिंता व्यक्त कर चुके हैं। हालांकि, इतना स्पष्ट है कि जनरल वकार-उज़-ज़मान ने इस सारे प्रकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पर्दे के पीछे से फैसले वही ले रहे हैं। इस बीच,लग रहा है कि खुद यूनुस भी प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा रखते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिका और ब्रिटेन सहित पश्चिमी शक्तियों के साथ संबंध मजबूत करने में वे अच्छी स्थिति में हैं।
हालांकि भारत बांग्लादेश के आंतरिक मामलों में किसी भी प्रकार की दखलअंदाज़ी करने से दूर रहा, लेकिन इतना साफ था कि हसीना सरकार ने जनता का विश्वास खो दिया था। बेशक सैन्य प्रतिष्ठान सीधे तौर पर राजनीतिक विवाद में पड़ने से दूर रहा, लेकिन उसने अलोकप्रिय हसीना को बचाने में स्पष्टतया कोई दिलचस्पी नहीं ली। जहां तक भारत का सवाल है, शरण लेने आई हसीना एक अच्छी मित्र रही हैं, जो भारत ने प्रदान की है।
इन परिस्थितियों में, स्वाभाविक है कि वक्त से साथ भारत और बांग्लादेश के बीच सामान्य राजनयिक गतिविधि और आर्थिक सहयोग फिर से शुरू होगा, जबकि ठीक इसी वक्त भारत अपनी भूमि से हसीना के प्रत्यर्पण वाली मांग पर साफ तौर पर इनकार जारी रखेगा। आख़िरकार, भारत ऐसा देश नहीं है जो उन लोगों को निराश करता है, जो उसके लंबे समय से मित्र रहे हैं।
लेखक पूर्व वरिष्ठ राजनयिक है।