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जोखिम भी हैं दिमाग को काबू करने की कोशिशाें के

08:18 AM Nov 17, 2024 IST
डॉ. संजय वर्मा
लेखक एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

सदियों से मानव सभ्यता के लिए अपने ही दिमाग को समझना और परखना एक बड़ी पहेली रहा है। इसकी एक बड़ी वजह यह सवाल है कि आखिर इंसानी दिमाग में ऐसी क्या खूबियां हैं जिन्होंने मानव जाति को इस कायनात की सबसे विकसित और दूसरी सभी जीव प्रजातियों को काबू करने लायक बनाया। पहेलियां कुछ और भी हैं। जैसे, यह रहस्य सुलझाने को लेकर भी काफी बेचैनी है कि आखिर हर व्यक्ति के दिमाग के सोचने-समझने की क्षमता एक दूसरे से काफी अलग क्यों होती है। आधुनिक विज्ञान इंसानी दिमाग को इसलिए समझना चाहता है कि जो विश्लेषण या जो नतीजे दुनिया के ताकतवर कंप्यूटर नहीं निकाल पाते हैं या फिर जो विचार मशीनें पैदा नहीं कर पाती हैं, उन्हें इंसानी दिमाग कैसे खोज लेता है। मनुष्य के अंदर जन्मजात रूप से जो ज्ञान मौजूद होता है, दुनिया के कंप्यूटर उस तक की बराबरी नहीं कर पाते हैं। इसी तरह अगर हमारे शरीर में कोई अपंगता है तो क्या उसे किसी दिमागी करिश्मे से दूर किया जा सकता है। ऐसा लगता है कि इन सारे सवालों के हल अब मिलने को हैं। मस्तिष्क की शक्तियों की खोज-परख और उनमें बढ़ोतरी की कई कोशिशें यूं तो अरसे से चल रही हैं, लेकिन इनमें सबसे ज्यादा चर्चा दुनिया के सबसे मशहूर कारोबारी ईलॉन मस्क के प्रयोगों की है। मस्क हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत से ज्यादा चर्चा में हैं क्योंकि इससे उनकी स्पेस एक्स और टेस्ला जैसी कंपनियों के विस्तार की संभावना पैदा होती है। लेकिन मस्क के कारनामे सिर्फ कारोबार में नहीं हैं। वे जिस तरह के जोखिम विज्ञान के क्षेत्र में लेते रहे हैं, उनसे भी वह काफी ख्याति बटोर रहे हैं। इंसानी दिमाग को और करिश्माई बनाने के मामले में ईलॉन मस्क का योगदान यह है कि वह मस्तिष्क को एक चिप या इलेक्ट्रोड के सहारे कंप्यूटर से जोड़ रहे हैं ताकि दिमाग की ताकत कई गुना बढ़ाई जा सके। कंप्यूटर और इंसानी दिमाग को एक साथ करने के उद्देश्य से 7-8 साल पहले मस्क ने एक नई कंपनी- न्यूरालिंक कॉरपोरेशन बनाई थी जो मनुष्यों के दिमाग में बेहद सूक्ष्म इलेक्ट्रोड फिट यानी इम्प्लांट करने की शुरुआत कर चुकी है। इस साल यानी 2024 की शुरुआत में मस्क ने ऐसी ब्रेन चिप्स के निर्माण का ऐलान किया था, जिन्हें एक मेडिकल डिवाइस की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। ये चिप्स उन मरीजों के दिमाग में लगाई जा रही हैं, जो अवसाद, डिमेंशिया या सिजोफ्रेनिया जैसी मानसिक बीमारियों से पीड़ित हैं और उन्हें परंपरागत इलाज से कोई लाभ नहीं हो रहा है। परीक्षण के तौर पर एक लकवाग्रस्त मरीज के दिमाग में यह चिप्स लगाई गई। कह सकते हैं कि इस चिप का ह्युमन इंप्लांट किया गया। कुछ ऐसी ही चिप्स अन्य मरीजों में लगाई गईं। दावा है कि ब्रेन चिप्स को लेकर मरीजों ने अविश्वसनीय प्रतिक्रियाएं दी हैं। ब्रेन चिप्स लगाए जाने के बाद एक मरीज ने दिमाग में पैदा विचारों के जरिये तकनीक पर नियंत्रण पा लिया। एक मरीज ने सिर्फ सोचकर ही अपने रोबोटिक हाथों को हिलाया, कंप्यूटर के कर्सर को घुमाया और एक अन्य मरीज ने कंप्यूटर पर वीडियो गेम खेलने में सफलता हासिल की। निश्चय ही न्यूरालिंक कंपनी की ओर अभी ये सिर्फ क्लीनिकल ट्रायल हैं। दिमाग में मशीनों की घुसपैठ को, कुछ दुष्प्रभावों की आशंका में, हो सकता है कि दुनिया के कई देश परीक्षणों की सफलता के बाद भी मंजूरी न दें। लेकिन सवाल है कि क्या एक बढ़ती हुई तकनीक को दुनिया आखिर रोक पाएगी। ध्यान रखना होगा कि एक दौर में टीवी, इंटरनेट और मोबाइल अथवा स्मार्टफोन को बुरी चीजों में शामिल किया जाता था। आज भी स्मार्टफोन हमें एक खलनायक ही नजर आता है। लेकिन जितनी सहूलियतें इन तकनीकों की बदौलत हमें मिल रही हैं, उनकी कल्पना हम पहले कर नहीं पाते थे। हालात ये हैं कि इन सुविधाओं के नहीं रहने पर हम खुद को पिछड़ा हुआ मान सकते हैं। ऐसे में हो सकता है कि आगे चलकर न्यूरालिंक की ब्रेन चिप्स अपने मस्तिष्क में लगवाने वाले लोग उन्नत और स्मार्ट माने जाएं और ये ब्रेन चिप्स सिर्फ किसी बीमारी में नहीं, बल्कि हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन जाएं।

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आखिर क्या है मकसद

एक कारोबारी और कंपनी के नजरिए से देखें, तो न्यूरालिंक की ब्रेन चिप को हम मुनाफा कमाने की एक नई ईजाद करार दे सकते हैं। लेकिन इंसानी दिमाग में इलेक्ट्रोड या ब्रेन चिप लगाने के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए मस्क कहते हैं कि ऐसा होने पर हम आसानी से जान सकेंगे कि सोते-जागते किसी इंसान के दिमाग में क्या विचार चल रहे हैं। हमारे भाव-विचार, हमारे सपने- ये सब इलेक्ट्रोड्स के जरिए आसानी से कंप्यूटर में उतारे (डाउनलोड किए) जा सकेंगे और इसी तरह यदि किसी की याद्दाश्त चली गई हो, तो भाव-विचार, सपने और पुरानी यादें उसके दिमाग में अपलोड की जा सकेंगी, बशर्तें उन्हें पहले से कंप्यूटर में इसी तकनीक से सहेज कर रखा गया हो। मस्क ने इस तकनीक को एक नया नाम ‘न्यूरल लेस’ दिया है। अमेरिका के कैलिफोर्निया में खुली मस्क की इस कंपनी न्यूरालिंक कॉरपोरेशन की पहली इकाई के कर्मचारी कुछ अन्य दिमागी विकारों, जैसे कि डिप्रेशन (अवसाद) और पार्किंसंस आदि रोगों के इलाज के लिए कंप्यूटर तकनीक का विकास करने में भी संलग्न बताए जाते हैं। लेकिन दिमाग की खोजबीन से जुड़ा यह कोई पहला कारनामा नहीं है। न्यूरालिंक के करिश्मे से पहले ही प्रयोगशाला में इंसानी दिमाग जैसी संरचना बना लिए जाने, एक विचार को दूसरे दिमाग तक टेलीपैथी के जरिये पहुंचा देने के चमत्कार हो चुके हैं। दिमाग को पढ़ने के लिए तमाम परियोजनाएं तक शुरू हो चुकी हैं, जिनके आधार पर कहा जाने लगा है कि जल्द ही हमारा अपना दिमाग हमारे काबू में होगा।

एक सच मशीनी टेलीपैथी का

करीब दशक भर पहले वर्ष 2014 में हार्वर्ड मेडिकल कॉलेज के प्रोफेसर अल्वारो की निगरानी में एक प्रयोग किया गया, जिसके बारे में दावा है कि वह मशीन के जरिए साकार की गई टेलीपैथी का सफल प्रयोग था। इस प्रयोग के तहत दुनिया में पहली बार कंप्यूटर की मदद से एक इंसानी दिमाग का विचार 5 हजार किलोमीटर दूर बैठे दूसरे इंसान के दिमाग में सिर्फ सोचने भर से पहुंचाया गया। ब्रेन टू ब्रेन कम्युनिकेशन का यह प्रयोग एक छोर पर भारत के तिरुअनंतपुरम में और दूसरे छोर पर फ्रांस के स्ट्रासबर्ग में बैठे व्यक्तियों के बीच किया गया। तिरुअनंतपुरम में बैठे एक व्यक्ति ने जो कुछ सोचा, उसे दूसरे छोर पर मौजूद लोगों ने हूबहू पढ़ लिया। टैलीपैथी के इस क्रांतिकारी प्रयोग के तहत शोधकर्ताओं ने इलेक्ट्रोइनसेफलोग्राफी (ईईजी) हेडसेट की मदद से ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस (बीसीआई) तकनीक का इस्तेमाल किया था। तिरुअनंतपुरम में बैठे व्यक्ति ने अपने दिमाग में दो फ्रांसीसी शब्द – होला और स्याओ (अंग्रेजी के संबोधन- हैलो और जवाबी हैलो के प्रतीक) सोचे थे, जिन्हें दूसरे छोर पर इन्हीं शब्दों के रूप में डिकोड करते हुए पढ़ लिया गया। एक परिपक्व टैलीपैथी की नजर में यह प्रयोग बेहद आरंभिक है, लेकिन इस सिलसिले में काम कर रहे वैज्ञानिकों का दावा है कि 2045 तक इंसानी दिमाग को पूरी तरह कंप्यूटर पर अपलोड करके उसकी एक-एक हरकत को पढ़ और समझ लिया जाएगा। तब इंसानी दिमाग का कोई रहस्य शेष नहीं रह जाएगा।

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कंप्यूटर से जुड़ा दिमाग

कंप्यूटर और जीवों के दिमाग को जोड़ने वाला एक अन्य प्रयोग अमेरिका की ड्यूक यूनिवर्सिटी के मेडिकल सेंटर और जापान साइंस एंड टेक्नॉलोजी एजेंसी के साइंटिस्टों ने किया। इस प्रयोग में एक बंदर के दिमाग से रोबोट को संचालित करके दिखाया गया। परीक्षण के अंतर्गत एक खास तरह की ट्रेडमिल पर बंदर को चलाया गया और उसके दिमाग से जोड़े गए इलेक्ट्रोड्स से प्राप्त संकेतों को ह्युमनॉइड रोबोट तक भेजा गया। प्रयोग में रोबोट ने न सिर्फ बंदर की तरह धीमे अथवा तेज चलने की गति का अनुसरण किया, बल्कि चाल का उसका पैटर्न भी बिल्कुल बंदर जैसा ही था। जैसे कि रोबोट उस वक्त भी चलता रहा, जब बंदर ने ट्रेडमिल पर चलना बंद कर दिया था। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि बंदर ने रुक जाने के बाद भी चलने के बारे में सोचना बंद नहीं किया था। यानी रोबोट ने बंदर के दिमाग के न्यूरॉन्स की गतिविधियों को पढ़ लिया था।

दिमाग को यंत्र से जोड़ने के कई और प्रयोग

हालांकि ऐसा नहीं है कि दिमाग को मशीन, कंप्यूटर अथवा इलेक्ट्रोड से जोड़ने के मामले में मस्क की कंपनी न्यूरोलिंक ही अग्रणी हो। बल्कि ऐसे कई प्रयोग कुछ अन्य जगहों पर चलते रहे हैं। जैसे वर्ष 2016 में ऐसा ही एक प्रयोग अमेरिका के हारबॉरव्यू मेडिकल सेंटर में किया गया था। वहां मानसिक बीमारी- एपिलेप्सी से जूझ रहे सात मरीजों में सर्जरी करके दिमाग के एक खास हिस्से ‘टेंपरॉल लॉब्स’ में इलेक्ट्रोड फिट कर दिए गए थे। इन मरीजों को कंप्यूटर मॉनिटर पर तेजी से (करीब 400 मिलीसेकेंड के अंतराल पर) इंसानी चेहरों, मकानों की सैकड़ों तस्वीरों के साथ-साथ स्लेटी रंग की खाली स्क्रीन भी दिखाई गई। इस दौरान शोधकर्ता वैज्ञानिकों ने पाया कि जब इंसानी चेहरे दिखाए गए, तो दिमाग के एक अलग हिस्से में हरकत हुई, पर मकानों के चित्र दिखाए जाने पर दूसरे हिस्से में सक्रियता नजर आई। इस आकलन के आधार पर वैज्ञानिकों ने दावा किया कि उन्होंने कंप्यूटर सॉफ्टवेयर की मदद से यह डिकोड करने यानी पता लगाने में करीब 96 प्रतिशत सफलता हासिल कर ली है कि दिमाग के किस हिस्से में किस तरह के विचार पैदा होते हैं।
इसी तरह की एक खोज करीब दस साल पहले 2014 में चिकित्सा का नोबेल जीतने वाले ब्रिटिश-अमेरिकी और नॉर्वे के वैज्ञानिकों ने कुछ साल पहले की थी। इन वैज्ञानिकों ने अपने शोध में यह पता लगाने की कोशिश की थी कि कैसे हमारा दिमाग कुछ चीजों के बारे में एक राय बनाता है और किसी स्थान की पहचान करता है। ब्रिटिश-अमेरिकी रिसर्चर जॉन ओ. कीफ और नॉर्वे के एडवर्ड मोजर व उनकी पत्नी मे-ब्रिट मोजर को संयुक्त रूप से यह रहस्य सुलझाने के लिए नोबेल दिया गया था कि हमारे दिमाग के कौन से हिस्से की सक्रियता स्थान विशेष की पहचान कराती है। इस शोध को दिमाग के जीपीएस (ग्लोबल पोजिशिनिंग सिस्टम) जैसी व्यवस्था का संकेत करने वाला बताया गया था। चूहों पर किए गए प्रयोगों के आधार पर इन वैज्ञानिकों ने यह साबित किया था कि जीवों के दिमाग का यह अंदरूनी जीपीएस ही किसी जगह का नक्शा बनाता है और स्थान की पहचान कराता है। यह शोध सिर्फ स्थान की पहचान कराने तक सीमित नहीं है, बल्कि कुछ खास दिमागी बीमारियों, जैसे अल्जाइमर के निदान की राह खोलने में भी सहायक सिद्ध हो सकता है।
अब कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के आ जाने के बाद से हम उम्मीद कर सकते हैं कि प्रयोगशाला में इंसानी दिमाग जैसी संरचना बना लिए जाने और दिमाग को पूरी तरह पढ़ लिए जाने वाली कोशिशों में और तेजी आएगी। पर सवाल है कि कहीं ऐसे में मशीनें ही हमारे दिमाग को अपने काबू में तो नहीं कर लेंगी। फिलहाल मशीन और इंसान में एक मौलिक अंतर यह है कि मशीनों के पास दिमाग नहीं होता। अगर मशीनें हमारी तरह सक्रिय दिमाग और विचार की क्षमता से लैस होतीं, तो वे इंसानों को अपना दास बना चुकी होतीं, जैसा हॉलिवुड की कई फिल्मों में दिखाया जा चुका है। पर अनेक करिश्मे करने और समूची जीव सभ्यता पर छा जाने वाले इंसान के दिमाग की बराबरी पर पहुंचने के बाद इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भविष्य में ब्रेन चिप से लैस इंसान बाकी सभ्यता पर भारी पड़ जाएं। या हो सकता है कि मशीनी दिमाग ही इतनी ताकत हासिल कर लें कि वे इंसानों को कायनात पर उसकी बादशाहत से ही बेदखल कर दें। अभी तो ये आशंकाएं दूर की कौड़ी लग सकती हैं, लेकिन अतीत पर नजर दौड़ाने से लगता है कि कई मामलों में इंसान अपना नियंत्रण खो चुका है और मशीनें हमसे आगे निकल गई हैं। इसलिए देखना है कि दिमाग के मामले में इंसान का वश कब तक चलता है। ब्रेन चिप्स के मौजूदा प्रयोगों को देखें, तो ये आशंकाएं सिर उठा चुकी हैं कि एआई की मदद लेकर कंपनियां या सरकारें हमारे मस्तिष्क और हमारी स्मृतियों पर नियंत्रण कर सकती हैं। ऐसे में यदि किसी के दिमाग में सरकार की मुखालफत का विचार आता है या कंपनी अपने उत्पादों को हमारे दिमाग में ठूंसना चाहती हैं, तो ब्रेन चिप्स की मदद लेकर हमारे विचारों को नियंत्रित कर सकती हैं। ऐसा हुआ तो इसका अंजाम कम खतरनाक नहीं होगा।

दिमाग से रोजगार का रिश्ता

वैसे तो कहा जाता है कि अपने मस्तिष्क की खूबियों के बल पर ही कोई एक व्यक्ति दूसरे के मुकाबले बेहतर साबित होता है, लेकिन कई बार यह अंतर पूरे समुदाय के मामले में एक स्थापित राय बन जाता है। इस अंतर को एक पहेली की तरह देखा जाता है कि आखिर क्यों दुनिया में कुछ खास इलाके और समुदाय-प्रजाति से जुड़े लोग दिमागी काम करने में आगे रहते हैं और क्यों दूसरी प्रजातियों-इलाकों के लोग इस मामले में पिछड़ जाते हैं। जैसे नोबेल पुरस्कारों में पश्चिमी देशों के आगे रहने के पीछे उन देशों व इलाकों के लोगों के दिमागों की अनूठी बनावट को जिम्मेदार बताया जाता है। एक दावा यह भी है कि इसी दिमागी संरचना के कारण श्रम संबंधी रोजगारों में चीन-भारत के लोग आगे हैं। इस रहस्य को सुलझाने के उद्देश्य से भी एक महत्वपूर्ण परियोजना अमेरिका में चलाई जा रही है। इस परियोजना का नाम है ह्यूमन कनेक्टोम प्रोजेक्ट। ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट की तरह ही इस परियोजना के ज़रिए जुटाया गया तमाम डाटा सार्वजनिक कर दिया जाएगा ताकि दुनिया में कहीं भी वैज्ञानिक इसका परीक्षण कर सकें। परियोजना के तहत वैज्ञानिक करीब 1200 अमेरिकी लोगों के दिमागों का स्कैन करके मनुष्य के दिमाग को समझने का प्रयास कर रहे हैं। इस परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक दिमाग के स्कैन चित्रों को देख कर यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि मनुष्य का दिमाग कैसे काम करता है और तब क्या होता है जब कुछ गड़बड़ हो जाती है। वैसे तो इस परियोजना का उद्देश्य मूल रूप से मानव मस्तिष्क की अंदरूनी संरचनाओं को समझना और दिमागी जटिलताओं को दूर करने के उपाय खोजना है, लेकिन इसे लॉन्च करते वक्त पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने एक अलग और ज्यादा नोटिस करने वाली बात भी कही थी। ब्रेन रिसर्च थ्रू एडवांसिंग इनोवेटिव न्यूरोटेक्नोलॉजीज के जरिए दिमाग को पढ़ने की इस कोशिश का एक कारण उन्होंने रोजगारों पर भारतीयों और चीनियों का दबदबा खत्म करना बताया था। उन्होंने साफ शब्दों में कहा था कि जब पूरी दुनिया में अवसरों को लेकर होड़ मची हो, तो अमेरिकियों के हित में यही होगा कि वे मौकों को हाथ से निकलने नहीं दें। उनका आशय इस ओर था कि रोजगार पैदा करने वाली खोजें अमेरिका में हों, न कि भारत, चीन या जर्मनी में। यह तो सही है कि आज हम अपनी दुनिया को जिस शक्ल में देख पा रहे हैं, उसके पीछे इंसानी दिमाग ही है। समस्त जीवधारियों से इंसान को अलग और सबसे श्रेष्ठ जीव बनाने में उसके दिमाग की ही भूमिका है। अन्य जीवधारियों से इंसानी दिमाग इसलिए अलग रहा है क्योंकि वह हर वक्त सूचनाएं बटोरता रहता है, उनकी पड़ताल करता है, उन्हें स्टोर करता है और चुपचाप हमारे लिए चेतना का एक मॉडल गढ़ता जाता है। साइंटिस्ट तो यह भी कहते हैं कि हमारे 10 खरब ब्रेन सेल्स जिस काम में लगे रहते हैं, उसका 90 फीसदी हिस्सा तो अवचेतन में चलता रहता है। हमें यानी हमारे सचेत मन को इसका पता नहीं होता, उससे बाकी दिमाग सलाह लेता ही नहीं है। पर कई बार अवचेतन में जमा यही जानकारियां दिमाग के खेल को एक झटके से नया मोड़ दे देती है। शायद इसीलिए कहा जाता रहा है कि मानव सभ्यता के लिए सदियों से जो रहस्य अनसुलझे रहे हैं, उनमें से एक रहस्य से उसका सबसे करीबी रिश्ता है- वह है इंसान का अपना दिमाग, जिसके कोनों में असंख्य गुत्थियां अनसुलझी पड़ी हैं।

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