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तार्किक वजह भी तो है इस खामोशी की

06:44 AM Oct 10, 2024 IST
क्षमा शर्मा

मध्यकाल के महान भक्त कवि तुलसीदास ने लिखा था- कोउ नृप होय, हमें का हानि। सोचिए कि तुलसी ने ऐसा क्यों लिखा होगा। हानि शब्द पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। कारण यह है कि सत्ता के बारे में अकसर लोग शंकित रहते हैं कि सत्ता में जो हो, उससे जरा बचकर रहना चाहिए। वह लाभ पहुंचाए या न पहुंचाए, हानि तो जरूर पहुंचा सकता है। आज के दौर में भी यह बात पूरी तरह से सच है। नेताओं से तो लोग वैसे ही डरकर रहते हैं।
हरियाणा चुनाव में हमने देखा कि लगभग सारे एग्जिट पोल्स, ओपिनियन पोल्स, बुद्धिजीवियों की फौज की लगातार की बहुत-सी बहसें, गलत साबित हुईं। जून में लोकसभा चुनाव के वक्त भी यही हुआ था। योगेंद्र यादव, जो खुद हरियाणा के हैं, हाल ही में उन्होंने एक भाषण के दौरान कहा था कि हरियाणा में कांग्रेस के बारे में तीन बातें कही जा सकती हैं कि कांग्रेस की हवा बह रही है, कांग्रेस की आंधी चल रही है या कांग्रेस की सुनामी आ रही है। हरियाणा के परिणाम के बाद मशहूर पत्रकार बरखा दत्त को दिए इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि वह गलत साबित हुए और इसका खेद है। उन्होंने कहा कि अब तक उन्होंने लगभग सौ चुनावी विश्लेषण किए हैं, मगर चुनाव का ऐसा उलटफेर पहली बार देखा। योगेंद्र यादव मशहूर चुनावी विश्लेषक या सैफोलोजिस्ट रह चुके हैं। उनका यह बड़प्पन माना जाएगा कि अपनी गलती फौरन स्वीकार भी की। अक्सर लोग ऐसा नहीं करते हैं।
समय के साथ तमाम चुनावी विश्लेषणों की विश्वसनीयता पर संकट गहराता जा रहा है। कई बार तो लगता है कि जैसे कोई कहीं गया ही नहीं । बैठकर ही, कुछ से बातें करके करोड़ों, लाखों के आंकड़े निकाल लिए गए। जम्मू-कश्मीर का चुनाव जीतने के बाद उमर अब्दुल्ला ने कहा भी कि एग्जिट पोल खामखा का टाइम वेस्ट है। दरअसल, ऐसा महसूस होता है कि चुनावी विश्लेषक लोगों को अपने से कम बुद्धिमान समझते हैं। बहुत से बुद्धिजीवियों और पत्रकारों का भी यही हाल है। उन्हें लगता है कि जो वे बता रहे हैं, बस वही सच है। जबकि ऐसा होता नहीं है। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर का यह बयान गौर करने लायक है कि उनकी पार्टी की जीत में साइलेंट वोटर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
आखिर यह साइलेंट वोटर कौन होता है। वही न जो अपने मन की बात किसी को नहीं बताता। और क्यों बताए। विश्लेषक तो अपने-अपने माइक्रोफोन लेकर निकल लेंगे, कभी न लौटने के लिए। भुगतना तो उसे पड़ेगा। वैसे भी स्थानीय नेताओं का खुलेआम विरोध करके कौन आफत मोल लेना चाहता है। खुलकर विरोध वे लोग नहीं कर पाते जो, अकेले होते हैं, घर परिवार और जीवन चलाना होता है। जिनके पीछे किसी न किसी संगठन की ताकत होती है, वे ही खुलकर बोल पाते हैं क्योंकि यदि कोई मुसीबत आए भी तो संगठन के लोग उन्हें बचा सकते हैं। खुलकर विरोध का मतलब कई बार जीवन भर की दुश्मनी मोल लेना भी होता है।
इसे अनुभूत उदाहरणों से बताना चाहूंगी। जिस संस्थान में काम करती थी, वहां यूनियन के चुनावों के दौरान अकसर ही सभी गुटों और नेताओं से यही कहना पड़ता था कि हां जी आपको ही वोट देंगे। दरअसल, जो लोग सत्ता में आते थे, और उन्हें पता चल जाए कि इस आदमी या महिला ने हमें वोट नहीं दिया, तो उसके इन्क्रीमेंट, प्रमोशन रुकवाने की कोशिश, छिपाकर नहीं, बताकर की जाती थी कि तुमने हमें वोट नहीं दिया था, तो हम तुम्हारा प्रमोशन क्यों होने दें।
इसी तरह एक सोसायटी में रहने वाली महिला ने बताया था कि उसकी सोसायटी का जनरल सेक्रेटरी उसकी रजिस्ट्री नहीं होने दे रहा है। पूछने पर उसने कहा कि वे लोग कहते हैं कि तुमने हमें वोट नहीं दिया, तो हम तुम्हारी रजिस्ट्री क्यों होने दें। वोटर क्यों किसी बाहर वाले को अपने मन की बात नहीं बताता, इसे इन दो उद्धरणों से समझा जा सकता है। चुनावी विश्लेषक सोचते हैं कि जो लोग कह रहे हैं, वही अंतिम सत्य है और वे अपने आंकड़ों में उसे ही परोस देते हैं। उमर अब्दुल्ला ने आखिर गलत भी नहीं कहा। आखिर क्यों इन विश्लेषणों पर लाखों-करोड़ों रुपए खर्च किए जाएं और नतीजा सिफर रहे। ऊपर तुलसी की पंक्तियों में जिस हानि की बात कही गई, वह बार-बार साबित होती है। और वैसे भी जब कोई अपने आसपास वालों तक को अपने मन की बात नहीं बताता, तो बाहर से आए इन तथाकथित विशेषज्ञों को क्यों बताए। ये बार-बार चाहे कहते रहें कि वोटर का मूड इन्हें पता चल गया है, लेकिन गलत साबित हुए एग्जिट पोल यही बताते हैं कि वोटर इन्हें अपने मूड की, अपने मन की बात की भनक तक नहीं लगने देता।
लोकतंत्र में अगर हार-जीत न हो, तो वह किस बात का लोकतंत्र। लेकिन देश की परिपक्व पार्टी यदि इस तरह से रिएक्ट करती है, उससे भी आश्चर्य होता है। आप जीत जाएं तो न इलेक्शन कमीशन गलत है, न ईवीएम गलत हैं। लेकिन जैसे ही हारते हैं, रुदन शुरू हो जाता है। सब बातों पर प्रश्न उठाए जाने लगते हैं। आखिर क्यों। जब जीतते हैं, तब भी तो वही चुनाव आयोग होता है, वही ईवीएम भी होती हैं। इस तरह की प्रतिक्रियाएं देखकर बच्चे याद आते हैं, जो कभी हारना नहीं चाहते। हार जाएं तो रोते हुए कहते हैं कि मैं नहीं हारा। मैं नहीं मानता। इस तरह की प्रतिक्रियाएं बहुत हास्यास्पद लगती हैं। और एक तरह से वोटरों का अपमान भी।
आखिर आप वोटर के विवेक पर यकीन क्यों नहीं करते। जिस बैलट पेपर को बार-बार वापस लाने की बातें की जा रही हैं, क्या हम वे दिन भूल गए हैं, जब लोगों को वोट ही नहीं डालने दिए जाते थे। लोग वोट डालने जाते थे, तो कहा जाता था कि वोट तो पड़ चुका। वोटों के बक्से छीन लिए जाते थे। कोई भी तकनीक सौ फीसदी सुरक्षित नहीं होती, यह माना जा सकता है। लेकिन वह तभी खराब होती है, जब आप हार जाएं और जीतें तो कोई प्रश्न न उठाएं तो आखिर कौन आप पर विश्वास करेगा।
वैसे भी हरियाणा में ऐसा तो नहीं हुआ है कि कांग्रेस की स्थिति खराब हो। इस दल को भी सैंतीस सीटें मिली हैं, जो भारतीय जनता पार्टी से मात्र ग्यारह कम हैं। तो फिर इतने विरोध का कारण क्या है। यानी कि एग्जिट पोल पर सौ फीसदी भरोसा। दरअसल, यह भरोसा भी तभी होता है जब एग्जिट पोल आपको जीतते दिखाएं। जब भी एग्जिट पोल जिस दल को हराने की बात करते हैं, तो वे यही कहते हैं कि इनका क्या भरोसा। ऐसा जून में हमने होते देखा था। जब लोकसभा के चुनावों में भाजपा को भारी बहुमत की घोषणा लगभग सभी एग्जिट पोल्स ने की थी और कांग्रेस तथा अन्य दलों ने इन पर अविश्वास जताया था। हालांकि एग्जिट पोल्स गलत साबित हुए थे। सभी दलों को ये पंक्तियां जरूर याद रखनी चाहिए- क्या हार में क्या जीत में, किंचित नहीं भयभीत मैं।

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लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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