मणिपुर का जख्म
मणिपुर में भड़की हिंसा को एक साल से अधिक समय होने के बावजूद संकट के समाधान के गंभीर प्रयास होते नजर नहीं आ रहे हैं। राज्य सरकार के लगातार किए जा रहे दावे के बावजूद हिंसा थम नहीं रही है। आखिर कैसे कोई राज्य सरकार अपने नागरिकों के बीच लगातार जारी हिंसा, विस्थापन तथा सामान्य जीवन पर उपजे संकट के बावजूद निष्क्रिय नजर आती है। यह स्थिति डबल इंजन सरकार की तार्किकता को खारिज करती है। सबसे चिंता की बात यह है कि दोनों समुदायों के बीच संघर्ष का लाभ उग्रवादी तत्व उठाते नजर आ रहे हैं। उससे ज्यादा चिंताजनक यह कि वे अत्याधुनिक हथियारों का इस्तेमाल कर रहे हैं। हालात पर सरकार की कमजोर पकड़ के चलते म्यांमार सीमा में आवाजाही करने वाले चरमपंथी संगठनों को मणिपुर में अपना आधार मजबूत करने का मौका मिला है। जिन पर राज्य सरकार का हिंसा पर रोक लगाने के दावे का कोई असर होता नजर नहीं आता। तभी राष्ट्रविरोधी व चरमपंथी संगठनों को मजबूत आधार मिलने लगा है। दरअसल, जिन इलाकों में ज्यादा हिंसा हो रही है, वहां केंद्रीय सुरक्षा बलों की उपस्थिति को बढ़ाया जाना चाहिए था। यह बेहद चिंताजनक बात है कि चरमपंथी ड्रोन के जरिये बम व राकेटों से हमले कर रहे हैं। निस्संदेह, मणिपुर की हिंसा का देश-दुनिया में कोई अच्छा संदेश नहीं जा रहा है। ऐसे में राज्य सरकार राजधर्म का पालन करते नहीं दिखती। जिससे उसकी नीति-नीयत पर सवाल उठना लाजिमी है। दरअसल, सवाल केंद्र सरकार की कारगुजारियों को लेकर भी उठ रहे हैं। सवाल पूछे जा रहे हैं कि जब मौजूदा मुख्यमंत्री हिंसा शुरू हुए सवा साल बीत जाने के बाद भी हालात पर काबू नहीं कर पा रहे हैं तो केंद्र ने उनकी जगह सक्षम व्यक्ति को मौका क्यों नहीं दिया? अपने राजनीतिक व रणनीतिक उद्देश्यों के लिये भाजपा ने विगत में कई राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन भी किये हैं।
दरअसल, मणिपुर के मुद्दे पर विपक्ष भी लगातार केंद्र सरकार, खासकर प्रधानमंत्री पर हमलावर रहा है। सड़क से लेकर संसद तक प्रधानमंत्री के मणिपुर न जाने के मामले में सवाल उठाए जाते रहे हैं। कहा गया कि प्रधानमंत्री रूस व यूक्रेन के बीच जंग खत्म करने के लिये तो प्रयासरत रहे हैं, लेकिन अपने देश में मणिपुर समस्या के समाधान के प्रति उदासीन नजर आते रहे हैं। मणिपुर के मुद्दे पर उदासीनता तथा निष्क्रियता से उग्रवादियों को जड़ें जमाने का मौका मिल रहा है। जो कालांतर देश के लिये भी घातक साबित हो सकता है, क्योंकि ये हिंसा पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में भी असर दिखा सकती है। यही वजह है कि हाल की हिंसा के बाद मुख्यमंत्री बीरेन सिंह ने राज्य की क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा के लिए केंद्र सरकार से कदम उठाने की मांग की है। इतना ही नहीं, उन्होंने केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों सहित एकीकृत कमान का प्रभार राज्य सरकार को सौंपने की बात भी कही है। निश्चित रूप से मैतई व कुकी समुदायों में जारी संघर्ष को समाप्त करने के लिये बातचीत शुरू करने की जरूरत है। सवाल उठे हैं कि राज्य में लोकसभा चुनाव में पार्टी की शिकस्त के बावजूद नेतृत्व परिवर्तन पर विचार क्यों नहीं किया गया? आखिर केंद्र व राज्य सरकार ने लंबे समय से स्थितियों को यूं ही क्यों चलने दिया? सवाल उठाये जाते हैं कि प्रधानमंत्री ने मणिपुर जाने का निर्णय क्यों नहीं लिया? मुख्यमंत्री बीरेन सिंह की दलील रही है कि प्रधानमंत्री ने गृहमंत्री को राज्य में भेजा और अपनी चिंता का उल्लेख स्वतंत्रता दिवस के भाषण में किया था। निश्चित रूप से ऐसी कोशिशें मणिपुर की हिंसा को खत्म करने में मददगार साबित नहीं हुई हैं। खासकर पिछले दिनों चरमपंथियों द्वारा बमबारी के लिये ड्रोन व राकेट के इस्तेमाल ने सुरक्षा बलों की चिंता को बढ़ाया है। निश्चित रूप से हिंसा पर अंकुश लगाने व कानून का शासन बहाल करने के लिये केंद्र व राज्य को अपनी रणनीति में बदलाव करना चाहिए। साथ ही संघर्षरत पक्षों को बातचीत की मेज पर लाने की भी कोशिश नये सिरे से होनी चाहिए। निस्संदेह, मणिपुर की रक्षा के लिये प्रधानमंत्री का सीधा हस्तक्षेप अपरिहार्य ही है।