मुख्य समाचारदेशविदेशखेलपेरिस ओलंपिकबिज़नेसचंडीगढ़हिमाचलपंजाबहरियाणाआस्थासाहित्यलाइफस्टाइलसंपादकीयविडियोगैलरीटिप्पणीआपकी रायफीचर
Advertisement

फिर नदी जोड़

04:00 AM Dec 27, 2024 IST

यह सुखद ही है कि जिन अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में बढ़ते जल संकट के समाधान के रूप में मेगा नदी जोड़ परियोजनाओं की कल्पना की गई थी, उनकी जन्मशती के अवसर पर उस सपने को साकार करने का सार्थक प्रयास शुरू हुआ है। लेकिन यह विडंबना ही है कि इस तरह की पहली परियोजना केन-बेतवा-लिंक परियोजना को सिरे चढ़ाने की दिशा में शुरुआत करने में चार दशक लग गए। निस्संदेह, यह एक महत्वाकांक्षी परियोजना है, लेकिन विलंब से काम शुरू होने से इसकी लागत में भी अच्छा-खासा इजाफा हो चुका है। निस्संदेह, ऐसे देश में जहां विश्व की अट्ठारह फीसदी आबादी रहती हो और दुनिया का सिर्फ चार फीसदी पीने का पानी उपलब्ध हो, भविष्य के जलसंकट का सहज अनुमान लगाया जा सकता है। शिलान्यास कार्यक्रम के वक्त प्रधानमंत्री की यह टिप्पणी कि जल सुरक्षा 21वीं सदी की सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है, नदी जोड़ परियोजना के प्रति सरकार के दृढ़ संकल्प की ओर संकेत देती है। निर्विवाद रूप से जलाशयों और नहरों के माध्यम से पानी के अधिशेष को जल संकट वाले इलाके की नदियों को स्थानांतरित करना, निश्चय ही सूखे की मार झेल रहे इलाकों का भाग्य बदलने जैसा ही है। लेकिन यह भी जरूरी है कि पर्यावरणीय जोखिमों का वैज्ञानिक ढंग से आकलन किया जाए। पर्यावरण वैज्ञानिक व पर्यावरण संरक्षण से जुड़े स्वयंसेवी संगठन प्रकृति के साथ खिलवाड़ की चिंताएं लगातार जताते रहते हैं। उनका मानना रहा है कि नदियों के प्राकृतिक प्रवाह में बाधा पहुंचने से पारिस्थितिकीय संतुलन प्रभावित हो सकता है। निस्संदेह, पर्यावरणीय संतुलन जरूरी है लेकिन जल संकट का समाधान निकालना भी उतना ही जरूरी है। दरअसल, राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी ने 168 बिलियन डॉलर के प्रस्तावित बजट वाली हिमालयी और प्रायद्वीपीय क्षेत्रों के लिये तीस लिंक परियोजनाओं की पहचान की है। निश्चित रूप से पानी के समुचित वितरण, बाढ़ नियंत्रण, सूखे से मुकाबले और जलविद्युत उत्पादन में अधिक समानता के लिये ऐसी परियोजना की तार्किकता साबित होती है।
इसके बावजूद पर्यावरणीय चुनौतियों पर ध्यान देने की भी सख्त जरूरत है। शोध अध्ययनों में दावा किया गया है कि हाइड्रो-लिंकिंग परियोजनाएं मानसून के चक्र में बदलाव ला सकती हैं। साथ ही परेशानी करने वाली जटिल जल-मौसम विज्ञान प्रणालियां विकसित हो सकती हैं। ऐसे में संभावित पारिस्थितिकीय क्षति की आशंका से इनकार भी नहीं किया जा सकता। निस्संदेह, इस दिशा में आगे चलकर व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना जरूरी हो जाता है। परियोजनाओं को क्रियान्वित करने वाले नीति-नियंताओं को फिर से परियोजना को तैयार करने पर संभवित प्रतिक्रिया का विश्लेषण करने के लिये तैयार रहना चाहिए। केन-बेतवा परियोजना के जरिये जटिल पर्यावरणीय पैटर्न का समाधान प्रदान करने के लिये विज्ञान सम्मत पहल होनी चाहिए। इसके लाभ व हानि के पक्ष का मंथन भी जरूरी है। यह विडंबना ही है कि आज भी जल संरक्षण के लिये सामूहिक पहल सार्वजनिक नीति में एक गायब कड़ी बनी हुई है। ऐसे में बड़े पैमाने पर बड़ी परियोजनाओं को प्राथमिकता देने के साथ-साथ,सरकार को कुशल सिंचाई परियोजनाओं, अपशिष्ट जल के पुनर्चक्रण और प्रदूषित पानी की स्वच्छता के लिये सस्ती प्रौद्योगिकियों के विकास पर अनुसंधान में तेजी लाने की जरूरत है। साथ ही पर्याप्त वित्तीय समर्थन की भी जरूरत है। बताया जा रहा है कि केन-बेतवा योजना के सिरे चढ़ने से मध्य प्रदेश की आठ लाख हेक्टेयर से अधिक व उत्तर प्रदेश की ढाई लाख हेक्टेयर भूमि को सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो सकेगी। जल शक्ति मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार करीब बासठ लाख लोगों को पेयजल की अनवरत आपूर्ति हो सकेगी। इसके अलावा जलविद्युत परियोजना के जरिये 103 मेगावाट बिजली तथा 27 मेगावाट सौर ऊर्जा का उत्पादन प्रस्तावित है। निस्संदेह, यदि केन-बेतवा जैसी महत्वाकांक्षी योजना सिरे चढ़ती है तो अन्य नदी जोड़ परियोजनाओं के लिये भी नई जमीन तैयार हो सकेगी। इससे पहले कुछ दिन पूर्व जयपुर में पार्वती-काली सिंध व चंबल नदी लिंक परियोजना के लिये त्रिपक्षीय समझौते के सिरे चढ़ने को इस कड़ी का विस्तार कहा जा सकता है। भविष्य में जल संकट से निबटने में ये परियोजनाएं महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं।

Advertisement

Advertisement