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दुनिया का चुनावी मेला ताकतवर बना वोटर अलबेला

07:04 AM Jun 09, 2024 IST
दुनिया का चुनावी मेला ताकतवर बना वोटर अलबेला
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पुष्परंजन
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।

दुनिया की आधी आबादी, जिसमें लगभग 4 अरब लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले 60 से अधिक देश हैं, 2024 में राष्ट्रपति, संसदीय और स्थानीय चुनावों में हिस्सा ले रहे हैं। भारत के बाद, 27 देशों के ब्लॉक यूरोपीय संघ में मतदान आरंभ हो चुका है। पहले यूरोप की चुनावी प्रक्रिया को हमारे यहां का मतदाता देखता था, इसबार भारत यूरोपीय वोटरों के लिए उदाहरण बना हुआ है। मेक्सिको से भारत तक, रूस से दक्षिण अफ्रीका तक, वेनेजुएला से सूडान तक, आधे से अधिक देश चुनाव करा चुके। दुनिया के 10 सबसे अधिक आबादी वाले देशों में से सात बांग्लादेश, भारत, इंडोनेशिया, मैक्सिको, पाकिस्तान और रूस में चुनाव हो चुके। बड़ी आबादी वाले ब्राज़ील में 5 हज़ार 568 पालिकाओं के लिए 27 अक्तूबर 2024 को मतदान होंगे, जो दो साल बाद आम चुनाव में मतदाताओं की दिशा निर्धारित करेंगे। उधर अमेरिका 5 नवंबर 2024 को राष्ट्रपति चुनाव कराने के लिए तैयार है।
भारत के सात चरणों में चले संसदीय चुनाव को दुनिया में सबसे बड़े मतदान की प्रक्रिया के रूप में देखा गया। उसके बरक्स इंडोनेशिया में 14 फरवरी 2024 को एक दिन में ही आठ लाख़ पोलिंग स्टेशनों में 20 करोड़ लोगों ने मतदान कर दिया। इंडोनेशियाई संविधान के मुताबिक़, जोको विडोडो तीसरी बार राष्ट्रपति पद के लिए लड़ नहीं सकते थे, इसलिए जनरल प्रावोओ सुविआंतो निर्वाचित हुए। इंडोनेशिया में सेना वाली पृष्ठभूमि के ये तीसरे राष्ट्रपति हैं।
मात्र 21 लाख की आबादी वाला बाल्कन का छोटे से मुल्क नार्थ मेसेडोनिया में भी 8 मई 2024 को संसदीय चुनाव हुए। यहां यूरोपीय संघ में एकीकरण की धीमी गति, और भ्रष्टाचार मुख्य मुद्दे थे। भारत की तरह मतदाताओं ने उत्तरी मेसेडोनिया में बहुमत वाली सरकार का जनादेश नहीं दिया है। राष्ट्रवादी वीएमआरओ-डीपीएमएनई पार्टी के नेतृत्व वाले दक्षिणपंथी विपक्षी गठबंधन ने 58 सीटें हासिल कर चुनाव तो जीत लिया, लेकिन यह पूर्ण बहुमत से तीन कम थे।
तुर्की की महिला राजनीति भारत जैसी
एक कहावत है, ‘चाची को मूंछ चिपकाने से चाचा नहीं हो जाती।’ कुछ इसी तरह की कवायद तुर्किये में राष्ट्रपति रिजेब तैयप एर्दोआन कर रहे हैं। साल 1930 में (देश भर में 1934 में) महिलाओं को तुर्की में पूर्ण राजनीतिक भागीदारी का अधिकार मिला, जिसमें वोट देने का अधिकार और स्थानीय स्तर पर कार्यालय चलाने का अधिकार भी शामिल था। नौ दशक बाद भी कुछ बड़ा बदलाव नहीं दिखा। पिछले साल मई में राष्ट्रपति चुनाव के साथ-साथ हुए संसदीय चुनावों में महिला सांसदों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, लेकिन यह कम है। कुल 600 सदस्यों वाली संसद में से केवल 121 सांसद महिला हैं, इनमें पचास सत्तारूढ़ एकेपी से और चार उसकी राष्ट्रीय सहयोगी, एमएचपी से आई थीं। आनुपातिक रूप से, ग्रीन लेफ्ट पार्टी में किसी भी पार्टी की तुलना में सबसे अधिक महिला प्रतिनिधित्व हैं, जिसमें 58 में से 30 महिला विधायक हैं। नई संसद में सीएचपी, गुड पार्टी और टीआईपी की क्रमशः 30, छह और एक महिला सांसद हैं। 2024 के स्थानीय चुनाव में 11 महिला मेयरों में से दस विपक्षी दलों से थीं, उन्हें औसतन लगभग 53 प्रतिशत वोट मिले। इस्तांबुल, अंकारा, इजमिर, अदाना और अंताल्या सहित तुर्किये के 922 जिलों में से 64 में महिलाओं ने जीत हासिल की, जिनमें से अधिकांश सीएचपी से थीं। हालांकि, 90 साल से सियासत में महिलाओं की भागीदारी के बाद भी, तुर्की की राजनीति में अब भी पुरुषों का वर्चस्व है। राष्ट्रीय राजनीति में महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व तुर्किये के लिए कोई अनोखी स्थिति नहीं है, क्योंकि इसी तरह की चुनौतियां विश्व स्तर पर बनी हुई हैं। अध्ययन के अनुसार, केवल पांच देशों में आधे या अधिक सांसद महिलाएं हैं। साल 2019 में भारतीय लोकसभा के लिए 78 महिलाएं चुनी गई थीं। वहीं 2024 के संसदीय चुनाव में भारत में केवल 74 महिलाएं चुनी जा सकी हैं, यह तुर्की की महिला राजनीति से मेल खाती है।
निष्पक्ष चुनाव की कसौटी
इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट के अनुसार, ‘साल 2024 में कुछ ऐसे चुनाव भी शामिल होंगे, जो आइसलैंड के राष्ट्रपति चुनाव की तरह स्वतंत्र और निष्पक्ष होंगे, और कुछ देश लोकतांत्रिक रूप से होने वाले चुनाव नकार भी सकते हैं।’ लगभग ऐसा ही हुआ। दो उदाहरण दरपेश है। रूस में बीते दिनों 15 से 17 मार्च, 2024 तक राष्ट्रपति चुनाव हुए। यह देश में आठवां राष्ट्रपति चुनाव था। व्लादिमीर पुतिन ने 88 प्रतिशत वोट के साथ जीत हासिल की, जो सोवियत रूस के बाद के राष्ट्रपति चुनाव में सबसे अधिक प्रतिशत था। इसे तानाशाही के तौर पर निरूपित किया जा रहा है।
दूसरा उदाहरण, उत्तर कोरिया है। मार्च या अप्रैल, 2024 में उत्तर कोरिया में संसदीय चुनाव होने की उम्मीद थी। ख़बर आई कि तानाशाह किम जोंग उन द्वारा उसे ख़ारिज कर दिया गया। उन्हें संविधान में सबसे पहले बदलाव करना था, जो उत्तर कोरिया को दक्षिण कोरिया से एक अलग देश के रूप में परिभाषित करता। दूसरी ओर दक्षिण कोरिया में 10 अप्रैल, 2024 को आम चुनाव संपन्न हुए, और डेमोक्रेटिक पार्टी (डीपी) ने देश की संसद में अधिकांश सीटें जीतीं। दक्षिण कोरिया में दो मुख्य राजनीतिक दल हैं, ‘डीपी’ और पीपुल पॉवर पार्टी (पीपीपी)। डीपी प्रगतिशील है, और पीपीपी रूढ़िवादी। मार्च के अंत तक, पीपीपी आगे चल रही थी, लेकिन अंतिम समय में मतदाताओं ने रूढ़िवादी नेताओं को झटका दे दिया।
वहीं एक जून 2024 को नार्डिक देश आइसलैंड में बिज़नेस वुमेन, हाला थॉमसदोतिर 34.6 प्रतिशत मतों से निर्वाचित हुई हैं। हाला मुल्क की दूसरी महिला राष्ट्रपति हैं। इनसे पहले 1980 में विगदिस फिन्नवोगादोरिस पहली महिला राष्ट्रपति चुनी गई थीं।
जहां हैं चुनाव के बड़े मायने
भारत के बाद यूरोपीय संघ, ब्रिटेन व अमेरिका के चुनाव परिणाम पूरी दुनिया के सूरतेहाल में अहम रोल अदा करेंगे, यह बात इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट के रणनीतिकार भी स्वीकारते हैं। कह सकते हैं कि साल 2024 चुनाव में हिस्सेदार बहुतेरे मतदाताओं ने अपने जीवन के कुछ साल किसी न किसी रूप में निरंकुशता के माहौल में बिताए हैं, जिनमें इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका और मैक्सिको जैसे देश शामिल हैं। ‘अवर वर्ल्ड इन डेटा’ के अनुसार, ‘1990 के दशक तक ऐसा नहीं था। अधिकांश देश आज के निरंकुश शासन की तुलना में किसी न किसी प्रकार लोकतांत्रिक थे।’
मतदाता की ताकत
मतदाता इतने ताक़तवर हो सकते हैं, यह तुर्किये के नेता रिजेब तैयप एर्दोआन, विश्व में बहुचर्चित नेता भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, दक्षिण अफ्रीका के अजेय रहे राष्ट्रपति माटामेला सिरिज राम्फोसा ने भी नहीं सोचा था। दक्षिण अफ्रीका के सबसे अमीर लोगों में से एक माने जाने वाले राम्फोसा ने इसकी कल्पना नहीं की थी कि उनकी लीडरशिप में एएनसी अल्पमत में आ जाएगी। पिछले हफ्ते चुनाव में शर्मनाक हार के बाद, दक्षिण अफ्रीका की सत्तारूढ़ अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस (एएनसी) इसी नतीज़े पर पहुंची कि राजनीतिक विरोधियों के साथ गठबंधन सरकार ही एकमात्र विकल्प है। इस बारे में बंद कमरे में बातचीत शुरू कर दी है। बीते रविवार को, चुनाव आयोग (आईईसी) ने घोषणा की, कि दक्षिण अफ्रीका में चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष थे, लेकिन किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। पार्टियों के पास राष्ट्रपति चुनने के लिए दो सप्ताह की समय सीमा है। विश्लेषकों का कहना है कि एएनसी को गठबंधन सरकार के लिए सहयोगी दलों की कई मांगों को स्वीकार करना होगा, जो उनके लिए अतीत में असहज था।
साझी सरकार का विकल्प
एएनसी ने पिछले शनिवार को अपने राष्ट्रीय नेताओं के साथ एक बैठक की, जिसमें गठबंधन में बदलाव और राष्ट्रीय एकता सरकार बनाने की संभावना पर चर्चा की। ऐसी व्यवस्था पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला के युग की याद दिलाती है, जिन्होंने 1994 से 1997 तक राष्ट्रीय एकता सरकार का नेतृत्व किया था। उस कालखंड में नेल्सन मंडेला राष्ट्रपति थे, और अंतिम रंगभेदी प्रधानमंत्री एफडब्ल्यू डी क्लार्क उनके उप-राष्ट्रपति बने। इंकथा फ्रीडम पार्टी (आईएफपी) के नेता कैबिनेट का हिस्सा थे। अब 27 साल बाद कुछ ऐसी ही परिस्थितियां पैदा हो गर्ईं, जिसके लिए यदि ठीक से देखा जाए, तो दक्षिण अफ्रीका के मतदाता ज़िम्मेदार हैं।
मैक्सिको में कायम मिसाल
मतदाताओं की ताक़त को और समझना हो, तो मैक्सिको का आम चुनाव भी एक उदाहरण है। मैक्सिको में राष्ट्रपति केवल एक टर्म के लिए चुना जाता है, लेकिन किसी ने कल्पना नहीं की थी कि एक महिला, वो भी यहूदी मूल की, इस देश में इतिहास रचने जा रही है। गत 2 जून 2024 के आम चुनाव में मैक्सिको के मतदाताओं ने क्लाउडिया शीनबाम को रिकॉर्ड वोट दिये। साल 2018 के चुनाव में क्लाउडिया के मेंटर आंद्रेस मैनुअल लोपेज ओब्रेडोर को 30.1 मिलियन वोट मिले थे, उस रिकॉर्ड को भी उन्होंने पीछे छोड़ दिया था। मेक्सिको के इतिहास में यह पहला आम चुनाव था जिसमें राष्ट्रपति पद के लिए दो महिलाएं मुख्य दावेदार थीं। दक्षिणपंथी सहयोग के बावज़ूद जोचिटल गैलवेज़, वामपंथी पार्टी ‘मुरैना’ की सदस्य क्लाउडिया शीनबाम के आगे टिक नहीं पाईं।
2023 में 30 हज़ार से अधिक हत्याएं मैक्सिको में हुई थी। करप्शन, किलिंग और ड्रग कार्टेल को रोक पाने में नाकारा साबित हो चुकी वामपंथी पार्टी ‘मुरैना’ में ऐसा क्या दिखा कि मैक्सिको के मतदाताओं ने क्लाउडिया शीनबाम को मसीहा मान लिया? इसे समझने के लिए कुछ महीने रुकना होगा। क्लाउडिया को क्राइम कंट्रोल, न्यायिक व पुलिस सेवा को मज़बूत करने, बुजुर्गों की आयु सीमा 65 से 60 करके उन्हें बेहतर पेंशन देने, मैक्सिको में रिफाइनरियों का जाल बनाकर कच्चा तेल निर्यात कम कर मुद्रा स्फीति को दूर करने जैसे वायदे पूरे करने हैं। शायद मतदाताओं को लगा होगा कि इस बार क्यों नहीं महिला को ही यह अवसर दें।
ब्रिटेन का परिदृश्य
ब्रिटेन में भी मतदाताओं का खौफ 14 साल से सत्ता पर काबिज़ कंजर्वेटिव पार्टी के नेताओं पर भी तारी होने लगा है। कुल 650 सीटों वाली ब्रिटिश संसद के लिए 4 जुलाई 2024 को मतदान होना तय है। अब एक महीने से भी कम समय रह गया है। जिस तरह भारत में चुनाव परिणाम आये हैं, उसका असर कमोबेश एशियाई मूल के ब्रिटिश मतदाताओं पर पड़ता दिख रहा है। यों, ऋषि सुनक से लोग यही उम्मीद कर रहे थे कि उनके रहते वर्ष के अंत में चुनाव होगा। लेकिन जिस तरह से सत्तारूढ़ सांसदों की भगदड़ मची, वह अद्भुत है। अब तक लगभग 129 सांसदों ने घोषणा की है कि वे दोबारा चुनाव में खड़े नहीं होंगे। उनमें से 77 कंजर्वेटिव हैं, जो एक सत्ताधारी पार्टी के लिए अभूतपूर्व पलायन है। 14 वर्षों तक विपक्ष में रहने के बाद, इस समय लेबर पार्टी को आपदा में भी अवसर नज़र आने लगा है। लेबर पार्टी अपने नेता कीर स्टारमर, जो कि लंबे समय तक मानवाधिकार वकील रहे हैं, के नेतृत्व में दोबारा से सत्ता हासिल करने का मौका खोना नहीं चाहती है।
कुछ विश्लेषकों का तर्क है कि विघटनकारी ताकतें अमेरिका में राष्ट्रपति पद की दौड़ को आगे बढ़ा रही हैं, जहां तुलनात्मक रूप से स्वस्थ अर्थव्यवस्था और सत्ता के फायदों ने राष्ट्रपति जो बाइडेन को भी नहीं बख्शा है। यह दीगर है कि 81 साल के जो बाइडेन कथित सामाजिक, नैतिक वर्जनाएं तोड़ने के लिए दोषी पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प से कड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं। अमेरिकी रणनीतिकार फ्रैंक लंट्ज कहते हैं, ‘अमेरिकी चुनाव बाएं बनाम दाएं के बारे में नहीं है, यह यथास्थिति बनाम परिवर्तन के बारे में है।’ उन्होंने राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा का जिक्र करते हुए कहा, ‘आप यू.के. में घर नहीं खरीद सकते, क्योंकि वहां एनएचएस काम नहीं करता है। अमेरिका में भी आप आवास या स्वास्थ्य देखभाल का खर्च नहीं उठा सकते। यह साल-दर-साल टूटे हुए सपनों की तरह है। मतदाताओं ने जो कुछ भारत में दिखाया है, अमेरिका उससे अछूता नहीं रहेगा।’
एर्दोआन की डिग्री और राष्ट्रवाद
इस्तांबुल जब भी यह लेखक गया, वहां की आबोहवा, संगीत, खानपान कभी पराया नहीं लगा। नोबेल प्राइज विजेता ओरहान पामुक का एक सामान्य शहरी की तरह रहना, मुझे और भी प्रभावित करता रहा। उस वाकये के कोई दस साल होने जा रहे हैं, जब ओरहान पामुक ने एक सार्वजनिक जगह पर बतकही के दौरान वहां के राष्ट्रपति की शिक्षा की प्रामाणिकता के बारे में जिक्र किया। बता दें कि 18 अगस्त 2014 को रिजेप तैयप एर्दोआन तुर्की के राष्ट्रपति चुने गये। उस पद के लिए वहां ग्रेजुएट होना अनिवार्य है। ओरहान पामुक ने बातचीत में रिजेप तैयप एर्दोआन की डिग्री जाली होने की तरफ इशारा किया था। वहां के कम्युनिस्ट नेता ओमन फारूक़ ने दावा किया कि एर्दोआन ने किसी भी विश्वविद्यालय से स्नातक नहीं किया है, इसलिए वह तुर्की के राष्ट्रपति बनने के लिए अयोग्य हैं। एर्दोआन के हाई स्कूल डिप्लोमा के बारे में भी इसी तरह के दावे किए गए हैं। इसे अदालत में चुनौती दी गई। मगर, एर्दोआन की डिग्री के बारे में मार्मरा विश्वविद्यालय ने लीपापोती कर पूरे मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया। जब भी कोई यह सवाल उठाता, उसे राष्ट्र विरोधी बोलकर एर्दोआन के समर्थक दबोच लेते हैं। बहरहाल, इकोनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट के विश्लेषक मानते हैं कि वोटर्स ने स्थानीय निकाय चुनाव में एर्दोआन के पंख कतर दिए हैं। उन्होंने बढ़ती मुद्रास्फीति और असमान आर्थिक विकास को ढंकने के वास्ते धर्म व राष्ट्रवाद को हथियार बनाया था। मतदाता निराश हो गए, और अंततः उन्होंने सत्ता पलटने की इच्छा दिखाई, जो वोट में कन्वर्ट हुआ।

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